Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
Publisher: Atmagyan Pith
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
अध्ययन का संक्षिप्त परिचय
प्रथम अध्ययन का नाम पुण्डरीक है । पुण्डरीक सौ पंखुड़ियों वाले उत्तम श्वेत कमल को कहते हैं । उसकी उपमा देकर धर्म में दिलचस्पी पैदा करने के लिए महान् पुरुषों का आख्यान बताकर जीवों को विषय-भोगों से निवृत्त करके सुसाधओं ने. उन्हें मोक्षमार्ग का पथिक बनाया। इस अध्ययन में संसार से मुक्त कराने वाले सुमुनियों का वर्णन है।
आशय यह है कि जिस प्रकार प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में भूतवादी, तज्जीव-तच्छरीरवादी, आत्मषष्ठवादी, ईश्वरवादी, नियतिवादी आदि वादियों के मतों का उल्लेख है, उसी प्रकार द्वितीय श्रुस्कन्ध के पुण्डरीक नामक प्रथम अध्ययन में उन वादियों के मतों की चर्चा है। प्रस्तुत अध्ययन में पुण्डरीक के रूपक की कल्पना की गई है और उसका परमार्थ समझाया गया है। रूपक इस प्रकार है---एक विशाल पुष्करिणी है । उसमें चारों ओर सुन्दर-सुन्दर कमल खिले हुए हैं । उसके ठीक मध्य में एक पुण्डरीक (कमल) खिला हुआ है । यहाँ पूर्व दिशा से एक पुरुष आया और उसने इस पुण्डरीक को देखा। देखकर कहने लगा-'मैं क्षेत्रज्ञ या खेदज्ञ हूँ, कुशल हूँ, विद्वान् हूँ, व्यक्त हूँ, मेधावी हूँ, ज्ञानी (अ-बाल) हूँ, मार्गस्थ हूँ, मार्गवेत्ता हूँ, और मार्ग पर पहुँचने के गति-पराक्रम का भी ज्ञाता हूँ। मैं इस उत्तम कमल को तोड़ लाऊँगा।" यों कहता हुआ वह पुष्करिणी में घुसा । और ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ने लगा, त्यों-त्यों गहरा पानी एवं भयंकर कीचड़ आने लगा । फलतः वह किनारे से दूर ही कीचड़ में फंस गया। अतः न इस ओर वापस आ सका और न ही उस ओर जा सका। इसी प्रकार पश्चिम, उत्तर और दक्षिण से आये हुए तीन अन्य पुरुष भी उस कीचड़ में फँस गये। इतने में एक सुसंयमी निःस्पृह एवं कुशल भिक्षु वहाँ आ पहुँचा। उसने इन चारों व्यक्तियों को कीचड़ में फंसे देखकर सोचा कि "ये लोग अकुशल, अमेधावी और अपण्डित मालूम होते हैं। इस तरह क्या ऐसा उत्तम कमल प्राप्त किया जा सकता है ? मैं इस कमल को प्राप्त कर सकूँगा।" यों सोचकर पानी में न उतरते हुए किनारे पर खड़ा रहकर ही कहने लगा-“हे श्रेष्ठ श्वेतकमल ! मेरे पास उड़कर आ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org