Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे ताए जहा ओरालियसरीरस्स' काययोगतया यथौदारिकशरीरस्य कायजोग द्रव्याणि स्थितास्थितानि षदिगागतमभृतीनि च गृहणातीत्यर्थः । 'जीवे णं भंते जीवः खलु भदन्त ! 'जाई दबाई आणापाणुत्ताए गेण्डई' यानि द्रव्याणि आन माणतया गृणाति तानि कि स्थितानि द्रव्याणि अस्थितानि वेति प्रश्नः। उत्तर. माह-'जहेव' इत्यादि, 'जहेव ओरालियसरीरत्ताए' यथैव औदारिकशरीरतया यौदारिकशरीरद्रव्यग्रहणं-स्थितास्थितद्रव्यग्रहणरूपं तथाऽत्रापि 'जाव सिय पंच. लिय सरीरस्स' जीव-काययोगी जीव छहों दिशाओं से आये हुवे काययोग द्रव्यों का चाहे वे स्थित हो चाहे अस्थित हो ग्रहण करता है और जय व्याघात का सद्भाव होता है-तब वह कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओ से आये हुवे काययोग पौद्गलिक द्रव्यों का ग्रहण करता है।
अय गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'जीवे णं भंते ! जाई दवाई आणापाणुत्ताए गेण्हई' हे भदन्त ! जीव जिन द्रव्यों को श्वासोच्छ्रवास के रूप में ग्रहण करता है वे द्रव्य क्या स्थित होते हैं अथवा अस्थित होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'जहेव ओरालिय सरीरत्ताए' हे गौतम ! इस सम्बन्ध में कथन औदारिकशरीर के जैसे जानना चाहिये। अर्थात् जिस प्रकार औदारिक शरोरी जीव औदारिक शरीर की निष्पत्ति के लिये औदारिक प्रायोग्य पोद्गलिक द्रव्यों का चाहे वे स्थित हो अथवा अस्थित हों उनका ग्रहण करता है और यह उस का ग्रहण व्याघात
२४मा त थन प्रमाणे समा. 'कायजोगत्ताए जहा ओरालियसरीरस्स' -योगी ७१ छये हिश माथी मासा यया द्रव्यानु ચાહે તે સ્થિત હોય ચાહે અસ્થિત હોય તેનું ગ્રહણ કરે છે. અને જ્યારે વ્યાઘાતને સદૂભાવ હોય છે, ત્યારે તે કદાચિત્ ત્રણ દિશાએથી કોઈ વાર ચાર દિશાએ એથી અને કેઈ વાર પાંચ દિશાએથી આવેલ કાગ પૌલિક દ્રવ્યોને ગ્રહણ કરે છે.
हवे गौतभस्वामी प्रसुने मे पूछे छे है-'जीवे णं भंते ! जाई दवाई आणापाणुत्ताए गेण्हइ' भगवन् १२ द्रव्याने व सो२७वास ३५थी घडष्य કરે છે, તે દ્રવ્ય શું સ્થિત હોય છે ? અથવા અસ્થિત હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४ छ -'जहेव ओरालियसरीरत्ताए' गौतम ! म समयमा
દારિક શરીરના કથન પ્રમાણેનું કથન સમજવું. અર્થાત્ જે પ્રમાણે ઔદારિક શરીરવાળે જીવ ઔદારિક શરીરની પ્રાપ્તિ માટે ઔદારિક પ્રયોગ પદ્વલિક દ્વવ્યનું ચાહે તો તે સ્થિત હોય અથવા અસ્થિત હોય તેનું ગ્રહણ કરે છે. અને
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૫