Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 15 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे 'सो चेव अप्पणा जहन्नकालहिइश्रो जाओ' स एव-असंख्यातवर्षायुष्कः संज्ञिपश्च. न्द्रियतिर्यग्योनिक जीव एव यदि स्वात्मना-स्वयमें व जघन्यकालस्थितिकः सन् जानः समुत्पभो भवेत् तदा-'जहन्नेणं अट्ठभागपलिओवमटिइएमु उववन्नो' जघन्येनाष्टः भागपल्योपमस्थिति केषु उत्पन्नः। अस्मिन् चतुर्थगमे जघन्य कालस्थितिकोऽसंख्यातवर्षायुरौषिकेषु ज्योतिष्कदेवेधूत्पन्नः, तत्रासंख्यातायुषो यद्यपि पल्योपमाष्टभागात पम का है और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट से वह 'चत्तारि पलि भोवमाई घाससयसहस्समभहियाई" एक लाख वर्ष अधिक चार पल्योपम का है। ऐसा यह तृतीय गम है। ___'सो चेव अप्पणा जहागकालविहो जाओ' वही असंख्यात वर्ष की आयुवाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जब स्वयं जघन्य काल की स्थिति को लेकर उत्पन्न होता है और वह यदि ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने के योग्य होता है तो ऐसी स्थिति में वह 'जह न्नेणं अट्ठभागपलिभोवमटिहएतु उवचनो' जघन्य से एक पल्य के
आठवें भाग प्रमाण स्थिति वाले ज्योतिष्कों में उत्पन्न होता है और 'उक्कोसेण वि अट्ठभागपलिओवमटिहएप्लु उववन्नो' उत्कृष्ट से भी वह पल्यापम के आठवें भाग प्रमाण स्थिति वाले ज्योतिषकों में उत्पम होता है। इस चतुर्थ गम में जघन्य काल की स्थिति वाला असंख्यात वर्षायुष्क जीव औधिक ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न हुमा कहा गया है। सो वहाँ असंख्यातवर्ष को आयु वाले की जघन्य आयु यद्यपि पल्यो. पलिओवमाइ वाससयसहस्समब्भहियाई' से aur qष अघि या२ ५६योપમાને છે. એ રીતે આ ત્રીજે ગમ કહ્યો છે. ૩ ___'सो चेव अप्पणा जहण्णकालद्विइओ जाओ' असभ्यात वर्षनी भायुष्य વાળે એ સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ નિવાળે જીવ જ્યારે પિતે જઘન્ય કાળની स्थितिथी ५-न यवान योग्य छ, तत सेवा स्थितिमा त 'जहण्णेणं अदभागः पलिओवमद्विइएसु उववन्नो' धन्यथा ते मे पत्योपमना मामा सासनी स्थितिमा यति वाम 6.4 थाय छे भने, 'उक्कोसेण वि अटुभागपलिओवमद्विइएसु उववन्नो' अष्टथी ५९ त पक्ष्या५मना मामा लाश પ્રમાણની સ્થિતિવાળા તિષ્ક દેવમાં ઉત્પન્ન થાય છે. આ ચેથા ગામમાં જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળો જીવ ઓધિક
તિષ્ક દેવોમાં ઉત્પનન થયાનું કહ્યું છે તે ત્યાં અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્ય વાળાનું જઘન્ય આયુષ્ય જે કે પોપમના આઠમાં ભાગથી પણ હીનતર
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૫