Book Title: Jain Jagat ke Ujjwal Tare
Author(s): Pyarchand Maharaj
Publisher: Jainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् के उज्ज्वल तारे 認 मूल्य है शान में से में व अनेक ग्रन्थों के लेखक साहित्यप्रेमी गणिवर्य पं० मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज * 4 ! # : 13 प्रकाशक जैनोदय-पुस्तक-प्रकाशक समिति, रतलाम 'प्रथम संस्करण २००० Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पंगालिगा सरदार अन्यमाला ना पुष्य नं०३ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे (सचित्र) लग जैन दिवाकर प्रसिद्धबहा पं० मुनि श्री चौथमलजी महाराज के शिष्य साहित्यप्रेमी गणिवर्य पंडित मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज प्रकाशक श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम. प्रथमावृत्ति । कुल:२००० मूल्य छः श्राने वी०२४६३ वि० १६६३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक मास्टर मिश्रीमल श्रॉ० मंत्री श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति रतलाम मुद्रकश्री जैनोदय प्रिंटिंग प्रेस रतलाम, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम. नागपुर जन्मदाता श्रीमान् प्रसिद्ध वक्ता पडित मुनि श्री चौथमलजी महाराज सदस्य शाह स्तम्भ श्रीमान् दानवीर राय वहादुर सेठ कुंदनमलजी लालचन्दजी सा० च्यावर , सेठ नेमीचन्दजी सरदारमलजी सा० ,, सरूपचन्दजी भागचन्दजा सा० कलमसरा ,, पुनमचन्दी चुन्नीलालजी सा० न्यायडोंगरी यहादरमलजी सुरजमलजी सा० यादगिरी ,, तखतमलजी सौभागमलजी सा० जावरा संरक्षक , श्रेमलजी लालचन्दजी सा० गुलेदगढ़ , लाला रतनलालजी सा० मित्तल आगरा ,, उदेचन्दजी छोटमलजी सा० मुभा " उज्जैन छोटेलालजी जेठमलजी सा० कनेरा (मेवाड़) ,, मोतीलालजी सा० जैन वैद मांगरोल "" सूरजमलजी साहेब भवानीगंज " वकील रतनलालजी सा० सर्राफ उदयपुर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 3 ] श्रीमान् सेठ कालूरामजी सा० कोठारी कुंदनमलजी सरूपचन्दजी सा० देवराजजी सा० सुराना :: .. नाथूलालजी छगनलालजी सा० दूगढ़ ताराचन्द्रजी ड्राहजी पुनमिया :: :: :: !! :: श्री महावीर जैन नवयुवक मंडल, श्री वे० स्था० श्रीसंघ, बड़ी सादड़ी श्रीमती पिस्ताबाई, लोहामन्डी राजीबाई, वरोरा 59 " "; 33 ?? 35 33 :3 :: चन्द्रपतिबाई :: उदयपुर श्रीमान् मोहनलालजी सा० वकील श्रीमान् सेठ मिश्रीलालजी नाथूलालजी सा० बाफणा कोटा .. लखमीचन्दजी संतोकचन्दजी स० !! श्रीमान् सेठ चम्पालालजी सा० अलीजार नेमचन्द्रजी शांकरचन्दजी सा० सहायक श्रीमान् सेठ सागरमलजी गिरधारीलालजी सिंकदराबाद मेम्बर श्रीमान् सेठ मन्नालालजी चाँदमलजी सजनराजजी साहव चंदनमलजी मिश्रीमलजी गुलेछा मिश्रीमलजी बावेल रिखवदासजी खींवेसरा हरदेवमलजी सुवालालजी दौलतरामजी चोगावत छगनलालजी सोजविया 11 33 :: !! !! R !! !! नारवाई, लोहामंडी 33 व्यावर व्यावर व्यावर मल्हारगढ़ सादड़ी चितौड़गढ़ ( मेवाड़ ) श्रवध सी० पी० आगरा सब्जी मंडी, देहली मु० मुरार व्यावर शिवपुरी ताल व्यावर व्यावर व्यावर व्यावर व्यावर भोपाल उदयपुर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] श्रीमान् सेठ छगनमलजी वस्तीमलजी व्यावर रतनचन्दजी हीराचन्दजी . वांदरा वम्बई श्रीमान ढोलाजी सोहनलालजी भवानीगंज , हरकचंदजी नथमलजी पंचपहाड़ ,, भँवरलालजी जीतमलजी सिरवोई , गुलावचंदजी पुनमचंदजी रायपुर रोडमलजी वावेल व्यावर ,, गुलावचंदजी इन्दरमलजी मारू मल्हारगढ़ किसनलालजी हजारीमलजी पिपलगाँव उगमचंदजी दानमलजी बोदवड़ राजमलजी नंदलालजी वरणगाँव बंडूलालजी हरकचंदजी नसीरावाद ,, जमनालालजी रामलालजी सा० कीमती हैद्रावाद ,, धनराजजी हीराचन्दजी सा० बैंगलोर हजारीमलजी मुलतानमलजी ,, हीरालालजी सा० धोका यादगिरी , कन्हेंयालालजी मोतीलालजी सा० शोलापुर ,, गणेशलालजी चत्तर सिवनी मालवा ,, सुरजमलजी जैन चैद मांगरोल ,, उम्मेदमलजी भंवरलालजी वेद मांगरोल , घासीलालजी श्रीनारायनजी सा० ,, सेठ रामचन्द्रजी सा० पल्लीवाल जैन गंगापुर सीटी , रिखवदासजी वालचंदजी वम्बई श्रीमान् सेठ चुन्नीलालजी भाईचंदजी बम्बई " , रसिकलासजी हीरालालजी वम्बई , , सेंसमलजी जीवराजजी देवड़ा औरंगावाद ,, पनजी दोलतरामजी भण्डारी अहमदनगर ". , पुखराजजी नहार वम्बई बैंगलोर चेतेड़ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदक इस वीसवीं शताब्दी में हमारे देश में अगणित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और दिन प्रतिदिन अधिकाधिक संख्या में प्रकाशित होती ही जा रही हैं। किन्तु ऐसे सत्साहित्य की अव तक भी बड़ी भारी आवश्यकता रही है जिस से मानव समाज अपने जीवन का उत्कर्ष कर सके । मानवजीवन की उन्नाने के लिये महापुरुषों की जीवनियां सब से अधिक उपयोगी होती हैं । हमारे समाज में महापुरुषों के जीवन चरित्रों की कमी नहीं हैं । किन्तु अभी तक कोई ऐसी पुस्तक दिखाई नहीं दी कि जिसमें भूतकाल के महापुरुषों के तप, त्याग और बलिदान की रूप-रेखा संक्षेप और सरलातिसरल भाषा में सम्मिलित में अंकित हो । इसी भाव की पूर्ति के लिये पूज्य श्री हुक्मीचंदजी म० के सम्प्रदाय के पाटानुपाट पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज के पट्टाधिकारी वर्तमान पूज्य श्री खूबचन्द्रजी म० के सम्प्रदाय के प्रसिद्धवक्ता जैन दिवाकर पं० मुनि श्री चौथमलजी महाराज के सुशिष्य साहित्यप्रेमी गणिवर्य पं० मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज ने यह " जैन-जगत् के उज्ज्वल तारे " नामक पुस्तक लिखी है । और उन्हीं की कृपाकटाक्ष से हम इस पुस्तक को प्राप्त कर के जनता के हाथों सौंप रहे हैं । अतएव हम मुनि श्री के पूर्ण आभारी हैं । इस पुस्तक में तीस महापुरुपों की कथाएँ हैं। सभी कथाएँ तप, त्याग और बलिदान की भावनाओं से ओतप्रोत हैं । हमें आशा है कि प्रेमी पाठक इन कथाओं को पढ़कर इनका अनुसरण करेंगे और कल्याण - साधना में तत्पर होंगे । -प्रकाशक Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इन दिनों जैन साहित्य के क्षेत्र में जो प्रगति हो रही है उसका नाता बहुत दूर का है। जैन समाज का प्रतीत एक गौरवपूर्ण प्रतीत रहा । संसार की जो मानव जातियों अपनी विमल संस्कृति के लिए श्राज तक प्रसिद्ध है। उनमं जन-जाति का भी एक खामा स्थान है। रोमन लोगों की विजय दुन्दुभी, यूनानियों की सहज सभ्यता का सरस संगीत, हिन्दुओं का गौरवगान, जैनियों की कल्याण-वाती धीर बान्द्रों की मर्म-वाणी याज भी इनिशाम के विद्याथिया के कर्ण कुदरों में गुज-गूंज उठनी है ! उम समय सुखशान्ति की चिर-प्यासी या मानवान्मा बमोठ-मोठे स्वम देयने लगती है।यद्यपि जागंसार श्राज से पहले धा वा अन्ज नहीं है तथापि संसारियों की सनाचिद्यानन्द की भूख और चिर शान्ति की प्यास अत्र भी चैमाही मधुर जिनियों के पुरातन साहित्य का स्वाध्याय कीलिए, हर जगह एक अनोखी शान्ति सलतीसी मिलती है। कहाना कुर हो, क्षेत्र कही हो, लेखक कोई हो वह साहित्य धारा कुछ ऐसी अनूठी गति से प्रवा. हित है कि उसकी लहर हमारी श्रान्मा को हलती है। टम साहित्य में श्रान्मासिद्धि के साधन मौजूद है, कल्याण की सीढ़ियों लगी हुई है और टमकै पृष्टी में निर्वाण' की मुहर लग जा- मेवा बदा प्रामाणिक बन गया है। जैन धर्म की यह दिव्य वाणी, केवल जन धर्म, समाज या जानि के लिए ही सीमित नहीं है वह तो समस्त संसार की एक अमूल्य निधि हो गई हैं। इसीलिए हम चाहे जनी हों, बौद्ध हो या श्रीर कोई हो, विध. कल्याण की यह शीतल छाया हमारी श्रात्मा को बड़ी शान्ति दे जाती है। इस 'जन-जगत के उज्यल-तारे में कुछ ऐसा ही भावना-चित्र चि. त्रित है । पुस्तक के एक गाध स्थलों ने तो हमें बहुत प्रभावित किया। इन कहानियों में पात्र अलग-अलग हैं, कथानक भी भिन्न भिन्न हैं; पर तत्य सब में एक ही है-ौर वह महान तत्व है कल्याण साधना का। श्राप देखेंगे कि सरल भाषा में. सरल ढंग मे, कुछ ऐसी सरल जीवनियाँ मनाई गई है जिन से मानवों की सहज-सरल श्रात्मा पूरा मैल खा जाती है और हम समझते हैं कि इन युग-युग की सन्देश-वाहिनी कहानियों की सार्थकता भी इसी में है। - गोपाल सिंह नेपाली (पुण्यभूमि-सम्पादक) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची संख्या विपय पृष्ट संख्या विषय १०६ (१) भरत चक्रवर्ती (२) स्कन्धाचार्य (३) उदाई राजा (४) हरिकेशी मुनि (५) अनाथी मुनि कम्पिल-ऋपि-राज भृगु पुरोहित (८) मुनि गज सुकुमार (६) अर्जुन-माली (१०) धर्म-रुचि-यणगार (११) पुण्डरीक कुण्डरीक (१२) चित्त और सम्भूत (१३) सेठ-धन्नाजी (१४) सेठ-शालिभद्रजी (१५) ढंढण-मुनि ६ (१६) प्रदेशी सजा ६ (१७) संयति राजा (15) सुश्रावक कामदेवजी १५ ६६ () सेठ-सुदर्शन २२ (२०) ललितान-कुनार (२१) कातिध्वज-मुनि 18 ३३ (२२) प्रभव स्वामी ४० (२३) बलदाऊजी ४४ (२४) जिनरिख-जिनपाल . (२५) अमर कुमार ५३ (२६) खन्धक मुनि ५८ (२७) राजर्पि-प्रसनचन्द्र ६५ (२८) मेघ-मुनि (२६) इलायची कुमार १६६ ८ (३०) सु-धायक अरणकजी १७८ १४५ १५२ १६३ ७० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत-चक्नवत्ती इस युग के प्रारम्भ में अयोध्या के महाराज श्री ऋपभदेवजी हुए। इन के एक सौ पुत्रों में से, सब से बड़े का नाम 'भरत' था। महागज स्वयं, इन्हीं के हाथों राज्य का भार . सोप कर, दीक्षित हो गये । श्रागे चल कर, यही महाराज, अपनी उग्र तपस्या, संयम व्रत की साधारणता, और परोपकार-वृत्ति की.पराकाष्टा के कारण, तीर्थकर तक बन गये। . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगन् के उज्ज्वल तारे महाराज भरत इतने प्रतिभावान् प्रतापशाली, प्रजा-हितेच्छुक, और दीन-प्रति-पालक थे, कि उन्हीं के नाम पर, हमारा यह देश 'भारतवर्ष कहलाने लगा। __कालान्तर में ही भगवान ऋषभदेवजी. विहार करतेकरते, उसी नगरी में पहुँचे। नगर के बाहर बाग में उन्हान वाल किया। धमापदेश देते हुए, एक दिन उन्हों ने फर्माया. कि "वे लोग. जो दिन-गत, ऐशो-याराम, और बारम्भ परिग्रह में बालक रहते हैं, मोक्ष के अधिकारी नहीं बन सकते । इन के विपरीत, व पुरुष, जो दिन-रात रहंत तो ऐस ही वातावरण में हैं; परन्तु प्रत्येक अवस्था में, निवृत्ति-मार्ग ही को अपने जीवन का एक मात्र ध्येय बनाये रहते हैं. मोक्ष उन के लिए दूर नहीं हैं।"प्रसंगवश. प्रागे चल कर उन्हों ने यह भी फर्माया, कि "भरत चक्रवती भी इसी भव में मानधाम के अनुगामी बनेंगे। "पड़ोस में बैठे हुए एक स्वर्णकार के हृदय को यह बात प्रखर गई। वह मन ही मन कहने लगा. "भरतर्जा, इसी भव में मोक्ष में सिधारेंगे। यह बात तो एक दम असम्भव-सी जान पड़ती है । कदाचित् अपने पुत्र के नाते, भगवान् ने यह बात कह डाली है । अन्यथा, छः वएडों के राज-मद में रात-दिन रत रहनेवाले. महा प्रारम्भी और परम परिग्रही की मोश, इसी भव में हो केस सकती है !" उसने अपने बल-भर इस बात का प्रचार और प्रसार नगर में, करने की चेष्टा की। महाराज भरत ने भी इस बात को सुना । तब तो, अति शीव ही, महाराज के सामने उसे पकड़ मँगवाने की, राजाज्ञा हुई। तदनुसार, वह तुरन्त ही पकड़ कर लाया गया। और, महाराज के सामने पेश किया गया। राजाझा के अनु [२] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्ती - नार, उन के हाथों में लबालब भरा हुया नेल का एक पात्र रखा गया। अपर से यह भी फर्मान हुथा, कि नगर के मध्यमागों से घुमा-फिरा कर, पीछा, गज-प्रासाद में इस को लाया जाय । परन्तु स्मरण गड, कि यदि एक बूंद भी तेल की इस ने पृथ्वी पर पटक दी, तो वहीं एम का सिर, धड़ से अलग कर दिया जाय । राजामा के सुनते ही सुनार के हाथ-पैर फूल गय । परन्तु छुटकार का कोई चारा न था। जिन मानस का स्वर्णकार निकाला जाने वाला था, वे मार्ग विशर एस उस दिन सजाये गये । जिस से उस का गन, उस सजावट की ओर, किसी भी तरह, आप हो जाय। परन्तु यहां नो प्राणों की बाज़ी लगी थी ! फिर तो मार्ग में चलत हुए, अपन अधीन थान्म-रक्षा के जिन-जिन उपायों को या कर सकता था, अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर उसने पिया जिस-तिस नरम स मार्ग का परिभ्रमण उस ने पूरा किया। श्रन्न में महाराज के सम्मुगा उसे उपस्थित किया गया। सम्राट न उस से पूछा,-"स्वर्णक्रारजी ! सच-सच बताया, याज बाज़ार में तुम न क्या-क्या देखा ? प्राण-दगड से ना तुम मुहाली गय हो । अब किसी भी बात की चिन्ता तुम्हें न रखनी चाहिए।" इस पर यह सुनार बोला-"महागज! क्या-क्या दग्गा ? इस का उत्तर तो मेर साथीही केवल दमकत हैं। मेरे लिए ना, यह तेल का पात्र, केवल वही लवालव-भरा तेल का पात्र, देखने की एक वस्तु, उस समय थी। मर प्राणों का सौदा उसी पर था। श्राप श्रीर अन्य लोग,सभी कहते हैं, कि रास्ते में नाना भाँति के राग-रंग भी पडे ही अनट और चित्ताकर्षक हो रहे थे। परन्तु मैं तो उन सभी [३] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे की तरफ़ से सोलहों आना, वेनवर था। देखना तो दूर की वात रही. मैं ने तो कानों से एक काना शब्द तक सुन न पाया। मुझे तो पद-पद पर केवल यही ध्यान था, कि तेल की एक वृंद तक धरती पर टपकने न पावे । अन्यथा, उस वूद के साथ ही साथ, मैं भी सदा के लिए वहीं सुला दिया जाऊँगा।" वस, इसी आप-चीती वात के द्वारा, सम्राट् ने सोनीजी को अपने मन की दशा का परिचय कराया। वे वोले," सोनीजी! जिस प्रकार मृत्यु को निकट समझ,विलास-पूर्ण विशाल वाज़ार की एक भी वस्तु की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं था, ठीक उसी तरह, इस वैभव-पूर्ण वड़े-भारी साम्राज्य का शासक हूँ तो मैं जरूर; परन्तु तुम्हारी ही तरह मृत्यु को मैं भी प्रति पल अपने सिर पर अट्टहास करते हुए देखता रहता हूँ। यही कारण है, कि मैं सम्राट् कहलाते हुए भी, सम्राट् सचमुच में नहीं हूँ। खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेते-देते, हर समय, मेरे ध्यान में, एक-मात्र निवृत्ति मार्ग ही वसा हुआ रहता है । मैं प्रवृत्ति-मार्ग का पोषक, केवल इसीलिए ऊपर से दिख पड़ता हूँ, कि मेरी अधीनस्थ प्रजा कहीं अकर्मण्य न वन बैठे। अन्यथा,अन्तःकरण से हूँ मैं उसका घोर विरोधी। परन्तु हाँ,मैं केवल उसी दिन को अपने लिए परम सौभाग्यशालीसमअँगा, जिस दिन, मैं इस संसार के सम्पूर्ण मोहक एवं विशाल वैभव से, सोलह-आना अपना नेह और नाता तोड़ कर, कैवल्य,और केवल कैवल्य-कमला के साथ वरण करूँगा।"अस्तु । ___ सम्राट् की इस सार-गर्भित वाणी को सुन कर, स्वर्णकार का संशय-शील चित्त लज्जा से एक-दम सिट-पिटा गया । उसका सिर, सक्रिय आत्म-धिक्कार से नीचे लटक पड़ा। [४] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवती अपने कृत अपराध और धृष्टता के लिए, सम्राट् से, नत मस्तक हो, क्षमा-याचना उसने की। तदनन्तर, भगवान् श्रादिनाथ के उपदेशों और वचनों में दृढ़ विश्वास ला कर, वह अपने घर को लौट गया । • } एक दिन, सम्राट् श्रपने शीश महल में, अपने रूपयौवन को निरख रहे थे। उसी समय, उनके हाथ की एक अँगुली से हीरे की एक अँगूठी नीचे गिर पड़ी वह अँगुली उन्हें नंगी और भद्दी-सी नज़र आई । तब तो उन्हों ने एक-एक करके अपन सम्पूर्ण श्राभूषण अपने अंग-प्रत्यंगों पर से उतार डाले। फिर वे अपने शरीर को निरखने लगे । श्राभूषण सहित और रहित शरीर की शोभा में उन्हें हिमालय की चढ़ाई और उतराई के समान, श्रन्तर जान पड़ा । उसी समय उन्होंने देह की नियता पर विचार किया। दूसरे दूसरे पुद्गलों के प्रभाव ही से यह सुन्दर जान पड़ती हैं । श्रन्यथा, हाड़-माँस-मज्जा श्रादि गँदले पदार्थों से निर्मित इस देह में दीप्ति था कहाँ से सकती हैं ! भाँति के श्रावरणों का साथ कर, श्रात्मा, अनेकों प्रकार की हीन तथा उच्च योनियों में भटकती फिरती है । इन सात्विक विचारों के हृदय में पैठते ही, सम्राट् को यहाँ खड़े-खड़े ही कैवल्य ज्ञान हो थाया। तब तो, उसी पल, अपने सम्पूर्ण राज्य-भार को, उन्हों ने अपने सिर कन्धों से उतार दिया । और, एक हज़ार ग्रन्य माण्डलिक नरेशों के साथ, वे दीक्षित हो गये । यूँ, श्रात्म-कल्याण के अक्षय राज - मार्ग का अवलम्वन कर, अन्तिम समय में, निर्वाण पथ के निरन्तर पथिक वे बने | " [ 2 ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्धाचार्य भगवान् मुनि सुव्रत स्वामी के समय, सावत्थी ( स्यालकोट ) के राजा जितशत्रु थे । महारानी का नाम धारिणी था । प्रजा इन महाराज के राज में तन, मन और धन से सव प्रकार, भरी-पूरी थी । इन की न्याय-नीति तथा उदारता की घर-घर में धूम थी । महाराज को 'स्कन्ध-कुमार ' नाम का एक पुत्र था । और 'पुरन्धरयशा' नामक एक कन्या । दोनों वालक सु Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्धाचार्य - कार को दी गई। हुई,दण्डकारण्य कार का पु शील, धर्म-भीम, दयावान्, विद्वान् , विवेकशील और परम मातृ-पितृ-भक्त थे। पुत्री जय विवाह के योग्य हुई,दण्डकारण्य के महागज 'कुम्भकार को दी गई । एकदिन महाराज कुम्भकार का पुगहित. पालक, सावाशी में श्राया। समय पाकर, एक दिन, उसने एक सभा में, अनेकों प्रकार की कुयक्तियों से, नास्तिक मत का मण्डन कर, उसका प्रचार करना चाहा। परन्तु विद्वान् स्व.न्ध-कुमार के शास्त्र-सम्मत तथा अकाट्यप्रमाणों के प्रांग.पालक के पैर उखड़ गये। उसे भरी सभा में, लन्जित हो कर, कुमार के सामने अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। फुमार न उस की प्रत्येक कु.युक्ति का , व्यवहार और सिद्धान्त दोनों को साथ रख कर, या मुँह-तोड़ उत्तर दिया, कि जिसे देख कर सारी सभा दंग-सी रह गई । यस, उसी पलक से पालक, कुमार का कट्टर शत्रु बन गया। उस के मन में, ईर्ष्या उमढ़-उमड़ कर उछलने लगी । वह वहाँ से अपने गज्य में श्राया। और, दिन-रात इसी चिन्ता में रत रहने लगा, कि कुमार को अपनी करणी का मज़ा कैसे चखाया जाय । इधर, कुमार ने, किसी एक दिन, भगवान मुनि सुव्रत स्वामी का उपदेश सुन लिया। जिसके कारण, संसार की श्रसारता का बोध उन्हें हो गया। उन के साथ, उस समय, अन्य चारसी निन्यानवे साथी राजकुमार भी थे। उन का भी वही हाल हुश्रा । तव तो इन सभी ने दीक्षा ग्रहण कर ली। और, ये सब के सब अपने जप, तप तथा संयम में निमग्न रह कर, इधर-उधर विचरण करने लगे। एक दिन, मुनि स्कन्धाचार्य ने, दण्डकारण्य प्रदेश में जा कर, अपनी सांसारिक बहिन को प्रतिबोध करने की बात सोची । इस के लिए, भग [७] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगन् के उन्मल तारे वान् मुनि सुव्रत से उन्हान अाशा चाही। भगवान ने उन पर अचानक श्रान वाले उपसर्ग की बात उन्हें कह सुनाई । इतना ही नहीं भगवान् ने यह भी उन्हें कहा, कि " उस उपसर्ग से तुम्हारे साथी लोग तो पाराधिक चनंगे: परन्तु तुम्ही अकले विराधिक होगे।" होनहार हो कर ही रहती है। जो लोग अपने से ज्ञान तथा अनुभव में बड़े हैं, उन की हित-मयी बात को न मानने ले भी, अनेकों प्रकार को आपत्तियों का उन्हें अकारण ही सामना करना पड़ता है। स्कन्धाचार्य तथा उन के साथियों के सिर पर भी वही बलाय श्रा कर पड़ी. जो गुरुजनों की अनुभव-सिद्ध और हित-जनक वाणी को न माननेवालों के सिर, अचनक श्रा कर पड़ती है। स्कन्धाचार्य तथा उनके अन्य साथियों ने दरडकारण्य की ओर, प्रस्थान कर ही दिया । और, विहार पर विहार करते हुए, व एक दिन दण्डकारण्य प्रदेश की राजधानी के प्रसिद्ध उद्यान में जा विराजे। पुरोहित पालक ने कमार से बदला चुकालेने का इसे उड़ा ही सुन्दर सुयोग जाना । और, उस से पूरा-पूरा लाभ उठा लेना चाहा । उसी रात को. मुनियों के ठहरने के ठीक पास ही में, उस ने बड़े ही भयंकर पूरे-पूरे पांच सौ अस्त्र-शस्त्र भूमि में गड़वा दिये। इतना ही नहीं. सुबह होते ही होते, वह राजा के सामने जा पहुँचा । उसने राई का पर्वत बना कर इस बात को राजा के आगे कही । वह बोला, " महाराज का भगवान् सदा भला करें । परन्तु समय बड़ा नाजुक है। जिसे आप अपना मानते और समझते हैं, वहीं आप का साला, जिसे आप अपना सच्चा सहायक भी कहते आये हैं, आज अपने चार [-] परन्तु समय बही आप का सामान अप Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्धाचार्य सौ निन्यानवे अन्य वीर योधार्थी के साथ कपट मुनि का प धारण कर.. श्राप के उद्यान में था उत्तरा है। वह इस बात की रोह में है, कि समय अनुकूल देख कर आप के राज्य पर धावा बोल दिया जाय। बड़े भयंकर शास्त्र भी उनके साथ हैं, जो उनके पढ़ाब के पड़ीस ही भूमि में गढ़े पड़े हैं। मुझे श्राज ऐसा न पड़ा है । हाथ कंगन को श्रारसी ही क्या ? यदि महाराज को कोई ऐतराज़ न हो, तो चल कर मामले को जरा दो श्राँखों से देख ले ! पालक की स्वामिभक्ति भरी दलील महाराज को माननी पड़ी । वे उसके साथ सवार हो लिये । चल मौके पर थाये । पालक की बात सोलह थाना सत्य निकली। यह देखकर महाराज बड़े ही ढंग हो रहे । महाराज और उन के अन्य साथियों ने पालक की पेटभर प्रशंसा की । कुमार को कठिन से कठिन दण्ड देने की राजाना हुई । दण्ड का निर्णय तथा सर्वाधिकार पालक की इच्छा पर छोड़ दिया गया। कुटनीतिकुशल पालक की श्रव तो पूरी बन पड़ी । पालक ने श्रपने अपमान का बदला, एक गुना नहीं, दस गुना नहीं, वरन पूरा-पूरा सैकड़ों गुना चुका लेना चाहा । पुरोहित के साथ महाराज वस्ती की ओर था गये । श्राते ही पुरोहित ने कुछ कुशल कारीगरों को अपने साथ लिया। बस्ती के बाहर एकान्त स्थान उसने देखा । यहाँ पनी इच्छा के अनुसार, एक विशालकाय, नर-संहारक कोल्हू की रचना उसने करवाई । तव नारी-बारी से स्कन्धाचार्य के चार सौ श्रानवे साथ में श्राये हुए मुनियों को, बड़ी ही निर्दयतापूर्वक, उस में डाल-डाल कर, गन्ने की भाँति, पिलवा दिया गया । श्रव स्कन्धाचार्य और उनके एक छोटे शिष्य मात्र रह [&] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे गये। श्राचार्य ने उस से पहले अपने को पिलवा देना चाहा। परन्तु नर-संहारक पालक ने उन की जरा भी नहीं सुनी। उसने श्राचार्य के देखते ही देखते उसे भी उस कोल्ह में पिलवा दिया। यह देख, श्राचार्य का हृदय, क्रोध के कारण उवल पड़ा। उनके हृदय में क्रोध और बदला चुकाने की भावनाओं का एक चारगी ज्वार-भाटा सा आ गया। अन्य मुनियां ने तो हँसते-हँसते इस रोमाञ्चकारी वेदना को सह लिया था। यही कारण था, कि वे प्रत्येक अपने पाठों घन-घाती कमों का एकान्त अन्त करने में पूर्ण सफल हो सके । और, वे मोक्ष में भी पहुँच गये । परन्तु आचार्य की अन्तिम भावनाओं में, क्रोध का उग्र उवाल था । वस, इसी कारण से, श्राचार्य को पुनजन्म धारण करना पड़ा। दूसरे जन्म में, वे भुवनपति में जाकर, अग्नि-कुमार क रूप में उत्पन्न हुए । समय पाकर, तय वहीं से, उन्होंने अपने प्रतिपक्षी के प्रदेश पर, अग्नि की भयंकर वर्षा की। परन्तु अपनी बहिन के खास प्रासाद को विलकुल छोड़ दिया । वस, उसी दिन से उस प्रदेश को लोग 'दण्डकारण्य ' कहने लगे। __ अतः अन्तिम समय में, जैसे भी हमारे भाव होते हैं, वैसी ही हमारी गति होती है। तव हमें अपने भावों को सदा सर्वदा शुद्ध तथा सम बनाये रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। साथ ही, हमें यह भी कभी न भूलना चाहिए, कि द्वेप की प्रचण्ड प्राग, केवल प्रेम ही से वुझाई जा सकती है। द्वप से तो वह उलटी और भी धधक उठती है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाई राजा श्राज से लगभग ढाई हज़ार वर्ष पहले, भगवान् महावीर के समय, सिन्धु नदी के किनारे, 'वित्तभयापाटण' एक चड़ा ही विशाल और रमणीय नगर था। महाराज उदाई वहाँ के राजा थे। कई वर्षों तक वे न्याय-नीति और सुख-पूर्वक राज करते रहे। सत्संगति के वे बड़े प्रेमी थे । एक दिन उनके पुरायों का उदय हुश्रा। उन्हें इस बात का दृढ़ निश्चय हो गया, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन जगत् के उजाल नारे कि ससार असार है । वहाँ का बड़े से बड़ा राज-भव हलाहल विप के सदृश है । तब भगवान महावीर के निकट, दीनित होने का उन्होंने मन में ठाना । चोर प्रभु उन दिनों चम्पा नगरी में थे । वहाँ से बिहार कर ये वित्तभयापाटण की और पधारे । महाराज ने इसे अपनी मनोकामना की सिद्धि का बड़ा ही सुन्दर सुयोग समझा । परन्तु इस के पहले. व इस पशीपेश में पड़ गये, कि राज का भार किस के कन्वों पर रक्खा जाय । अन्त में, उन्हों ने निश्चय किया, कि "इल राज-मुकुट को, जो सचमुच में प्राण-नाशक, नुकीले काँटों का ताज है. जो विप-रस-भरा कनक-घट जैसा है, अपने प्राण-प्रिय पुत्र को तो कभी नहीं पहनाऊँगा । क्योंकि, जिसे स्वयं में अपने ही लिए लोक तथा परलोक का नाशक समझता हैं, उससे मैं अपने ही पुत्र को दुखी और बेहोश क्यों कहँ।ऍलोच-समझ, अपने भांजे को वह राज उन्हों ने सौंप दिया । और, आपने स्वयं वीर प्रभु की शरण में जा, अपने लोक और परलोक की साधना के लिए, दीक्षा ग्रहण कर ली। छिछले विचार के पुत्र ने पिता के इस पवित्रतम कार्य में,अपने साथ घोर अन्याय हुआ मानाः अपना वड़े से बड़ा अपमान समझा। जिसके कारण, उत्स ने उस राज्य की सीमा के भीतर रहना तक पाप माना । और, अन्यत्र जा वसा । उधर प्राचार्य उड़ाई भी, तप और संयम का पूर्ण पालन करते हुए, गाँव-गाँव में विचरण करते और एक दिन धौपदेश देते-देते, उसी वित्तभयापाटण में आ पहुँचे। उनके भांजे राजा को उनके आगमन का सन्देश मिला। उन्होंने समझा, "मेरे मामाजी मुझ से राज्य को छीन कर,पुनः [१२] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाई राजा अपने पुत्र को देने के इरादे से ही यहाँ श्राये हुए हैं।" जगत् केन ने कहा है, कि राजनीति, समय के अनुसार अपने रुख पलटा करती है । उसने किसी का भी विश्वास करना तो सीखा ही नहीं | यह सोच कर एक राज घोषणा उन्होंने उसी समय अपनी राजधानी में करवा दी, कि " श्राये हुए उदाई मुनि को कोई कभी भूल कर भी, श्राहार-पानी न बहरावे । श्रर न उन्हें निवास के लिए स्थान ही दे । राजाज्ञा की हलना करने पर प्राणान्त तक का कठोर दण्ड दिया जा संकेगा । " जान-बूझ कर अपने आप को मौत के मुँह में कौन डालना चाहेगा ! राजाशा के पालन करने का पूरा-पूरा प्रयत्न लोगों ने किया। प्रत्येक घर के स्वामी ने अपने-अपने घर के सामने ऐसे-ऐसे साधन जुटाये, कि जिससे वह घर मुनि की दृष्टि में श्रमता जान पड़े। वैशाख की प्रचण्ड तपन ने पृथ्वी को भार की कढ़ाई बना रक्खा था। वहीं दिन, मुनि के माससमण के पारगे का दिन भी था । घर-घर और दर-दर घूमतेघुमाते लगभग एक बज चुका । मुनि को कहीं से भी श्राहारपानी न बहराया जा सका । धूप की प्रचण्डता, पृथ्वी की, भयंकर तपन, और थकावट के त्रिताप से, मुनि को दाह ज्वर हो श्राया । राक्षसों की सघन बस्ती लंकापुरी में कोई एक-प्राध विभीषण रहता ही था । उसी प्रकार उस बस्ती में भी, एक दीन-हीन कुम्हार, मुनि की इस सन्तप्त दशा को और अधिक समय के लिये न देख सका। उसने उसी समय राजाशा को एक और ठुकरा दी । उसने बड़े ही प्रेम भाव से अपने हृदय को निकाल कर मुनि के चरणों में रक्खा । राजाशा के भंग करने में, उसने अपने सर्वस्त्रापहरण की रंचमात्र भी पर्वाह [१३] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जगत् क उज्ज्वल तार न की । तपोधनी मुनि की सेवा करने और उन्हें श्राहारपानी वहरा कर तृप्त करने ही में उसने अपने मानवजीवन की सफलता मानी । उस के द्वारा प्रार्थना करने पर मुनि ने उस के घर जा, श्राहार-पानी ग्रहण किया। गुप्तचरों के द्वारा, उसी समय, यह वात राजा के कानों पड़ी। राजधानी के एक प्रसिद्ध वैद्य को उसी क्षण बुलाया गया । और, उसे राजाज्ञा मिली, कि वह विना विलम्ब किय उस कुम्हार के घर पर जा कर, उदाई मुनि को, किसी श्रीपधि के मिस, हलाहल विष का पान करा यावे । उसी के साथ, यह भी शर्त ठहरी, कि यदि यो मुनि का प्राणान्त करने में वह असफल रहा, तो वह अपने कुटुम्ब-समेत किसी कोल्ड में, ईख की भाँति, पिलवा दिया जायगा । वैद्य ने जाकर पहले तो मुनि की कृपा सम्पादन करने का प्रयत्न किया। तब उसने बताया, कि मुनि किसी भयंकर रोग से पीड़ित हैं, जिस का उपचार तत्काल होना चाहिए । मुनि सम-दर्शी थे । वैद्य की पाँचों अँगुलियाँ अब घी में हुई। उस ने बावन तोला और पाव रत्ती अपनी शक्तियों की श्राज़माइश की । मुनि ने पधि के मिस, हलाहल विप का, निःशंक हो कर, हँसते-हँसते पान कर लिया । विप की गर्मी ने ज़ोर मारा। दाह-ज्वर, मुनि का चौगुना भड़क उठा । परन्तु मुनि ज्ञानी थे । उन्हों ने अपने शुद्ध भावों में अणु-मात्र भी अन्तर न होने दिया। इसी भावशुद्धि के कारण, उन के हृदय में 'अवधि-ज्ञान' का उज्ज्वल प्रकाश होआया।अपने इस ज्ञान के द्वारा, उन्हों ने उसी समय जान लिया, कि राजाज्ञा से वैद्य ने उन्हें विप-पान करवाया है। राजा के इस कार्य की उन्हों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की । तथा, यह कहते हुए वार-बार अपन को उन्हों ने धिक्कारा, कि मैं ने [१४] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाई राजा अपने भांजे के साथ घोर अत्याचार किया है ! उसने तो मुझे विष पिलवा कर, केवल एक ही बार दुग्न देने का आयोजन किया है। परन्तु मैं ने तो उसे राज-मपी ऐसा घोरतम विपपान कराने का प्रयत्न किया है. जिस के कारण दुखित हो कर,यह जन्म जन्मान्तरोतक,धाद मार-मार कर,रोता रहेगा। हा हन्त ! मुमला पापी और स्वार्थी और कोन है ! विष-पान द्वारा प्राण-यध के दगड के अतिरिक्त और भी कोई कठारतम दगड हो, वह मुझे शात्र स शीघ्र मिलना चाहिए । में उसे इसने-हँसते सहँगा। मेरे पाप तथा स्वार्थ के प्रायश्चित्त का केवल यही एक उपाय है।" इस कपट हीन श्रात्म-निन्दा, नया अपने पापों की बारम्बार की पालोचना-प्रत्यालोचना करने के कारण. एक-यारगी दिव्य 'कैवल्य-मान' का उज्ज्वलनम प्रकाश उन के हृदय में हो पाया। बस, फिर क्या था, उन की श्रमर यात्मा ने, अपने भौतिक मुनि-शरीर से नाता नाद, सिद्धत्त्व से स्थायी सम्बन्ध जोद लिया । परन्तु देवपुर में गजा के इस जघन्य कार्य की करारी निन्दा हुई। देवताओं के हृदय में आय का उफान आगया। उन्हों ने उस कुम्हार के घर को देखकर, सम्पूर्ण राजधानी पर, अग्नि और धूल की प्रचण्ड वर्षा की । राजधानी के रमणीय रंग में अचानक प्रलयकाल का तूफान मच गया। सभी लोगों ने, साधु-अवज्ञा श्रार सन्त-वध का, 'युर्व सो लुबै निदान के नातं, अपनीअपनी करणी का तत्काल फल पाया। साथ ही उस राजा के काम ने संसार को यह बात भी सिखाई कि "कुनधन कबहुँ न मानिय, कौटि कर जो कोय । सर्वस श्रागे राग्घिय नऊ न श्रधुनो होय ॥" [२५.] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशी मुन्दि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष हुए, तब गंगा नदी के तट पर, किसी एक गाँव में एक चारडाल कुल रहता था । उसी में से हरिकेशी नामक एक हरिजन वालक था ! नटखटी और उदण्डता, उत्त के जन्म-जात अधिकार थे। रास्ते चलते हुए लोगों से मज़ाक और छेड़-छाड़ करना, मानो उसे उसकी जन्म-धुंटी के साथ पिलाया गया था । उसकी इन दुष्ट Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशी मुनि हरकतों से तंग आकर, उसके माता-पिता ने उसे घर के बाहर निकाल दिया | तब इधर-उधर भटक कर यह अपना जीवन बिताने लगा । एक दिन, मार्ग में चलते-चलते, बड़ी तेज़ी से रंगते हुए साँप को उसने देखा । जिस के लिए लोग चारों ओर से ' पकड़ो' ' पकड़ो' की पुकार मचाते हुए एकत्रित हो रहे थे। उसके थोड़ा ही आगे चलने पर, उसने दो मुँही नामक दूसरे रेंगने वाले जानवर को देखा । परन्तु उसके लिए न तो कोई भीड़-भाड़ ही थी । और, न, पकड़ो-पकड़ो की कोई पुकार ही । इन दोना बातों पर उसने कुछ देर तक सोचा-समा । श्रन्त में नर्ताज़ा निकाला कि एक, संसार को अकारण ही सतानेवाला हैं: दूसरा, सताने से सदा दूर रहता है । इन घटनाओं का उसके हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा । उसने जान पाया, कि सुख और दुख, निज की आत्मा ही के सद्गुण और दुर्गुणों का जीवित फल है । जब उस को इस बात का निश्चय हो गया, उस ने तत्काल ही जैन-धर्मानुसार दीक्षा ग्रहण कर ली । इससे यह निर्विवाद सिद्ध है, कि जैन धर्म केवल गुणों का उपासक है; न कि चमड़े का । चाहे जिस जाति या धर्म का अनुयायो कोई व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह गुण-सम्पन्न हैं, तो जैन-धर्म विना किसी पशोपेश और क्रूयात के विचार के, उस का सादर सत्कार करता है। जो भी कोई चाहे, फिर अपनी वह चाहे उच्च हो, या नीच ! अथवा गव हो, या रंक: इच्छा के अनुसार, जैन-धर्म का अनुयायी वह चन सकता है । - हरिकेशी इस का प्रत्यक्ष प्रमाण है । समय पाकर वही हरिकेशी, एक आदर्श तपस्वी बने । दीक्षा लेने के बाद, घोर तपस्याएँ उन्होंने की। जिनके प्रभाव से, वाराणसी नगरी के [ 20 ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे . निकट के, तिन्दुक उद्यान के, तिन्दुक नामक एक देवता, प्रभावित होकर, उन के अधीन हो गया । एक चार की बात है, कितने ही महीनों के बाद, हरिकेशी मुनि विचरण करतेकराते, फिर उसी चाग़ में या निकले । वाराणसी की राजकन्या भी, अपनी सखी-सहेलियों को साथ ले, उसी समय, उस तिन्दुक देव की उपासना के लिए थाई । उसकी सहेलियों में से किसी एक ग्राथ ने, मज़ाक-मजाक में ध्यानस्थ मुनि हरिकेशी की ओर इंगित करते हुए. राज कुमारी से कहा, “चाईजी ! यह तो सब प्रकार से आप ही के अनुरूप वर है ।" इस पर राजकुमारी ने उधर देख कर, मुनि के कुरूप पर घृणा दर्शाते हुए, व्यंग- पूर्वक दूसरी ओर मुँह फिरा लिया । परन्तु जिस देव की आराधना करने के लिए कुमारी वहाँ श्राई हुई थी, वह देव स्वयं उन मुनि के वश में था । राज कन्या के द्वारा होनेवाले, मुनि के अपमान को वह देख न सका । उसने उसके मुँह को वैसा ही टेढ़ा-मेढ़ा कर दिया । इस के बाद, वह देव, मुनि के शरीर में प्रवेश कर गया। मुँह के न फिरने से कुमारी घवरा उठी । उसकी सखियों में भग-दौड़ मच गई। राजा ने इस संवाद को सुना । वेभी दौड़े-दौड़े वहाँ पहुँचे। मुनि से अनेकों भांति की अनुनय-विनय उन्हों ने की । अन्त में, शरीर में प्रवेश किये हुए उस देव ने, ध्यानस्थ मुनि के मुँह से कहलाया, कि " अब तो, जब यह कुमारी मेरे साथ विवाह करले, तभी इस का मुँह सीधा हो सकता है। अन्यथा, कभी नहीं ।" और कोई चारा न देख, राजा ने उस चात को मानली । विवाह रचा गया । विवाह सम्बन्धी सम्पूर्ण रस्मों की भी, कानूनन, अदाई हो गई । परन्तु पाणि [१८] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकेशी मुनि - ग्रहण का समय आते ही, मुनि शरीर से वह देव निकल भागा । उन्हें होश श्राते ही, वे एकाएक उस कन्या से दूर उठ खड़े हुए। और, वाले, " अरे ! यह क्या ? कहाँ तो मैं निर्ग्रन्थ और त्यागी साधु; और कहाँ इस कञ्चन और कामिनी का साथ ! मैं तो बुरी दृष्टि से नारियों को देखना तक अपने तप और संयम के मार्ग का घार विरोधक मानता हूँ ! फिर विवाह का यह पचड़ा मेरे साथ क्यों और कैसा ?" यों, कहते-सुनते मुनि तो वहाँ से नौ-दो हो गये ! और, सब लोग उन्हें देखते ही रह गये। किसी की भी हिम्मत न हुई, कि वे ऋषि को ठहरा सकें। सामुदायिक रूप से तव प्रस्ताव पास हुआ, कि ऋषि द्वारा त्यागी हुई यह राज कुमारी, जो श्रद्ध-विवाहित अवस्था में है, केवल ब्राह्मणों के लिए ग्राह्य है । वाद-विवाद के पश्चात् प्रस्ताव पास हो गया । एक तरुण ब्राह्मण- कुमार के साथ उसका विवाह कर दिया गया । विवाहोपलक्ष में ब्राह्मण समाज ने प्रीतिभोज दिया । एक तरफ भोजन की तैयारियाँ बड़ी धूम-धाम से हो रही थीं । दूसरी ओर, ब्राह्मण लोग यज्ञ करने में लीन थे। इतने ही में गोचरी के लिए, मुनि हरिकेशी भी उधर श्रा निकले। इन के कुरूप और मैले वस्त्रों को देख कर, ब्राह्मणों ने इन पर पेटभर कर ताना-क़शी की। इस पर मुनि के शरीर में उनके सहगामी देव ने प्रवेश कर कहा, "हम श्रमण हैं; संयति हैं ब्रह्मचारी हैं; संसारी विषयों से विरक्त वन, हम साधु हुए हैं; भिक्षार्थ यहाँ आये हैं। अपनी शक्ति के अनुसार, जितना भी श्राहार- पानी तुम लोग हमें चहरा सकते हो, उतना ही हमें दो ।" परन्तु ब्राह्मणों ने इस का उत्तर, मुनि को झिड़कते हुए, [१] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे केवल सूखे 'ना' में दिया। इस पर मुनि ने फिर यूँ कहा, "भाई ! जो चोरी, हिंसा, व्यभिचार और अन्याय के हिमायती हैं, उन्हें तो तुम खुशी-खुशी खिलाते-पिलाते हो । फिर, हम-जैसे महाव्रतियों के लिए ही तुम्हारा हाथ क्यों नहीं उठ पाता है ! तुम मानो, या न मानों; है तुम्हारी, इस में हिमालय जैसी, भयंकर भूल ! अभी तुम केवल नामधारी पण्डितमात्र ही हो । सिद्धान्त और व्यवहार को मिला कर, विवेक से काम लेना तुम ने सीखा ही नहीं।" इस से, ब्राह्मण लोग आपे से बाहर हो गये। वे एक स्वर से अपने छात्रों से चोले, इस वकवादी साधु की पीठ को तो ज़रा माँज दों!वस,कहने भर की देर थी। मुनि पर चालकों ने दिल-भर कर अपना हाथ साफ़ किया ! परन्तु मुनि का सहगामी देव, मुनि के इस अपमान को और न देख सका । उसने उसी क्षण उन सम्पूर्ण ब्राह्मण-कुमारों को चेहोश कर के धराशायी कर दिया। उनकी जिताएँ वाहर लटक आई। उन के मुँह से रक्त का पनाला वह 'चला । आँखें उन की वाहर निकल पड़ी। इस दुर्घटना से, सारे ब्राह्मण-समाज में कुहराम मच गया। अव तो चारों ओर से दौड़-दौड़ कर वे मुनि के पैर पकड़ने लगे । और, अपने को सोलह श्राना अपराधी स्वीकार करते हुए, अनेकों प्रकार की प्रार्थनाएँ वे उनसे करने लगे। यह जान कर, देव, मुनि-शरीर से निकल भागा। मुनि ने दया की दृष्टि से छात्रों की ओर देखा। वे सव के सव वात की बात में उठ खड़े हुए । हँसतेहँसते मुनि भी वहाँ से चल दिये । यो, आनन्द-पूर्वक अपने 'चारित्र का पूर्ण पालन करते हुए, अन्त में वे मोक्ष-धाम को 'सिधारे । तभी तो कहा गया है, कि छोटे से छोटे कुल में [२०] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की रचना के सम्बन्ध में नियुक्ति, चूर्णि तथा अन्य मनी बाहु की दृष्टि से उत्तराध्ययन एक व्यक्ति की रचना नहीं है । उनकी दृष्टि से भागों में विभक्त किया जा सकता है—१. अंगप्रभव, २ जिनभाषित, ३. प्रत्ये उत्तराध्ययन का द्वितीय अध्ययन अंगप्रभव है । वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्त अध्ययन जिनभाषित है । ३५ आठवां अध्ययन प्रत्येकबुद्धभापित है । ३६ समुत्थित है । ३७ उत्पन्न पुरुष भी सद्गुणों को अपना कर, का पूरा-पूरा हक़दार हो जाता है । हरिकेशी मुनि बनने से नारायण नर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ शनाथी मुनि प्राचीन काल में मगध - विहार - प्रान्त में राजगृह नामक एक बड़ा ही समृद्धिशाली नगर था । उन दिनों महाराज श्रीरीक वहाँ के राजा थे। किसी दिन वायु सेवन के लिए वे वन की ओर गये । चलते-चलते वे ' मंडी कुक्ष' नामक वाग़ में पहुँचे । वहाँ उन्हों ने, एक परम तेजस्वी और नवयुवक मुनि को ध्यानमग्न खड़े हुए, देखा । उन का शरीर स्वस्थ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथी मुनि और सुडौल था। रूप भी उनका बड़ा ही रूरा था। एकर, संयय के कारण, कान्ति न उन के चेहरे पर अपना अविचल श्रडा जमा रक्खा था। तो दूसरी ओर सौम्य-भाव, उन की नस-नस से टपका पड़ता था। वे अपने ध्यान में ऐसे मग्न थे, कि देखनेवाले घंटों उन की ओर देखते रह कर भी, उन्हें 'विदेही ही समझते थे। क्योंकि, भाँति भाँति के रंग की जंगली मक्खियाँ, डाँस मच्छर, ग्रादि अनेकों प्रकार के विपले जन्तु उनके शरीर पर हर समय वैठते । उसे वे काटत । यहाँ तक कि कभी-कभी तो उस में से रक्त का प्रवाह तक होने लगता । परन्तु फिर भी देहं का भान भुलाये हुए, वे निश्चल तथा निर्भय हो कर ज्यों के त्यों खड़े ही रहते । मुनि की इस अवस्था को देख , महाराज श्रेणिक, उन के गुणों पर लटू हो गये । निकट श्रा मुनि को उन्हों ने वन्दन किया। तथा उन के अपने साधु बनने का कारण भी उन्हों ने उन से पूछा। मुनि की समाधि इस समय पूर्ण हो चुकी थी। उत्तर में, "राजन् ! में अनाथ था," वे बोल । " यह तो किसी भी प्रकार सम्भव नहीं । श्राप के दिव्य रूप से, तो श्राप बड़े ही भाग्यशाली जान पड़ते हैं, "श्रादि कहते हुए, राजा खूब ही कहकहा पड़े। वे फिर मुनि से वोले, " अगर ऐसा ही है, तो छोड़िये इस झमेले को यहीं; और चलिये मेरे साथ राज-महलों में! अव, और शीत, बात और पातप के प्रातप को सहने की रंच-मात्र भी आवश्यकता नहीं। श्राज से मैं स्वयं आप का नाथ वना । श्रतः आगे से, अपने आप को, अव अनाथ श्राप न मानिये।" बदले में मुनि वोले," राजन् ! वाणी स्त्री-लिंगवाचक है। इस के चंगुल में, विना विचारे फँस जाना, बुद्धिमानों के लिए किसी भी प्रकार ठीक नहीं । आखिरकार. तो, [२३] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्वल तार यह अवला ही है। जब यह वाणी स्वयं ही अवला है, तो इस के अधीन में जाकर, कोई अनाथ, सनाथ तो वन ही कैसे सकता है ! अतः जरा विचार कर वालो। वोलन में इतनी जल्दी कभी न करो। फिर, आध्यात्मिक दृष्टि से, तो अकेले तुम ही क्या, सारा जगत् हो मुझे अनाथ जान पड़ता है। तव तुम मेरे नाथ हो कैसे सकते हो !" मुनि की मर्म भरी वाणी को सुन कर, राजा सहसा चौक उठे । और तमक कर बोले, " मुनि जरा ठहरो! में कौन हूँ, इस बात का श्राप को पता नहीं है, इसी कारण, श्राप को मेरे सनाथ-पने में सन्देह हो पाया है। श्राप ने श्रेणिक सम्राट् का नाम तो अवश्य ही सुना होगा। वहीं मैं हूँ। मैं एक विशाल राज्य का अधिपति हूँ। हज़ारों सिपाही मेरे अधीन हैं । मेरा कोप, कुवेर के कोप को भी मात कर देने वाला है। इतने पर भी आप की निगाहों में मैं अनाथ ही बना रहा ! प्रांगे से, कभी भूल कर भी ऐसा न कहें।" उत्तर में, मुनि ने कहा, "राजन् ! अभी तक तुम यही समझ नहीं पाये, कि वास्तविक अनाथ और सनाथ कहते किसे हैं.? मैं पहले कौन था, ज़रा इसे भी जान लो । कौशाम्बी नगरी का मैं निवासी था । मेरे पिता, धन की अटूट प्रचुरता के कारण ही; 'प्रभूत-धनसंचक' के नाम से प्रसिद्ध थे । कुटुम्ब के सभी पुरुषों का 'मुझ पर अटूट प्रेम था। इतना ही नहीं, मेरे पसीने कीजगह, वे अपना खून बहाने को भी सदा तैयार रहते थे। एक दिन की वात है, जव कि मैं यौवन के बीहड़ वन में प्रवेश कर रहा था। मुझे नेत्रों की हृदय-वेधक पीड़ा हुई। उस से मुझे एक पल-भर भी विश्रान्ति न मिलती। मेरे पिताजी ने इस पीड़ा [२४] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनाथी मुनि का पिंड हुलाने के लिए, पानी की तरह. अपने परिश्रम से कमाये हुए धन को बढ़ाया। सारे कुटुम्बी मेरी पीड़ासे पीड़ित धे। बड़े-बड़े प्रसिद्ध वद्या ने उपाय किया। मेरे दुग्न से मेरी अागिनी तो इतनी पीड़ित हुई, कि खाना-पीना और नींद निकालना तक उस ने छोड़ दिया। सूख कर वह काँटा रन गई । फिर भी सांग प्रयन्न अकारथ हुए। कोई भी भौतिक उपाय उस पीटा से मुझे मुक्त न कर सका । अन्त में, कोई उपाय न देग्य कर, मैं ने अपनी यान्मा के सम्मुख प्रतिमा की, कि यदि में इस पीड़ा से मुक्त हो पाया, तो दीक्षा धारण कर नँगा । इस प्रतिमा के मेरे हृदय में प्रवेश करते ही, मेरी वह पीला, शशक अंग के समान उड़ गई । मैं ने भी अपन वचन का उसी समय पालन किया । मैं दीक्षित हो गया । तब से मैं प्राणी-मात्र की रक्षा और सवा में जुट पढ़ा। और तभी से मैं श्रनाथ से सनाथ भी बन पाया है। राजन् ! सनाथ, सच्चा सनाथ, तो वही है, जिसने प्राणी-मात्र की रक्षा तथा सेवा में अपने जीवन को निसार कर दिया हो । इस पर से तुम स्वयं ही बताया, कि तुम अनाथ हो, या सनाथ ? मैं जानता हूँ, कि अपने अनाथपन में श्राप को अब रंच-मात्र भी सन्देह न रहा होगा । जब बात ऐसी है, तब राजन् ! बताओ, श्राप मेरे नाथ बन कैंस सकते हो ?" ___राजा ने अपनी भूल को स्वीकार की। मुनि के दार्शनिक गृढ़ मान पर वे मुग्ध हो गये। मुनि के प्रति उन्हों ने अपनी हार्दिक कृताता प्रकट की। और, अपनी कृतज्ञता-प्रदर्शन के फल-स्वम्प, व जैन-धर्म के अनुयायी भी हो गये । सम्राट श्रेणिक को अनाथ और सनाथ के भेदाभेद की गृढ़ पहली [२५] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जगत् के उज्ज्वल तारे समझाने के कारण, मुनि भी, उसी दिन से 'अनाथी मुनि' के नाम से प्रख्यात हुए । [ २६ ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -M काम्पिल ऋषि-राज श्राज से बहुत पहले, भारतवर्ष में कौशाम्बी एक नगरी थी । वहाँ के राजा जित शत्रु के दरबार में, काश्यप नाम के एक बड़े ही बुद्धिमान और श्रमसोची पुरोहित थे । उन की स्त्री का नाम यशा था । यही यशा कम्पिल ऋषि राज की माता थी । कम्पिल भी पाँच वर्ष ही के थे, कि इन के पिता का स्वर्गवास हो गया। इन की नाबालिग्री में, पुरोहित का काम भी, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे राज्य की ओर से, किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दिया गया था। एक दिन, वही नवीन पुरोहित, बड़ी सज-धज के साथ, कम्पिल के घर के सामने से निकला। उसे देख, कम्पिल की माता को अपना पूर्व-वैभव याद हो पाया। उसी की स्मृति में वह फूट-फूट कर रोने लगी। अबोध बालक ने अपनी माता से यूँ पालाप-विलाप करने का कारण पूछा।" प्यारे लाल ! एक दिन वह था, जव तुम्हारे स्वर्गस्थ पिताजी भी इसी ठाटवाट और सज-धज के साथ निकलते थे। जिस पद पर, अाज यह पुरोहित है, उसी पद पर कभी तुम्हारे पिता जी भी थे । राज्य में उन का सोलह आना सम्मान था। अब वह सम्मान तो एक ओर रहा; तुम्हारे अवोध, अज्ञान और कम-उम्र होने से, वह पुरोहिती का पुश्तैनी पद तक अपने वंश से छिन गया। कब वह दिन होगा, जब तुम सबोध, सज्ञान और वालिग होगे। बस, इसी बात का अचानक स्मरण मुझे हो आया; और मेरी छाती भर आई । " उत्तर में, " यदि ऐसा ही है, तो मैं भी लगन के साथ, उसी प्रकार के विद्याध्ययन में, आज ही से लग पडूं, " कम्पिल ने हकवकाते हुए कहा । "वेटा ! वैसी विद्या यहाँ तो तुम्हें किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकती। क्योंकि, यहाँ के लोग हम से ईर्ष्या करते है। परन्तु हाँ, एक उपाय है। यदि तुम सावत्थी ( स्यालकोट) में चले जाओ, तो वहाँ तुम्हारे पिताजी के परम मित्र, पण्डित इन्द्रदत्त उपाध्याय रहते हैं । वहाँ तुम्हारा मनोरथ सफल हो सकता है । वे सच्ची लगन के साथ, तुम्हें विद्याध्ययन करा सकेंगे।" माता ने कहा। . इस पर, कम्पिल मचल पड़े। उनके हृदय को माता की [२८] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपिल ऋषि-राज बात लग गई। चालक ने सावत्थी को जाने का हट पकड़ा। एक और, प्रबोध और ज्ञान बालक की चाल हट थी। दूसरी घोर, कोमल हृदय माता की मोह-भरी ममता । दोनों में कुछ समय तक दाँव-पेंच चलते रहे । श्रन्त में जीत का सेहरा बाल-हट ही के सिर बँधा। माता ने विवश हो कर, चालक की जिझासा पूरी करने के लिए, उसे स्यालकोट भेजा । वालक लालायित हो कर, उपाध्याय के पास, विद्याध्ययन के लिए पहुँचे । उपाध्याय को नमन कर अपनी हार्दिक अभिरुचि उन्हों ने, उन के सामने प्रकट की । इस पर उपाध्याय ने कहा, विद्याध्ययन की तुम्हारी इच्छा को मैं पूरी कर सकता हूँ । अन्धादि भी मेरे पास अनेकों, और एक से एक बढ़िया हैं । परन्तु तुम्हारे भरण-पोषण का भार उठाने के लिए मैं एकदम श्रसमर्थ हूँ ।" तत्काल ही कम्पिल बोल उठे, भगवन् ! मैं तो ब्रह्मण कुमार हूँ । भिक्षावृत्ति से, अपने पेट का प्रश्न, मैं सरलता पूर्वक, हल कर लूँगा । इस पहली को सुलझाना, तो हम जैसों के लिए, बाँयें हाथ का खेल है । " 56 उपाध्याय ने फिर भी बालक के मार्ग में रोड़ा अटकाया । वे बोले, " भिक्षा का कार्य जितना ही सीधा तुम्हें दिख पड़ता हैं, उतनी हा वह कठिन भी है। विद्याध्ययन के लिए सादे और सात्विक भोजन की ऐकान्तिक श्रावश्यकता है। बिना ऐसा किये, विद्याध्ययन दुर्लभ और दूभर हैं।" बड़ों के रोड़े भी छोटों के लिए श्राशीर्वाद हो जाते हैं। कम्पिल, उपाध्याय के सामने निश्चल भाव से खड़े ही रहे । अन्त में, उन्हें दया थाई । वे, कोमल हृदय कम्पिल को साथ ले, शालिभद्र नामक एक सेट के पास श्रायें । उन्होंने कम्पिल का पूरा परिचय [२६] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे उन्हें दिया । सेठ ने उपाध्याय के कथानुसार, बालक के भोजन की सारी व्यवस्था सुगमता पूर्वक कर दी । कम्पिल के पास, समय पर, भोजन दे वाने का काम, सेठ की शोर से एक दासी को सौंपा गया। संगति का फल मनुष्य को अवश्य भोगना पड़ता है । और, विनाश काल में बुद्धि भी विपरीत हो जाती है। धीरे-धीरे, दासी के प्रेम में कम्पिल फँस गया । अव उनके समय, शक्ति और श्रम का अधिकांश भाग, विद्याध्ययन में नहीं, वरन् दासी के प्रेम में व्यतीत होने लगा । विद्याध्ययन की कमज़ोरी देख कर, उपाध्याय ने, उस के कारण ढूंढ निकालने की, अपने वनते वल चेष्टा की । परन्तु वे इस दिशा में असफल रहे । हाँ, बदले में, काम्पिल, उपाध्याय के अनेक भाँति के उपालम्भ के शिकार अवश्य होते रहे । पाप फूलता है; फलता नहीं । इस नियम से एक दिन सेठ को इस गुप्त रहस्य का पता लग गया। उसने उसी क्षण, दासी को अपने घर में से निकाल अलग कर दिया । फिर भी काम्पिल के गले का हार वह बनी ही रही। हाँ, विद्याध्ययन से उन्होंने अपना नाता अवश्य तोड़ दिया । कम्पिल के दिन, दासी के साथ, अव प्रेमालाप में बीतने लगे । एक दिन वसन्तोत्सव नगर में मनाया जा रहा था । नगर का सारा महिला समाज, वस्त्राभूषणों से सज-धज कर किसी बाग़ में, उस उत्सव के मनाने के हेतु, एकत्रित हुआ था । कम्पिल की प्रेम-प्रात्री भी वहाँ पहुँची। परन्तु दरिद्रता के कारण, इस के पास न तो कोई वस्त्र ही अच्छे थे; और, न 'कोई आभूषण ही । उस समाज के द्वारा, इस की काफ़ी रूप .से खिल्ली उड़ाई गई । यह मन मार कर घर को लौट आई । [३०] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्पिल-ऋषि-राज अपने प्रेम-पात्र से अपनी सारी दुर्दशा का हाल उसने कहा। कम्पिल ने इस दशा में कोई परिवर्तन करने के लिए अपनी पूरी-पूरी विवशता बताई । उस ने कहा, सिर-तोड़ परिथम करने पर भी, भिक्षा में उन्हें इतना कम मिलता है. कि उससे पेट का प्रवन्ध भी पूरा नहीं हो पाता। फिर सुन्दर वस्त्र और बहु-मूल्य आभूषणों की :चर्चा तो चलाई ही कहाँ से जा सकती थी। इस पर दासी ने कम्पिल को एक मार्ग वताया, कि यहाँ का राजा, नियमपूर्वक, प्रति दिन, दो माशे सोने का दान देता है । उसे प्राप्त करने का वे प्रयत्न करें । कम्पिल ने नियम-पूर्वक वह भी कितने ही दिनों तक किया। पर सफलता उन्हें एक दिन भी न मिली । कोई न कोई बाधा उन के मार्ग में प्रति दिन आ ही जाती । एक दिन, उसे पाने के लिए, आधी रात ही को, घर से वे निकल पड़े। कोतवाल ने चोर समझ कर उन्हें पकड़ लिया। और, तरह-तरह की तकलीफें उन्हें दी। दूसरे दिन सुबह, राजा के सामने उन्हें पेश किया गया। राजा, मनोविज्ञान का जाननेवाला था । उस ने प्राकृति के द्वारा, कम्पिल को आपदा का मारा एक दरिद्र व्यक्ति पाया । उस ने उन्हें अभय दान दे कर, अपनी सारी राम-कहानी कह सुनाने को कहा । कम्पिल ने अपनी सारी दुख-कथा कह सुनाई । कम्पिल की सचाई पर राजा रीझ गया । राजाज्ञा हुई, कि कम्पिल इच्छित वर माँगे । यह सुन कर कम्पिल का हृदय वाँसों उछल पड़ा । परन्तु वह, इस के साथ ही, लोभ के समुद्र में भी उतराने लगा। फिर दूसरे क्षण, उसी हृदय के भावों ने अपनी करवट बदली। पूर्व जन्म के पुण्यों का संयोग उन में हो पाया। इस वार, वेदिल खोल कर, तृष्णा की निन्दा : [३१] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे करने लगे । अपने आप को भी पेट भर कर उन्हों ने विकारा। उसी समय जाति-स्मरण-शान उन्हें हो श्राया । श्रय कम्पिल की आँखों में संसार का धन, केवल धूल मात्र था । "राजन् ! मैंने सब कुछ पा लिया । " यह कह कर, वे वहाँ से चल दिये । यही नहीं, अपने श्र. त्म-कल्याण के मार्ग की सम्पूर्ण सांसारिक झटों को भी उन्हों ने चीर-फाड़ फेंका। साधु जीवन का अनुसरण चे करने लगे। इस मार्ग में केवल छः मास भो मुश्किल से चल पाये होंगे, कि श्रात्म-कल्याण का राज मार्ग उन्हें मिल गया। हमें भी चाहिए, कि हम भी खूब देख-भाल . कर, अपने साथियों को चुनें। [३२] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन जगत् के उज्ज्वल तारे rrt...... ..... १. v.. . । mins . . . . Aw .. . . .. -- .. - . .- . राम्य प्राप्त कर भृग पुरोहिन भार उनकी मी नया दोनों लड़के फरीदी की मम्ममि की ज्यों की त्या पार कर दी। प्राण करने के लिए जा रहे हैं। और पाई हुई धन की गाड़ियों को देख कर रानी थरने राजा का किन मापनि नवर। Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ भृगु-पुरोहित श्राज से बहुत पहले हनुकार नामकी एक नगरी यहाँ थी । इसी नाम के एक राजा वहाँ राज करते थे | महारानी का नाम कमलापती था । इन के दरबार में भृगु नामक एक पुरोहितं थे | यशा उनकी धर्म-पती श्री । धन धन के पास श्रट था । परन्तु थे ये सन्तान हीन। इसी चिन्ता में, वे रात-दिन बड़े ही चिन्तित रहते थे। एक दिन मुनि येषी दो देव धन के पास Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे श्राकर, इन की चिन्ता का कारण पूछने लगे । सन्तान का अभाव इस का कारण जान पड़ा। मुनियों ने पहले तो उन्हें च समझाया-बुझाया। अन्त में चलते समय, उन्होंने पुरोहित को, एक के बदले दो पुत्रों के होने का, श्राश्नासन दिया। बड़ों के द्वारा पाई हुई वस्तु का मूल्य भी उतना ही ऊँचा चुकाना पड़ता है। मुनियों ने आश्वासन तो उन्हें दिया; पर साथ ही यह भी कह दिया, कि वे दोनों पुत्र दीक्षा ग्रहण करना चाहेंगे। उस समय, तुम ज़रा भी उन के मार्ग में रोड़ा न अटकाना । पुरोहित, देवों की इस वाणी से बड़े ही प्रसन्न हुए। वे कहने लगे, " महात्मन् ! दीक्षा-जैसे पवित्र कार्य में, ऐसा कौन अभागा है, जो बाधा डालेगा ! मैं तो केवल इतना ही चाहता हूँ कि पुरोहितानी के बाँझपन का कलंक-भर दूर हो जाय ।" मुनिवेषी देवों ने 'एवमस्तुकहा: और, वे वहाँ से चल दिये । समय पा कर, यशा ने दो पुत्रों को प्रसव किया। पुरोहितजी का परिवार पुलकित हो उठा। परन्तु पुरोहितजी के मन में, मुनियों के कथनानुसार, दीक्षा का भय ा घुसा। इस भय से अपना पिंड छुड़ाने के लिए उन्हों ने अपने परिवार, पुरोहित-पन, पुश्तैनी प्रतिष्टा, और अपनी अटूट सम्पत्ति, सभी से, सदा के लिए अपना नाता तोड़, वे अपनी पत्नी और पुत्रों को ले. सुदूर भयानक पहाड़ियों में जा बसे। भृगु पुरोहित ने ज्योंही देखा, कि बच्चे अब अपने विचार प्रकट करने लगे हैं, वे अब उन्हें जैन-मुनियों की संगति कभी भूल कर भी न करने की शिक्षा देने लगे। वे रोज़ उन्हें सिखाने लगे, कि उन के पास, जो कपड़े में पात्र रहते हैं, उन पें वे तरह-तरह के भयानक हथियार छिपाये रखते हैं। वे समय [३४] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु-पुरोहित पांकर, नन्हे-नन्हे बच्चों को फुसला-फुसला कर पकड़ ले जाते हैं । तब चे उन्हें मार डालते हैं। यों, वे पुरोहित, नित्य अपने चालकों को डराने, धमकाने और चमकाने लगे । वालकों का हृदय कोमल तो पहले ही होता है। उन्हें जैसाभी कोई समझा दे, वे ठीक वैसा ही मानने, जानने और करने लग जाते हैं। साधु-हदय वालकों ने, अपने पिता के हित-प्रद उपदेशों को, हृदय से मानने का वचन अपने पिता को दिया । यही समय है, जब कि मनुष्य, अपनी सन्तानों को जैसीचाहे वैसी बना सकता है। दोनों कुमारों के मन में भय का भूत वैठ गया। होनी हो कर ही के रहती है। कहीं भी भाग कर चसो भावी से पिंड छूट नहीं सकता। अचानक एक दिन दो मुनि (गुरु-शिष्य ) उधर, मार्ग भूल कर आ निकले । उन्हें देखते ही पुरोहितजी के होश-हवाश खट्टे हो गये । वे मन ही मन सोचने लगे, कि "हाय ! इन से अपना पीछा छुड़ाने के लिए ही तो वन-वन की नाक हम छान रहे हैं। ये तो यहाँ भी श्रा निकले । कहीं पुत्रों पर इन की परछाई न पड़ जावे। नहीं तो मेरी वुढ़ौती की वैशाखी टूट जावेगी। बड़ी काठनाइयों से,इस बुढ़ापे में, दोनों पुत्रों को मैं ने पाया है । अतः छाछ-पानी जो भी इंन्हें चाहिए, देकर, जल्दी से जल्दी यहाँ से विदा 'इन्हें करूँ।" फिर आगे चल कर उन्होंने दोनों साधुओं को प्राचित आहरपानी बहराया। " मेरे दोनों पुत्र बड़े ही क्रोधी, लड़ाकू और 'उदंड है, आप जल्दी से जल्दी, वन की ओर पधार जावे।" यह कह कर, उन्हें वहाँ से तत्काल ही वन की ओर विदा कर दिया। पुरोहितजी के इतना उधेड़-बुन करने पर भी, [ ३५ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उजाल नारे रास्ते में, दोनों चालकों की मुनियों स भेट हो ही गई। मुनियों को देखते ही बालक अपना प्राण बचाकर भागे । और, अन्त में, वे किसी बीहड़ बन में, एक बड़े भारी वट वन के कोटर में जा छिपे । मुनियों का मार्ग भी वही था। चलते-चलते वे भी वहीं आ पहुँचे। और, उस वृक्ष की सघन छाया में भोजन ग्रहण करने लगे। उधर, बालयों के प्राय अलग ही सूखे जा रहे थे। अपने पिताजी के कथानुसार, उन्होंने उन साधुनों को सचमुच में यमराज के दूत ही समझ रक्खा था। ___इतने ही में गुरु ने शिष्य को कहा, " देखो, पैर तले दब कर बेचारीवह चींटी कहीं मर न जाय।" मुनि की इस बात ने वालकों के हृदय को कुछ हरा-भरा-सा कर दिया। वे सोचने लगे, अरे! जब ये चीटी जैसे प्राणी तक की प्राण रक्षा का इतना ध्यान रखते हैं, तब मनुष्य-जैसे प्राणी को तो ये मार ही कर सकते हैं ! जान पड़ता है, पिता ने हमें उलटी पट्टी पढ़ाई है। हो न हो, इस में कोई गढ़ बात है।जोभी कुछ हो, नीने उतर कर, इन का कुछ परिचय अवश्य प्राप्त करें। चालकों ने अपने निश्चय के अनुसार वैसा ही किया। उनके पूर्व कृत कर्मों ने करवट बदली। कुछेक देर की वात-चीत से ही उन्होंने जान लिया, अर्थात् उन्हें ज्ञान हो पाया । पिता की शिक्षा और चमक-धमक का सारा रहस्य उन्हें ज्ञात हो गया । सन्तों का अमोघ, अचानक आर अकारण कृपा से उनके सम्पूर्ण पापों का भण्डा फूट गया । संसार अब उनकी आँखों में असार था। एक-मात्र दीक्षा धारण करने का सत्य संकल्प उनके सामने था। मुनि ले उन्होंने विदा माँगी। चले-चले चे घर को आये । पुरोहितजी भी उन्हें हूँढते-ढुंढाते रास्ते ही [३६] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु-पुरोहित में श्रा मिले । पिता ने कहा, बेटा! तुम चले कहाँ गये थे! जिन डाकुओं की बात मैं तुम्हें आज तक कहता रहा, वेही, श्राज, यहाँ पहुँचे थे। तुम्हारी उनकी चार आँखे तो नहीं हुई ? उन्होंन कोई जादू-टोना तो तुम पर नहीं किया ? तुम्हें न देख कर, मेरे हाथ-पैर फूल गये थे । धरती मेरे पैर-तले से भाग रही थी। चेटा! तुम भले या मिले !" पुत्रों ने कहा, "पिताजी ! न तो व चोर है: न डाक ही वे हैं। वे तो साधु हैं। पराय के हित अपना प्राण देने वाले हैं। श्राप की शिक्षा और संसार के व्यवहार की नाड़ी को हमने परख लिया । हम इससे अधिक और कुछ कहना नहीं। केवल हमें तो श्राप दीक्षित हो जान की श्राशा दे दीजिए । हम दोनों आये भी श्रापके प.स इसीलिए हैं।" पुत्रों के इस कथन से पिता का प्राण सूख गया। उन्होंने सैकड़ों प्रकार से अपने पुत्रों को समझाया । तरह-तरह की दम-दिलासा उन्हें दी। पर ऐसा कौंन अभागा जौहरी होगा, जो जान-बूझ कर, अपने अमूल्य हीरे को काँच के टुकड़े से बदले ! पिता जब अपने प्रयत्न में असफल हो गया, तब नो वह स्वयं ही उनके साथ दीक्षित होने के लिए चल पड़ा। यह देख, यशा ने सैकड़ों प्रलोभन अपने पति को दिखाये । परन्तु पुत्रों का त्याग इतना जबर्दस्त था. कि अन्त में माता ने भी, अपने पुत्र और पति ही का साथ दिया। चारों लोग मुनि के निवाट चल पड़े। मार्ग में चलते हुए वे यूँ जान पड़े, मानो, परमार्थ के चार प्रधान साधन-धर्म, अर्थ, काम और मोन-चे हो। वहाँ के राजा को यह घटना मालूम हुई। उसने अपने [३७ ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे सेवकों को, पुरोहित की सारी अटूट सम्पत्ति को, अपने राज कोप में ला डालने का हुक्म दिया। तदनुसार, धन की गा ड़ियाँ भर-भर कर राज- कोप में आने लगीं । राज-महिपी कमलावती ने इस करतूत को देखा । दासियों से उस की सारी छान वान उसने की। "पुरोहित भृगु का त्यागा हुआ यह धनं है, " दासियों के मुँह से यह बात सुन कर वह चकित हो गई। उसी समय उठ कर वह राजा के पास गई । वह बोली: 6 'भगवन् ! अपने ही द्वारा दान दिये हुए धन पर पीछा अपना ही अधिकार ! यह तो अनीति हैं ! वमन किये हुए पदार्थ को फिर से चाटना है ! कौथों और कुत्तों के भाग को अपनाने की अधिकार वेश करना है ! " रानी के हित-प्रद, किन्तु अप्रिय वचनों से, राजा एकदम तमतमा उठे । और, बोले, [: रानी ! तुम किसे कह रही हो ? क्या कह रही हो ? और, किस तरह से कह रही हो ! ज़रा, इन बातों का भी कोई भान तुम्हें है या नहीं ? तनिक अपने शरीर की ओर तो देखो ! क्या तुम भूल गई, कि इसी, और एक मात्र इसी प्रकार के तामसं धन से, तुम्हारे इस तन का पालन-पोषण हुआ हैं ? आज जितनी भी तुम्हारी शान और शौकत हैं, सब ऐसे ही प्राप्त धन पर पनप रहे हैं ? अगर ऐसा ही है, तो क्यों इन वहु-मूल्य वस्त्राभूषणों को तुम अपने तन पर धारण किये हुए हो ? क्यों नहीं तुम इन्हें उतार फेंकतीं ? " रानी ने बदले में कहा, " नाथ ! इस तन धन ही की क्या बात ! मैं तो इस सम्पूर्ण राज-सुख-वैभव और राज्य तक को, ' विप रस-भरा कनक घट जैसा, ' समझती हूँ: विप में बुझाये अस्त्र-शस्त्रों के समान मानती हूँ । लीजिए ! आज से ये मेरे नहीं और मैं [ ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भृगु पुरोहित इन की नहीं ! परन्तु चलते-चलत, मैं इतना फिर श्राप से कहूँगी, फि यह अनीति से कमाया हुश्रा धन और धरती, सर यहां के यहीं रह जायेंगे। एक न एक दिन अपने को, ये सब छोड़-छाड़ कर, यहाँ से चलना पड़ेगा। तब क्यों नहीं, सुकत्या डाग, पाए अपने जीवन और जन्म को -सुधार लेते हैं ? सोचिए; और, बार-बार सोचिए !" रानी की ये बातें, राजा के हृदय के हृदयं को लग गई। उन के हिये की आँखें बुल गई। श्रर संसार और उस का बड़े से बड़ा वैभव तथा मुग्न, उन की गाँवों में घोरतम घृणा की वस्तु थी; और थी नारकीय यातना । पुरोहित के परिवार के साथ ही साथ, राजदम्पत्ति भी दीक्षा धारण करने के लिए दौड़ पड़े। सब के सब मिल कर, मुनियों के निकट चे पाये । और, दीनाधारण कर, अमर श्रात्म-कल्याण के अधिकारी वे सदा के लिए. बन गये। सत्र है(१) समय पाकर, मन्तों की चागी, अवश्य फलती है। और (२) कर्म की रेख में मेघ मारना, चिरले कर्मचारी ही का काम। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति रज-सुकुमार जव वाईसवें तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि इस आर्यावर्त में थे, उन दिनों द्वारिका में राजा वसुदेव के घर, महारानी देवकी की कोख से 'गज-सुकुमार का जन्म हुआ। इन का रूप वड़ा ही अनूठा था। समय पर, इन की समुचित शिक्षा का सुप्रवन्ध किया गया । शिक्षा-सम्पन्न राज कुमार, जब यौवनावस्था को पहुंचे, तब उसी नगरी के परम सदाचार Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे --------.---..-----*-*-*- *-*-*-*-*--*-* - amin -.-.K - - ...- -MAnur.-..- - -A 1 . माना STA / M - CS - - - - - .. - .. RESS न .. .. . P0:14 COAC... 4 . . . . .. Sniymssy 3 ...... . . . .. RECREToteARA . 4 . ' - ****-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-**-*-*-*-*-* गजसुकुमार मुनि के सिर पर, उनका श्वसुर सोमिल ब्राह्मण, मिट्टी की पाल बाँधकर अग्नि के धधकते हुए अंगारे डाल रहा है। Page #56 --------------------------------------------------------------------------  Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि गज- सुकुमार परायण 'सोमिल' नामक एक ब्राह्मण की 'सोना' नाम की परम सुशीला और लावण्यमयी कन्या से उन का सम्बन्ध निश्चित हुआ । भव-भय-हांरी भगवान्, गाँव-गाँव में विचरण करते हुए, दयाधर्म का पवित्र सन्देश सुनाने के लिए, एक दिन उसी द्वारिका मैं था पहुँचे । नगरी के बाहर एक उद्यान में या कर आप विराजे | बरसाती नदियों की बाढ़ की भाँति, जनता आप के पावन दर्शनों के लिए, चारों ओर से उमड़ पड़ी । गज-सुकुमार भी एक दिन, भगवान् के उपदेश में जा सम्मिलित हुए । उस दिन, भगवान् ने प्रतिपादन किया, कि " संसार के सारे सुख पानी के बताशे की भाँति क्षण-भंगुर हैं; बालू की दीवाल के - सर्वंश चंचल हैं। इसके विपरीत, वैराग्य ही एक ऐसी वस्तु है, जिस में भय और भव-रोगों के लिए कोई गुंजायश नहीं । " प्रभु की इस बोध- प्रद वाणी से कुमार के कान खड़े हो गये । उनके विचारों की दिशा बदल गई। वैराग्य ने कुमार के हृदय में अपना अचल अखाड़ा या जमाया । उपदेश के अन्त में, उन्होंने प्रभु से प्रार्थना की, कि " प्रभु भव-भय- हारी हैं। मुझे भी भव-रोग से मुक्त कीजिए। दारुण भव- रोगों ने मुझे जन्मजन्मान्तरों से सन्तापित कर रक्खा है। अब मैं अपने मातापिता की आज्ञा प्राप्त कर, प्रभु की पावन शरण में, अपने जीवन के शेष समय को बिताना चाहता हूँ | अतः दीक्षित कर, प्रभु, दास को अपनायें | प्रभु ने तब कुमार को कहा, "जिस प्रकार भी तुम्हें सुख हो, करो। " " व कुमार घर पर श्राप । माता-पिता से दीक्षा के लिए श्राज्ञा माँगी। पहले तो ग्रह अचानक बात सुन कर, बड़े [ ? ] · Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तार ही खिन्न हुए । कुमार को खूब ही समझाया-बुझाया । अन्त में, जय कुमार को किसी भी प्रकार के समझा न सके, तब केवल एक दिन के लिए राज्यासन पर बैठ कर, उस का सुखोपभोग करलेने का आग्रह, उन्हों ने कुमार से किया। कुमार ने अपने पूज्य पिता-माता की आज्ञा को सिर पर धारण की। अव उन्हें दीक्षा लेने में और भी सुविधा हो गई । माता पिता ने बड़े समारोह से उनकी दीक्षा करवाई। उसी दिन प्रभु की आज्ञा प्राप्त कर, वे 'महाकाल' नामक एक बड़े ही विकट स्मशान में चले गये । वहाँ उन्हों ने भितु की बारहवीं घडिमा अंगीकार की। अर्थात् रात-भर ध्यानारूढ़ हो, खड़े रहने की प्रतिज्ञा उन्हों ने की । दिन चीता। सन्ध्या और स्मशान की भयंकरता ने मिल कर ज़ोर पकड़ा। निकट कामार्गभीमानवहनि बन गया। आस-पास की इस गम्भीर और नीरव शान्ति ने मुनि की शान्ति को और भी द्विगुणित कर दिया। घायघाँय करती हुई चितायों की प्रचण्ड धधक ने मुनि के तेज को और भी चमका दिया। इतने ही में, उन का भावी श्वसुर सोमिल, अपने यज्ञादि के लिए समिधा की खोज करता हुआ, उधर श्रा निकला। उस ने कुमार को पहचान लिया। तव तो वह आपे से बाहर हो गया। अनेको प्रकार के हृदय-विदारक चोल, वह कुमार से बोल पड़ा। "अरे निष्ठुर ! एक ओर तो तेरा यह जघन्य आडम्बर ! और दूसरी ओर, मेरी सुशीला कन्या के साथ, तेरे विवाह की सज-धज के साथ तैयारियाँ ! मेरी निर्दोष कन्या को तू छोड़ कर चला कैसे पाया ! इस प्रचण्ड पाप का फल तुझे देर या सवेर में भोगना अवश्य पड़े-- गा। देर-सवेर की कौन-सी वात ! अपनी करणी का फल, मैं तुझे इसी समय चखाये देता हूँ।" यों कह, पास ही के [ ४२ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि गज-सुकुमार सलाशय से कुछ गीली मिट्टी यह ले अाया। उसकी, मुनि के सिर पर, पाल उसने बनाई । उस में, पड़ोस की चिता से, धधकते हुए कुछ अंगा' उसने ला उड़ेले । इस से मुनि को बड़ी ही असा वेदना हुई। मुनि की खोपड़ी भुरते के समान भुंज गई । उस में से खोलते हुए खून.की तेज़ धारा फूट निकली। फिर भी मुनि,पूरे मुनि ही बने रहे। सोमिल के जघन्य हत्य पर, उन्हें सिंचिन्मात्र भी क्रोध न हुया । इस प्राणान्तक परिपह को हँसते-हँसते उन्होंने सहन कर लिया। उस समय, सचमुच ही, उन की क्षमाशीलता अद्वितीय थी । वेदना की विभीषणता और अलीम सहिष्णुता के शुभ संयोग के समयमुनि सदा के लिए मोक्ष-धाम में पधार गये। मुनिनाथ ! श्राप की श्रादर्श क्षमा, मानव-समाज के लिए, एक दिव्य प्रकाशस्तम्भ है । शाप की सहिष्णुता और सजीव शान्ति, हमारे लिए स्वर्ग की सुन्दर सहक बनी हुई है। जैन-धर्म की छत्रच्छाया में, इस सड़क पर लग कर, भूले-भटके हम संसारी जीव, अपने अभीष्ट स्थान-मोक्ष धाम को सहज ही में पहुँच सकते हैं । ऋषि-राज! श्रापके इस श्रादर्शवाद को हमारा कोटिशः बार नमस्कार ! Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन-माली भगवान् महावीर के समय में, राजगृह (विहार प्रान्त) नामक पक अति संमृद्धिशाला आर सुन्दर शहर था। वहाँ उन दिनों श्रेणिक राजा राज करते थे। उसी नगर में अर्जुन नामक एक माली भी रहता था। वह शरीर से सुडौल, सुन्दर तथा स्वस्थ था । लक्ष्मी की उस पर पूर्ण कृपा थी । साहस, सरता और शक्ति उसके मित्र थे । उसकी धर्म-पत्नी, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्जुन - माली बन्धुमति ' भी उसी के अनुकूल उसे या मिली थी। उसका निज का एक वगीचा था, जो नगर के बाहर था । वह इतना सुन्दर और मनोहर था, कि अपने मालिक के समान ही, दर्शकों के मन को मोहे लेता था । वह सचमुच में ' श्राराम' ही था । उसके निकट ही महान् प्राचीन और चमत्कारिक, सुदूर-पाणि एक यज्ञ का स्थान था । उस की मूर्ति लोह-निर्मित थी । श्रर्जुन- माली बालक पन ही से उस का परम भक्त था । चह उस पर सदा फूल चढ़ाता और भाँति-भाँति के भजन गाता था। उन्हीं दिनों, राजगृह में, समान शील, व्यसनवाले छः उदंड मित्रों का एक मित्र मंडल था, जो ' ललित-मंडल के नाम से प्रसिद्ध था । इस के करतूतों की धाक सारे नगर में थी। भला या बुरा, चाहे जैसा कृत्य वह करता, जनता उसको भला ही मानती थी । t " ८ श्राज एक दिन किसी महोत्सव की धूम नगर में थी । फूलों की विक्री विशेष होगी, यह जान अर्जुन अपनी स्त्री को साथ लेकर, बड़े सुबह ही अपने उद्यान में पहुँचा और फूल चुनने मैं निमग्न हो गया । फूल चुन चुकने पर, अर्जुन - सपत्नीक उस यक्ष के स्थान की ओर चला । मार्ग में उस उद्दंड मंडली ने उन्हें देखा | वे परस्पर मनसूबा करने लगे, "अपन भी चल कर कहीं इधर-उधर पड़ींस ही में छिप रहे । ज्योंही अर्जुन यक्ष पर फूल चढ़ाने को आवेगा, अपन उस पर टूट पड़ेंगे । उसे बाँध देंगे || फर वन्धुमति अपनी है । अपन जिस प्रकार चाहेंगे, उस के साथ दिल खोल कर व्यापार करेंगे । " तदनुसार, उन्होंने वैसा ही किया । . अर्जुन ने सपत्नीक यक्षालय में प्रवेश किया । यक्ष पर [ x ] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्वल तार - दोनों ने पुष्प चढ़ाये । प्रणाम किया। इतने ही में वे छहाँ उद्दण्ड मित्र, अर्जुन पर लपक पड़े । उसे बाँध गिराया। तब उस की पत्नी के साथ, भर-पेट अत्याचार उन्हों ने किया। अर्जुन ने लोह का चूंट पीकर, यह सारा अत्याचार अपनी आँखों देखा । अव उसे उस यक्ष की मूर्ति में ज़रा भी श्रद्धा और भक्ति न रही। वह उसे भाँति-भाँति से कोसने लगा। वालकपन से आज तक वह उस मूर्ति को सूर्ति नहीं, वरन् प्रत्यक्ष ही मानता पाया था। आज उस की वह भावना, खरहे के सींग के समान, उड़ गई। यूँ विचारों की उदग्र उथल-पुथल अर्जुन के मन में हो ही रही थी, कि इतने ही में एक अनहोनी घटना घटी । यक्ष से अव अपने भक्त का अधिक अपमान न देखा गया। तत्काल वह अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर गया। याक्षिकी शक्ति के प्रभाव से, अर्जुन ने अपने सुदृढ़ चन्धनों तक को, तडाक से तोड़ गिराया । लोह मुद्गर को उस ने हाथ में उठाई। अपनो स्त्री और छहों प्राततायी युवकों को उस ने धर पकड़ा। और, सदर के एक ही हाथ में उन का काम तमाम कर दिया। यही नहीं, अपनी उसी यानिकी शक्ति के प्रभाव से, वह, घूम-घूम कर, राजगृह के, उसी प्रकार सात व्यक्तियों के समूह को, प्रति दिन स्वाहा करने लगा । हवा की भाँति, अर्जुन की इस भयंकर हलचल ने,सारे शहर को हिला मारा। राजघोपणा हुई, कि नगर के बाहर, कोई भी व्यक्ति, घासफूस आदि लेने के लिए, कभी न जाया करे । . उन्हीं दिनों ' सुदर्शन' नाम के, श्रमणोपासक एक अति समृद्धिशाली सेठ भी वहीं रहते थे। जड़-चेतन का ज्ञान इन का प्रखर था। रात-दिन धार्मिक कृत्यों में ये रत रहते। अपनी [४६] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजुन-माला पीयूप-वी वाणी का रसास्वादन कराते हुए, भगवान महावीर भी उस वस्ती के बाग में या पधारे । सुदर्शन ने वीर प्रभु के दर्शन आदि का अनायास लाभ उठाना चाहा। सुदर्शन के माता-पिता ने, उन्हें, अर्जुन के अत्याचार भय दिखा कर, जाने से रोका । परन्तु सुदर्शन की भगवान् के श्री चरणों में भक्ति की भावना का प्रवाह प्रबल था । वे किसी भी कदर न रुके। भगवान के दर्शन को आखिरकार वे चल ही दिये । माग में उन्हें देखते ही अर्जुन ने यानिशी शक्ति के साथ उन पर धावा बोल दिया। परन्तु सच्चे श्रमणोपासक, धर्म-चोर, सेठ सुदर्शन, ज्यों के त्यो निर्भय और निश्चल रूप ले खड़े रहे। धीरज के साथ भूमि को उन्होंने परिमार्जित की। अरिहन्तों का नमन किया। फिर, सागारो अनशन व्रत को धारण कर, वीर प्रभु की भव-भय विदारक भक्ति में लीन वे हो गये। अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर मुद्गर-पाणि यक्ष ने धावा तो सेठ पर किया; परन्तु सेठ के अद्वितीय तप और तेज के सम्मुख. वह उन का वाल तक वाँका न कर सका। तव तो बड़ा ही लजित हुआ । और, अर्जुन के शरीर को छोड़ कर, निकल भागा। यक्ष के पजे से मुक्त होते ही, अर्जुन धरती पर धड़ाम से जा गिरा । उधर सुदर्शन ने भी अपने को उपसर्ग-रहित जानकर, अपनी प्रतिज्ञा का यथाविध पालन किया । कुछ ही दर के पश्चात, अर्जुन को भी होश आया। उसने सेट का परिचय पूछा । यही नहीं, वह प्रभु के दर्शनार्थ भी उन के साथ हा लिया। महा प्रभु के दर्शन पार सदुपदेश से अर्जुन क भावों की भूमि एक-दम बदल गई । सच है, ' सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् । ' अर्थात् सत्संगति मनुश्य के लिए क्याक्या नहीं करती । अर्थात् सव कुछ कर देती है परन्तु । जव [४७] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे मनुष्य के जन्म-जन्मान्तरों के भाग्यों का उदय होता है, तभी सत्संगति उसे मिलती है । और, सत्संगति के प्राप्त हो जाने पर, जव अज्ञानजन्य मोह तथा मद के अन्धकार का अन्त हो जाता है, तभी विवेक की श्राँखें उस के हृदय में खुलती हैं। बस, इतना कर लेने ही में मानव जीवन की सफलता है। अर्जुन को, भगवान् के एक ही वार के उपदेश से, संसार से उपराम हो गया । उसने अपने कुत्सित कर्मों के लिए हार्दिक पश्चाताप किया । भगवान् के द्वारा वह दीक्षित हो गया । श्रव वही अर्जुन, जो कल तक एक माली था, आज एक पञ्चमहाव्रत धारो, कञ्चन-कामिनी के त्यागी मुनि के रूप में 'जगत् के सामने आया । प्रभु की श्राज्ञापा, वेले-वेले की तपश्चर्या उन्हों ने की । पार के दिन, जब कभी वे वस्ती में श्राहार- पानी के लिए जाते, लोग उन्हें अपना अपने सम्बन्धियों के जानी दुश्मन मान कर, मन माने क्रूर कर्म उन के साथ करते । श्राहार- पानी भी कभी उन्हें मिलता और कभी नहीं । परन्तु उन्हें अपने घनघाती कर्मों का जड़मूल से उच्छेदन करना था । वे सन्तोपपूर्वक, सम-भावों से, जो भी कुछ परिषह सिर पर आ कर पड़ता, हँसते-हँसते उसे सहते रहे। यूँ पूरे-पूरे छः मास तक का साधु - जीवन उन्हों ने विताया। और तब अपने सम्पूर्ण कुत्सित कर्मों का क्षय सदा के लिए कर वे मोक्ष धाम को पधार गये । सच है, 'पारस परसि कुधातु सुहाई ।' सत्संगति से क्रूरकर्मा अर्जुन का भी उद्धार हो गया। 9 [८] Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० धर्म-रुचिश्रणगार याज से बहुत समय पहले, हमारे इसी पवित्र भारतवर्ष में एक मुनि थे । उन का नाम धर्म घोष था । गाँव-गाँव में विचरण कर के, धर्म के अहिंसात्मक एवं सर्व-सुलभ सिद्धान्तों का प्रचार तथा प्रसार करना, उन के जीवन का यही एक मात्र सद्दश्य था । एक दिन वे अपने पाँच सौ मुनियों के विशाल परिवार के साथ, चम्पानगरी ( विहार प्रान्त) में पहुँचे । शिष्यों Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे में से एक का नाम 'धर्मरुचि' था। चे बड़े तपोधनी मुनि थे। अपने तप ही के वल, उन्हें कई सिद्धियाँ सिद्ध हो गई थी। उन दिनों, वे मास-खमण की तपस्या करते हुए, श्रात्म-ध्यान ही में, प्रति-दिन रत रहते थे। उसी चम्पा नगरी में, सोम, सोमदत्त और सोम-भूति नामक तीन भाइयों का एक ब्राह्मण परिवार था। उन की पत्तियों क नाम क्रमशः नाग-श्री, भूत-श्री, और यक्ष-श्री था। तीनों भाई आपस में यूँ मिले हुए थे,जैसे पानी में दूध। पूर्व-निश्चय के अनुसार, तीनों का भोजन, वारी-बारी से एक ही जगह बनता। और प्रेम-पूर्वक सारा परिवार साथ बैठ कर, भोजन करता। एक दिन जव सोम के घर भोजन वन ने की बारी श्राई, उस की पत्नी ने तरह-तरह के कई पक्कान और तूंवे की साग बनाई । चखने पर, साग, हलाहल विप के समान कडुवी निकली। उसे हटा कर दूसरी साग तैयार कर ली गई। तीनों भाइयों का परिवार आनन्द-पूर्वक भोजन कर के उठा ही था, कि इतने ही में, धर्म-धोष मुनि के तपोधनी शिष्य, धर्म-रुचि श्रणगार, अपने एक मास की तपस्या की पूर्ति का दिन होने से, गोचरी के लिए, उसी घर में आ निकले। सोपा की स्त्री, नाग-श्री ने उस कटु साग को वाहर फेंकने के अपने कष्ट को हलका करने का यह शुभ सुयोगपाकर,वह साग उन्हीं कोचहरा दी। उस साग को लेकर मुनि,अपने गुरु के निकट पहुंचे। उन्हों ने साग को देखा और चखा। चखते ही उन्हों ने उसे प्राणान्तक कटुसमझ, उसे किसी ऐसे निर्वद्य स्थान में डाल आने की आज्ञा, धर्म-रुचि को दी,जहाँ पर जीवों की विराधना न हो।तपस्वी मुनि ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य की । ढूंढते-ढूँढ़ते,वे एक निर्वद्य [५० ] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-रुचि-यागार स्थान में पहुँचे। वहाँ भी, पहले, परीक्षा के लिए, केवल एक बूँद उस की उन्हों ने डाली। कुछ ही देर के बाद, उन्हों ने प्रत्यक्ष देखा कि बीसियों चीटियाँ वहाँ श्रा रही हैं; और, उस बूँद से लिपट लिपट कर छटपटाती हुई, अपने प्राणों का अन्त च कर रही हैं । श्रहिंसा के कट्टर अनुयायी, मुनि के मन को इस घटना से बाहरी चोट लगी । धर्म-रुचि मुनि ने, विष के समान विषैली उस साग को, अन्यत्र कहीं डालने की अपेक्षा, अपने पेट ही को, उस के लिए अधिक उपयुक्त और निर्वद्य स्थान देखा । अपनी श्रात्मपुकार की अवहेलना, अत्र अधिक काल तक, वे न कर सके । जो लोग 'परोपकाराय पुरुयाय, और पापायः परपीड़नम् ' के गूढ़ सिद्धान्त को, अपने जीवन में पड़-पद पर काम में लाते हैं, उन्हें अपने प्राणों का तनिक भी मोह नहीं होता । चे, प्रति पल, निर्भय और निश्चत हो कर मौत का सामना और स्वागत करने के लिए, उतारू रहते हैं । वे इस नश्वर जगत् में, अपनी थानेवाली पीढ़ियों के लिए, अपने समाज के लिए, एक आदर्श उदाहरण छोड़ जाने धुन में सदा रत रहते हैं । वे विश्व भर के प्राणियों को अपना ही परिवार समझते हैं । परम कृपालु मुनि भी इसी सिद्धान्त के अनुयायी थे । तव निरपराध प्राणियों को, कारण ही सताना तो उन्हें सुहाता ही कैसे था ! नाग-श्री के प्रति, रश्च मात्र भी प-भाव को हृदय में न लाते हुए, चिप के सदृश उस विषैली साग को, उन्हों ने हँसते-हँसते स्वयं पान कर लिया। पान करते ही उन के शरीर में असह्य वेदना उत्पन्न हो गई । समभावों से उस वेदना को उन्हों ने हँसते-हंसते सह लिया | [ 2 ] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन 'जगत् के उज्ज्वल तारे उसी समय उन्हों ने संथारा भी ले लिया। कुछ ही काल के वाद, उनका स्वर्गवास हो गया । उधर, धर्म-घोप मुनि बड़ी देर तक अपने शिष्य की बाट जोहते रहे । जब वे आते न दिखे, अपने अन्य शिष्यों को, उन की खोज में, उन्हों ने भेजा । बड़ी भारी खोड़ के पश्चात्. 혁 साधु वहाँ पहुँचे, जहाँ तपोधनी धर्म-रुचि णगार ने संथारा कर, समाधि प्राप्त की थी । धर्म-रुचि के शव को देख कर, उन्हें भी बड़ी वेदना हुई । अन्त में, वे मुनि के भण्डेोपकरण को अपने गुरु के निकट लाये । और, सारी घटना उन्होंने अपने गुरु से कह सुनाई । गुरु ने अन्य सम्पूर्ण मुनियों को निकट बुलाया। चारों ओर से धर्म रुचि के सद्गुणां की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी । गुरुदेव ने अपने पूर्व-ज्ञान द्वारा निष्कर्ष निकालते हुए कहा, "धर्म-रुचि, सर्वार्थ सिद्ध विमान में आकर उत्पन्न हुए हैं । वहाँ से एक भव और कर के, वे मोक्ष धाम को प्राप्त हो जावेंगे | "" सच है, विना तपाये सोने की परख कभी हो ही नहीं पाती । साधुओं का जन्म, परोपकार हो के लिए होता है । हज़ारों मन साधुता के सिद्धान्तों -भर को मानने की अपेक्षा, उस का रत्तीभर व्यवहार में लाना, अधिक श्रेष्ठ है; अधिक श्रेयस्कर है : आत्मा के अधिकतर निकट पहुँचने का मार्ग है; और, लोककल्याण के लिए अधिक उपयोगी है । I is 1 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (হবিলুখী प्राचीन समय में, 'पुकलावती-विजय' को 'पुण्डरीगिणी' राजधानी में संहापन नामक राजा राज करते थे। 'पद्मावती उनकी पटरानी थी। उन की कोख से दो पुत्र थे। जिनका नाम पुण्डरीक और कुएंडरीक था । महाराज ने एक दिन स्थावर मुनि के उपदेश को श्रवण कर,पुण्डरीक के कन्धों, पान का भार रख दिया। और, आप स्वयं आत्म-कल्याण में Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैम जगत के उज्ज्वल तार लीन हो गया। ___ उस के कुछ ही काल के पश्चात् वे ही स्थविर मुनि पुनः वहाँ पधारे । इस वार के उदेश की श्रवण कर, पुण्डरीक ने तो गृहस्थ-धर्म को धारण किया, और,कुण्डरीक न मुनि के निकट दीक्षा धारण की। अपने अनवरत अध्यवसाय के द्वारा,कुछ ही काल में, कुण्डरीक मुनि ने पूरे-पूरेग्यारह अंगों का गंभीर शान प्राप्त कर लिया। तपश्चर्या तो उनकी कठोर ही थी । पारण के दिन, जैसा भी रूखा-सृखा,समय पर उन्हें मिल जाता, उसी को ग्रहण कर अपने संयम का निर्वाह निश्चल रूप स व करते रहे । परन्तु परिणाम इसका कुछ उलटा ही हुश्रा । उस सखें सूखे भोजन से, दाह ज्वर की व्याधि ने उन्हें आ जकड़ा। यह देख, स्थविर मुनि ने उन्हें अपने साथ लिया। और, फिर से वे उसी राजधानी की नगरी में आये । ___ महाराज पुण्डरीक ने ज्योही मुनि के आगमन की सूचना पाई, दर्शनार्थ, मुनि की शरण में वै पहुँचे । अपने भाई मनि को बीमारी को भयंकर देख, स्थावर मुनि से नगर में पदार्पण करने की उन्होंने प्रार्थना की, जहाँ सुविधा-पूर्वक अस्वस्थ मुनि की उचित चिकित्सा समय पर हो सके । स्थविर मुनि न केला ही किया। महाराज ने कुण्डरीकं मुनि के उचित औषधोर पचार का प्रवन्ध करवा दिया। कुछेक दिनों के पश्चात्, स्थ विर मुनि एक दो साधुओं को, कुण्डरीक मुनि के निकट छोड़, शष को अपने साथ ले, वहाँ से अन्यत्र विचरण कर गये। राजाश्रय में, थोड़े ही दिन चीतन पर, कुण्डरीक मुनि पूर्ण वस्थ हो गये । एक रोग ने मुनि का पीछा छोड़ दिया। परन्तु दूसरे ने, उसके छोड़ते ही, उनका कण्ठ धर दवाया । राज [५४ ] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक कुण्डरीक प्रासाद के मुन्दर और स्वादिष्ट भोजनों की श्रासक्ति ने, उन के बिहार के मनरसूबों को बिलकुल रोक दिया । गजा पुण्डरीक ने भी अपने भाई. मुनि की इस मनोवस्था का संदेश एक दिन सुना। ये मुनि के निकट श्राकर, उन के साधु-जीवन की सैकड़ा नरह से सराहना, और अपने विषय-वासना-लिप्त जीवन की हर तरह से निन्दा करने लगे। राजा की उन बातों को सुन कर कुगडरीक मुनि अपनी करण के लिए बड़ही लजित हुए। और, ज्यो त्यों, वहाँ से विहार कर, वे स्थविर मुनि की शरण में जा पहुँचे। जवान के इसी स्वाद ने, बड़ी-बड़ों को श्राय दिनों, मिट्टी में मिला दिया । जो भी कोई इस के वश में हुया, श्रीधे मुंह की खाये बिना वह कभी न रहा 'रसना' शब्द स्वयं बतला रहा ह, कि यह स्त्री-लिंग वाचक है, अवलता-सूचक है। जगत् में, अवलों और दवुओं का साथ कर, कौन सबल बना है ? जनखों श्रार जनानी के सहवास में रह कर, वीर से वीर पुरुष भी एक न एक दिन, अवश्यमेव जनता और जनाना बन बैठता है। संसार के इतिहास के पृष्ट, ऐसे अनेकों उदाहरणों से रंगे पड़े है। चीर-सिरताज, भारत के प्राचीन बल-पौरुप के प्रत्यक्ष देवता, महाराज पृथ्वीराज चौहान ने, रणांगण में उतरने के कुछ ही पहले, संयोगिता से अपनी कमर कसवाई थी । यही कारण था, कि मुहम्मद गौरी के सामने, अतुलित बल, एश्वर्य और पौरुप के, महाराज के साथ रहते हुए भी, उन्हों ने मुँह की वाई । इसी प्रकार, सुभद्रा के नित्य के सहवास ही के कारण युवकों के मुकुट-मणि, भारतीय युवकों की अनूठी शान और मान के धनी, वीरवर अभिमन्यु चक्रव्यूह का छेदन न कर सके। [५५] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे मुनि कुण्डरीक भी रसना के रस में लिप्त हो चुके थे। इसी रस ने, पुनः कुछ ही काल में, स्थविर मुनि से कुण्डरीक मुनि का साथ छुड़वा दिया। वे फिर अपने भाई की राजधानी में श्रा धमके । राजा ने उन का उचित स्वागत किया। उन के संयम की पेट-भरकर प्रशंसा की। परन्तु कुण्डरीक सुनि का मन तो संयमवृत्ति से अव विलकुल ही विचलित हो चुका था। यह देख, राजा ने उन्हें पूछा, "क्यां, समय पालने की अब आप की इच्छा नहीं है ? " वदले में मुनि मौन रहे । 'मौनम् सम्मति लक्षणम् ' । इधर, संसार का उपभोग करते-करते, राजा स्वयं उससे ऊब चुके थे। उन्होंने अपने राजसी वैभव और राज-पाट को तत्काल ही अपने भाई, कुण्डरीक के मुनि वेष से बदल दिया । श्राज से कुण्डरीक पुनः भोगी वन; और, पुण्डरीक पंच महाव्रत-धारी मुनि । कुण्डरीक ने अपने हीरे-से जीवन को काँच से बदल दिया ' इस के विपरीत, पुण्डरीक ने अपने कुधातु-मय जीवन का पारस में परिणत कर लिया। सौदा विनिमय का जो भी प्रत्येक के मन के अनुसार हुआ। तब भी एक का मार्ग अधःपतन की ओर था; और, दूसरे का स्वर्ग को ओर। . .. पुण्डरीक मुनि ने, स्थविर मुनि के दर्शन न होने तक, अन्न-जल ग्रहण न करने का, अभिग्रह धारण किया । यो प्रण कर के, वे वहाँ से चल दिये। उधर, कुण्डरीक, भूखे गिद्ध की भाँति भव भोगों के पीछे पड़े। जिसके कारण, उन के शरीर में अनेकों प्रकार के रोगों ने अपना अविचल अड्डा जमा लिया । यों, पूरे तीन दिन के भोग-विलास ने, उन्हें मोहमाया और श्रा-ध्यान के अधीन बना, पूरे-पूरे तैतीस सागर [५६] अन्नवे वहाँ संगों के पीछे पड़ने अपना Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्डरीक-कुण्डरीक तक, अति ही कठोर-तम और कप्ट-पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए, काल के विकराल पंजों में पटक, सीधे सातवें नर्क को भेज दिया। ___इस के विपरीत, पुण्डरीक मुनि भी पूरे तीन दिनों में, स्थावर मुनि के चरणों में जा पहुँचे। दुबारा, वहाँ उन्होंने फिर से, ऋषिगज के हाथों. महावतों को धारण किया। तेले के पारण के दिन, जैसा भी मूखा-रखा भोजन उन्हें मिला, उसे हृदय से ग्रहण उन्होंने किया । जव कुछ काल के अनन्तर वे अस्वस्थ हुए. संथारा उन्होंने ले लिया। यूँ, काल पूर्ण करके, तैतीस सागर पर्यन्त, परम सुखमय जीवन विताने, भार. उस के पश्चात् एक भव ही के बाद मोन-धाम को सिधारने के हेतु. सर्वार्थ सिद्ध नामक स्वर्ग में वे जा विराजे। ___ इससे निर्विवाद-रूपेण सिद्ध हो गया,कि संसार में सारे अ..' नयों का एक मात्र कारण,कवल रमनन्द्रिय ही है। श्रतः प्रत्यक . मनुष्य का प्रथम और प्रधान कर्तव्य है, कि वह अपने बनते बल इस की अधीनता से छूटने का उपाय सदा सोचता रहे। [ ५७ ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त और सम्भूत Na प्राचीन समय में, वाराणसी नगरी के, एक समय महा. राज 'शंख' राजा थे । 'नसूची उन का प्रधान था। अधिकार, अविवेक और यौवन के सन्निपात से, उस का प्रत्येक कार्य कुछ न कुछ दोप-पूर्ण रहता था। रानी से भी उस का गुप्त सम्बन्ध हो गया। जहँ कुमति तहँ विपति निदाना।' इस पाप का भएडा एक दिन विना फूटे न रहा। राजा के क्रोध की Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित थार सम्भून सीमा न रही। उन्होंने तत्काल ही उसे प्राण दराड की सज़ा ही । यह कार्य, इन्द्रभूत नामक एक मातंग ( श्वपच ) का दिया गया काम, क्रोध और लोभ के अनुचित उपयोग से, पुरुष अपने लिए, नर्क का द्वार सदा के लिए खोल देता है । मातंग को धन का लोभ दिखाया गया । और और शर्तें भी नसूची से उसने कीं । बस उसका प्राण बचा लिया गया । नसूत्री ने मातंग के चित्त और सम्भूत दोनों पुत्रों की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी अपने सिर कन्धों पर ली । वह अब लुक-छिप कर, मातंग के घर में रहता हुआ, अपने जीवन के अन्तिम दिन विताने लगा। थोड़े ही समय में, दोनों बालक, पढ़-लिख कर प्रवीण दन गये । मातंग, नसूची का बड़ा अहसान मानने लगा । कुत्ते की पूँछ, वाँध देने पर, सिधी हो जाती है; सीधी हुई जान पड़ती है । परन्तु छोड़ते ही, वह अपने पहले ही रूप में श्रा जाती है । यह उस का जन्म सिद्ध अधिकार है । वह उसे छोड़ भी कैसे सकती है ! नसूची का मतवाला मन भी ठीक इसी तरह का था । प्राण नाश का भय उस का पहले ही मिट चुका था । मातंग भी उस के अहसान से पूरा-पूरा दब गया था । श्रतः वह भी उस के विरुद्ध व कुछ बोल नहीं सकता था । समय पा कर,नमूची, एक दिन, अपनी उसी बेहयाई-भरी चे दवी से, उसी मातंग की स्त्री से भी पेश आया । मातंग का खून खौल उठा मृत्यु से भी बदतर, उस अपमान को, अब वह और अधिक समय तक सहन न कर सका । वह दिनरात इसी टोह में रहने लगा, कि किसी तरह से उस का अन्त कर दिया जाय । परन्तु चित्त और सम्भूत, मातंग के इस मार्ग [ ५८ ]. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे - में बाधक बने । उन्होंने अपने शिक्षा-गुरू, नमूची पर इस भावी घटना को प्रकट कर दिया। नमूची का दिल, एक बार फिर दहल उठा । वह सजग हो कर, वहाँ से भाग निकलने. की चेष्टा करने लगा। और, अन्त में एक दिन, वह वहाँ से, अवसर पाकर भाग भी निकला। चलते-चलते वह हस्तिनापुर में जा निकला। और, वहाँ के महाराज सनत्कुमार चक्रवर्ती का वह मन्त्री बन बैठा। इधर, चित्त और सम्भूत, जिन्हें नमूची ने संगीत-कला का गम्भीर ज्ञान करवा दिया था, रोज़ गातेगाते गाँव में निकलने लगे। संगीत, एक ऐसी कला है, जिस के द्वारा, बड़े-बड़े द्रुत-गामी और हिंसक प्राण तक, सरलता पूर्वक वश में किये जा सकते हैं । इसी के प्रताप से, मुर्दा दिलों में संजीवनी शक्ति का संचार किया जा सकता है। कायरों को तोप के लपलपाते मुँह के सामने ला कर खड़ा किया जा सकता है । और, कठिन से कठिन सांसारिक यातनाओं को, कुछेक काल के लिए, प्रायः भुला-सा दिया जा सकता है। संगीत - कारों की रोज़ी है; और दुखियों की करारी है । पाश्चात्य देशों की अनेकों बड़ी-बड़ी शिक्षण-संस्थाओं में, संगीत ही एक ऐसी प्राण-प्रद वायु है. जिस के द्वारा वहाँ के गँदले से गैंदले वातावरण को,बात की बात में शुद्ध बनाया जाता है। वह संगीत ही है, जिस से अन्धे लोग, सूरदास कहलाते हैं। और, गुंडे से गुंडे भी तानसेन के पवित्रतम पद पर चैठाये जाते हैं। अनेकों कुलटा नारियाँ और बेश्याएँ तक, वीणा-पाणि सरस्वती की साथिन, एक-मात्र इसी संगीत की कृपा से वन चैठती है । सेगीत, वह जादू है, जिस के इल, हज़ारो प्राणी,, वात कीवात में, अपनी ओर खिचे चले आते हैं। उस समय, उन्हें अपने काम और कर्तव्य का कोई भान ही नहीं रहता। अस्तु । संगीत [६०] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त और सम्भूत का यहो जादू, चित्त और सम्भूत के कंठ और करों में था। नगर की जिस गली से भी हो कर ये निकलते, जनता अपना सारा काम-काज छोड़ कर, इन के राग-रागनियों को सुनने के लिए, पागलों की भाँति दौड़ पड़ती। नगर की नारियों और बालिकाओं का भाग, इस में, पुरुषों की अपेक्षा अधिक रहता। संगीत कला का, एक ओर तो, श्वपच-बालकों के कंठ और करों के इशारों पर मनमाने रूप से नाचना ; और, दूसरी ओर, नगर की कुलीन कामिनियों की उन के पीछे वह सुध-बुध-हीन भगदौड़ ! नगर के भले लोग इस बात . को और अधिक समय तक न देख सके। वे राजा के पास फर्यादी बन कर दौड़ पड़े। प्रस्ताव पेश हुआ, कि या तो श्वपत्र-वालक ही नगर में रहें; या हम ही। राजा ने उन के दर्द का समर्थन किया। दोनों श्वपच चालको को, तब तो, देश से उसी समय, निर्वासित कर दिया गया। राजा, प्रजा का पिता कहलाता है। उसे चित्त और सम्भूत की भी दो-दो बातें, कम से कम सुन लेनी चाहिए थीं। परन्तु प्रकृति स्वयं चलवान को चुनती है । वेचारे कमज़ोरों की दुनिग में कहीं दाद-तक नहीं। अनुचित और अविचारपूर्ण राजयोपणा से, चित्त और सम्भूत के दिल को बड़ी भारी चोट लगी। इस अपमान के कारण, वे अात्म-बध तक करने पर उतारू हो गये। इसी उद्देश्य कापूर्ति के हेतु, कालिंजर पर्वत की चोटी पर चढ़ गये। वहाँ से वे गिरना ही चाहते थे, कि इतने ही में, एक संयम-व्रतधारी मुनि वहाँ श्रा निकले । उन्होंने मामले की असलियत को खोज-खोज कर छाना । तद्दपरान्त वे वोले,- "प्यारे वालको, जब तुम्हें मरना [६] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे ही है, तो यूँ गीदड़ों और कायरों की मौन से क्यों मरते हो ! मानव-जीवन बड़ा ही मँहगा है । यहाँ ग्राकर, जाना तो सभी को पड़ता है । परन्तु कुछ काम करते हुए वीरों की भाँति, यहाँ से जाओ। मरो; और ज़रूर मरो । परन्तु यूँ मरो, कि संसार तुम्हारे मरने को अपना ही मरना समझे । " मुनि की ये बातें उन्हें चुभ गई। उन्हीं के द्वारा, वे वहीं दीक्षित हो गये । और, मास-मास खमण की तपश्चर्या करते हुए इधर-उधर विचरने लगे । एक बार हस्तिनापुर में गोचरी के लिए वे पहुँचे। वह दिन उन के पारणे का था । नमूची को, उन के द्यागमन का, कहीं से, सन्देश मिल गया । उसे भय लगा कि कहीं ये लोग उस का 3 भण्डा न फोड़ दें। अपने नौकरों के द्वारा, मार-पीट कर उन्हें नगर के बाहर निकाल देने का मनसुबा उसने किया । तदनुसार, नौकरों ने श्रा उन्हें पीटना शुरु कर दिया । 'चित्त 'ता इस मार-पीट से चंचल न हुए। परन्तु पारणे के दिन 'संभूत' को यह बात सहन न हुई । उन्होंने तेजोलेश्या के द्वारा, नगर में - धुकड़ मचा दिया । चित्त को जब इस बात का पता लगा, तो वे अपने भाई के निकट था, उन्हें अपनी साधुता के मार्ग की याद दिलाने लगे । सम्भूति, बदले में, चोले, "भाई ! एक तो पार का दिन। तिस पर, निरपराध मार-पीट | मैं इसे सहने को तैयार नहीं । इस से सन्धारा कर लेना ही अच्छा है । चित्त ने इस वात का समर्थन किया । तदनुसार, वे दोनों सन्धारा लेकर सो रहे । इस घटना का हाल हस्तिनापुर के सम्राट् ने सुना । वे बड़े ही घबरा उठे । और सहकुटुम्ब चले चले, मुनियों की [ ६२ ] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वित्त र सम्भून शरण में श्राकर, अपने मंत्री के अपराध की क्षमा वे चाहने लग | इस समय एक विचित्र घटना घटी। सम्रांती का सिर सम्भूत के चरणों में लगा। उस के बाल चन्दन के इत्र से भीगे हुए थे। इस शीतल और सुगन्धित स्पर्श नं, सम्भूत के वित्तको मोह माया के कीचड़ में फंसा मारा। वे अपनी प्रतिमा से विचलित हो गये। उन की श्रांखें खुल गई । सम्राट् के राजसी वैभव को देख वे मोहित हो गये । उन्हों ने निदान किया, कि "मेशी तपस्या का फल हो, तो मैं भी एसा ही सम्राट् बनूं।" वित्त मुनि ने अपने भाई के निदान की गति को पहचान लिया। वे बोले, "भाई ! यूँ निदान कभी न करो । कौड़ियों के बदले अपनी उम्र तपस्या के श्रमूल्य हीरों को यूँ कदापि न बेची। " परन्तु भावी प्रबल थी । सम्भूत को अभी संसार के अनेकों बार काटने थे। फिर, "विधि जा की दारुण दुपदेई । ताकी मनि पहले ही हर लेई ॥ " सम्भृत का मन हाथी से उतर कर गधे पर बैठ चुका था । उन्हें अपने भाई की एक भी बात पसन्द न आई। फिर तो दोनों ने अपने अपने मन की ही की। दोनों मुनियों ने मृत्यु पाकर, 'सु' स्वर्ग में जा कर जन्म ग्रहण किया। काल पाकर वहाँ से पुनः वे दोनों इसी भारत-भूमि में था कर जन्मे । चित्त देव, 'पुरिमताल' नगर में, एक सेट के घर, पुत्र बन कर आये। उधर, सम्भूतदेव का जन्म, कम्पिलपुर के राजा ब्रह्मभूति के यहाँ हुथा । श्रागे चल कर अपने निदान के अनुसार, ये ब्रह्मवर्ती के नाम से प्रख्यात हुए । समय पाकर, सेट के पुत्र ने वैराग्य पा, दीक्षा ले ली । श्रपनी घोर तपस्या के चल, श्रवधि- ज्ञान के द्वारा, अपने पूर्व जन्म [ ३ ] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल नारे के भाई का हाल इन्हें ज्ञात हुया । उन्हें प्रति बोध देने की इन्हें सूझी। वे उसकी पोर चले । उधर, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को भी जाति-स्मरण ज्ञान हो पाया। वे भी अपने पूर्वजन्म के भाई से मिलने के लिए छटपटा रहे थे । इच्छानुसार, दोनों का अचानक संयोग हुश्रा । प्रेम-पूर्वक दोनों मिले-भटें । ब्रह्मदत्त वोले, "भाई ! फंको ये झोली झण्डे ! चलो राजमहलों में । और, संसार के भोगों का अानन्द-पूर्वक उपभोग करो। यह सुन कर मुनि बोले, "भाई ! एक बार तो अपन दोनों एक ही घर में दास-पुत्र थे । दूसरी बार, कालिंजर पर्वत पर, मृग रूप में, साथ रहे । तीसरी बार, गंगा नदी के तट पर हंस बने । चौथी बार, श्वपच के घर अपना जन्म हुआ। पाँचवी चार, स्वर्ग में भी अपन साथ ही साथ रहे। परन्तु इस छठी वार में, तुम्हारे ही निदान ने, अपने को अलग-अलग कर दिया। अतः छोड़ो इस राज वैभव को ! और, श्रात्म-कल्याण के मार्ग का अनुसरण करो।" मुनि की ये चाते सम्राट को नागवार गुज़रीं । मुनि ने तब वहाँ से विहार कर दिया। और, कठिन तप के वल, अपने सम्पूर्ण घनघाती कर्मों का एकान्त अन्त कर, सदा के लिए, वे मोक्ष-धाम में जा बिराजे । इस के विपरीत, ब्रह्मदत्त का अन्त, भोगों को भोगने में हुा । वे मर कर सातवें नर्क में गये। निष्काम और सकाम क का पेखा ही फल होता है। [ ४] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेट-धनाजी मगध प्रान्त की राजधानी राजगृह में, याज से ढाई हज़ार वर्ष पहले, महाराज विम्बसार (श्रेणिक) राजा राज करते थ। उन के समकालीन उसी नगर में धनाजी एक बड़े ही भाग्यवान और सम्पत्तिशाली सट थे। गौभद्र सेठ की मुकन्या 'सुभद्रास इन का विवाह हुया था । सुभद्रा के भाई का नाम शालिम था। . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत के उज्ज्वल तारे ___ एक दिन सेठ धनाजी अपनी अशोक वाटिका में स्नान कर रहे थे। सुभद्रा उस समय अपने पति-देव की पीठ का मैल उतार रही थी। उसी समय, उसे याद आई, कि "मरा एक-मात्र भाई दीक्षित होनेवाला है।" मन में इस भाव के आत ही, उस की छाती भर आई । आँखों से गरम पानी का यूँदें टपा-टप गिरने लगीं। कुछ बूंदें सेठ की पीठ पर गरौं । उन्हों न सिर उठा कर पत्नी की ओर देखा। वे तव बोले, "सुभद्रा ! क्या कारण है, कि तुम अाज यूँ फूट-फूट कर रो रही हो ? क्या, तुम्हें काई मानसिक कष्ट है ? तुम्हारा घर और मायका, दोनों जगह सव प्रकार से सम्पन्न और भरी-पूरी हैं! फिर तुम्हें चिन्ता ही किस व.त की हुई, कि यूँ तुम एकाएक अधीर हो उठी हो! कौनसीवात तुम्हें यहाँ अखरीहै? तुम्हारा अपमान किया किसने है ? अपने मन की कहो। में अपने वनते-बल तुम्हारी चिन्ता को दूर करने का प्रयत्न करूँगा।" ___ सुभद्रा ने अवरुद्ध कंठ से कहा, "कुछ नहीं। ज़रा मायके की याद आ गई थी। मेरा इकलौता भाई दीक्षित होने को उद्यत हो रहा है । भौजाई अभी विलकुल भाली है। संसार की रूप-रेखा और पेचीदा गलियों से वह अभी विलकुल अनभिज्ञ है। माता-वृद्ध हैं । वस, इन्हीं सव बातों की स्मृति ने अचानक मेरे दिल को दहला दिया। यही कारण है, कि हृदय मेरा उवल पड़ा : आर, उस की आहे, आँखा के रास्ते बाहर छलक पड़ी।" सेठ ने इस पर कहा, "वस, इतनी सी बात, और, इतना पश्चात्ताप ! जब संसार को त्यागना ही है, तो फिर देर क्यों? [६६] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूठ-धन्ना जा तैयारी भी कैसी ? यह तो कादरता का चिह्न है । यहाँ की एक-एक बात को त्यागने की अपेक्षा, सभी से एक ही दम किनारा काट जाना, वीरता तो इसी में है । मेरी समझ में तो, यह धीरे-धीरे का त्याग, कोई त्याग ही नहीं है ! यह तो त्याग की मखौलबाजी है ! संयम के साथ दाँव-पेंच की घाते हैं । और, संसार के भोगों की भावनाओं को और भी मज़बूत बनाने का मार्ग है। शुभ मार्ग में देरी और तैयारी कैसी ? " सेठजी की इस तानाकशी ने सुभद्रा के दिल को और भी दहला दिया । मायके की याद कर, उस के हृदय में करुणा उमटू श्रई; और, पतिदेव की बातें सुन कर रोप ने उस के खून को खौला दिया । यह तमक कर बोली, "बात जब सचमुच में ऐसी ही हैं, तो फिर शूर-वीरता का परिचय पहले श्राप ही क्यों नहीं देते ! हाँ, 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे" तो जगत् में पद-पद पर नज़र श्राते हैं; पर अपनी कथनी को करणी का रूप देने में, भाई शालिभद्र के समान, कोई विरले ही वीर, इस धरणी-तल में समर्थ पाये जाते हैं ! कहने और करने में, पूर्व-पश्चिम का अन्तर है । एक अगर मनसूबा है, तो दूसरा, व्यापार है । 93 सेठजी को सुभद्रा की बातें लग गई। वे एक-दम उठ खड़े हुए। त्याग की तरंगें, उन के हृदय में इतनी ऊँची उठीं, कि संसार का चढ़े से बड़ा वैभव, अव उन के श्रागे, पल-भर को भी ठहर न सका। वे बोल पडे, " लो, मैंने श्राज ही से तुम सभी को छोड़ दिया ! संयम को व अपना साथी मैं ने बनाया ! श्राज से तुम और तुम्हारी अन्य सौतें, सभी मेरे लिए बहिनें हुई ! तुम ने मेरे साथ, बढ़ा उपकार किया, जो मोह-माया के इस " [ ६७ ] Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्वल तारे कीचड़ से मुझे बाहर निकाल पटका।" सुभद्रा का कलेजा अव तो और भी थर्रा उठा। वह अपने किये पर बार-बार पछताने लगी। अनेकों अनुनय-विनय भी उस ने अपने स्वामी के सम्मुख की। पर सेठ जी के मन पर, त्याग का गाढा रंग चढ़ चुका था। वह, लाख प्रयत्न करने पर भी छूट न सका । उधर, सौतों ने जब यह वात सुनी, हकवकाते हुए दौड़ पड़ी। सुभद्रा की गाढ़ी लानत-मरामत उन्हों ने श्रा कर की। श्रव, सभी ने पति-देव को घेर लिया। फिर भी तरह-तरह की मिन्नतें मानी गई । पर धन्नाजी के आगे, सब बातें चेकार थीं। वे टस से मस न हुए। उन्हों ने केवल इतना ही कहा," यदि सच्चा स्नेह ही तुम्हें मुझ से है, तो तुम भी छोड़ो इस मोहमाया को और, चलो दीक्षित होने के लिए मेरे साथ ! यदि. संसार को तुम न त्यागोगी, तो संसार तो तुम्हें एक न एक दिन छोड़े ही गा।" वे भी आखिर कार, पुण्यात्मा सेठजी की ही तो पत्नियाँ थीं। उन्हों ने भी तब तो हँसते-हँसते अपने पति-देव का साथ दे दिया। __संसार सेनेह नाता तोड़,ये सबलोग शालिभद्र के पास आये। सेठजी साले से वोले, दीक्षा के लिए चलोन !भले काम में विचार और विलम्ब क्यों और कैसी?"वे भीमानोइन कीराह ही . देख रहे थे। चट उठ कर, इन के साथ हो लिये । सव के सव मिल कर,वीर प्रभु महावीर की शरण में आये । और, दीक्षित हो गये । तब बहुत समय तक, अन्तःकरण के शुद्ध भावों से पूर्ण चारित्र का पालन वे करते रहे । यूं, अन्त में, अपनी श्रात्मा का कल्याण कर, मोक्ष के राज-मार्ग के पथिकवे वने। यह सब, समय पर कही हुई, अवला कही जाने वाली [६] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संट-धनाजी नुभद्रा की वाणी का असर था। जिस ने सउ धनाजी के परिचार की दिशा ही बदल दी। जो शक्ति बड़ी-बड़ी तोप के गोला में नहीं, वह समय पर फही हुई वाणी में हैं। यही कारण है, कि 'चानी का दूसरा नाम 'सरस्वती है। यही, मधुर बन फर. यह यं वीरों का मन, यात की बात में, माहित कर लेती है। इसीलिए लोगों ने इस 'रसना' कहा है। [६ ] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेट-जलिभद्रजी वीर भगवान महावीर के समय में, मगध के वैभवशाली नगर राजगृह में शालिभद्र नामक एक सेठ रहते थे। कुवेर के समान इन का कोष था। संसार के सारे सुखोपभोग इन के यहाँ सुलभ थे। अपने पूर्व भव में येही सेठ, एक ग्वाले के पुत्र थे। वहाँ, इम का नाम,संगम था। जब तक संगम संसार Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ- शालिभद्रजी > मैं नहीं श्राया था, उस के पिता पशुधन से भरे पूरे थे । 'परन्तु 'संगम' का संगम होते हो, पिता के भाग्य ने पलटा खाया । पिता, संसार से चल बसे । ग्वाले के सोने का घर राख हो गया। परिवार के बीसियों व्यक्तियों में से केवल संगम और उस की माता, घे दो जन-मात्र बच रहे । अव मज़दूरी ही उन के जीवन का एक मात्र घाधार था । ज्यों-त्यों कर के पूरे थाट वर्ष निकल गये। संगम, जैसे-जैसे सयान होता जाता था, माता, अपने मन ही मन मैं, उतनी ही ऊँची श्राशाएँ, लगा रही थी। कुछ भी हो, संगम, श्रीखिरकार, अभी बालक ही था। माता के मन और परिश्रम को भापन की शक्ति अभी उस में ज़रा भी न थी । खीर खाने की हट, उस ने एक दिन पकड़ ली। परन्तु घर में तो फ़ाक कशी का पैरपसारा था । मड्डा जुटाना तक, बेचारी माता को बड़ा मँहगा पढ़ता था; तो खीर की तो फिर बात ही कहाँ से चलती? बालहर जो भी होती ज़बर्दस्त है; तब भी जब वह पूरी नहीं होती, चालक मचल पड़ते हैं; रोना शुरू कर देते हैं। रोना, बालकों का आधार है। वह निर्धनों का धन और निर्बलों का बल है । जहाँ मज़बूरी होती है, वहाँ तो रोने ही का एकच्छत्र राज्य होता है । और, क्या-क्या कहें, रोना, प्राणों का गायन है । मूकों की, वह, भाषा है। वह असहायों का श्राश्रय और हताशो की एक मात्र श्राशा है। मतलब की इस दुनिया में, रोना, सुरपुर का धन है। रोने से जब गीले आँसू टपटपाते हैं, कितने ही पाषाण हृदय तव गल कर पानी-पानी हो जाते हैं । साधनों के संसार में जब सोलहों श्राना दिवाला पड़ जाता है; चेक्सी की बदली सघनरूप से जब चारों और छा जाती है। [ ७१ ] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे - प्राणों को शिथिल बनाती हुई साहस और शंकाएँ जब भगदौड़ मचाने लगती है; ऐसे गाढ़ संकट में, हृदय का कोई सहारा जब नहीं रह जाता: रोना ही उस क्षण हृदय का हाथ श्रा कर पकड़ता है। वहीं, उस को दम-दिलासा बंधाता है। रुदन करनेवाले की कातर श्राशा, जव छलक छलक कर सिसकियाँ भरती हैं; रोने की तरल तरंगों में तब रन्द्रों का सिंहासन हिल जाता है। उसी क्षण इन्द्र श्राँसुश्रों की जंजीरों में वध पाते हैं। और, जब दुखिया के आँसुओं में इन्द्र स्नान कर लेते हैं, तव करुणा-भरी आँखों से देख कर, वे उस यात का सारा दुख हरण कर लेते हैं। माँ ने चालक को बहुत-कुछ समझाया-त्रुझाया । परवालहट ही तो थी। वह य मानने ही कर लगता ! निराधारमाता अव तक अपने को सँभाले हुई थी। अब तो उस के हृदय की वाँध भी टूट गई। उसे अपने गत-वैभव और गुज़रे ज़माने की याद हो आई । वह मन ही मन कह रही थी, " हाय! एक दिन वह था, जब मुझ से मट्ठा माँगने कोई पाता और मैं दूध उसे देती थी ! और, एक अाज हमारी दशा है ! चने थे, तव चवानेवाले नहीं थे और जव चवानेवाले हुए, तब चनों का कहीं पता नहीं। यह सब दिनों का फेर है।" अन्त में दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। पाड़-पड़ोसियों ने श्रा कर कारण की तहकीकात की। तत्काल ही उपाय ढूंढ़ निकाला गया। इधर-उधर से खीर का सारा सामान जुट गया। खीर वन गई । माँ ने बच्चे को पुकार कर, उसे परोस भी दी। इतना कर वह तो पानी भरने के लिए चल दी। पीछे से, एक आकस्मिक घटना घट गई । एक मुनि गो [७२] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेर-शालिभद्रजी चरी के लिए आये। उन के मान-स्त्रमन्ग के पारणे का वह दिन था। यालक अभी थाली के पास जा कर बैठा ही था । खीर अभी ठंडी हो रही थी। उस ने दूर ही सं मुनि को उधर पाते देखा । 'विनु हरि शमा मिलहि नहिं सन्ता।' दर्शनों से, उस के भावों को शुद्धि. अचानक हो गई। दौड़ कर वह मुनि के पास गया और उन्हें अपने घर पर बुला लाया । संगमने खीर के दो वरावर भाग करने के लिए. थाली में, अँगुली से एक रेखा कर दी । ग्वीर का प्राधा भाग मुनि के पात्र में बहराने के लिए उस न थाली उठाई और उस इंड़ली। परन्तु तरल पदार्थ होने के कारण वीर सारी की सारी मुनि के पात्र में जा गिरी । जिस खीर के लिए, उस ने इतना नाच-कृद मचाया भा, सब की सय मुनि को यहग देने पर भी, अब उसे सन्तोष था। पश्चात्ताप से इस समय वह बिलकुल पर था! उलटे, वह अपन भाग्य की सराहना कर रहा था। माँ भी इतने में वापस या गई। सरल हृदय माँ ने समझा, बालक बढ़ा ही भूखा था। सारी खीर खा चुका है। उसे फिर भी लेने के लिए पूछा। और, रही हुई खीर, बालक को परोस दी। 'सारी खीर खा चुका है, ' माँ की इस टोकार से, बालक के पेट में जोरों से दर्द होने लग पड़ा। वह धरती पर गिर पड़ा । और, दवादाम की बात होते ही होते, मछली की भाँति तड़प-तड़प कर मर भी गया। निर्धन माता के बुढ़ापे की वैशाखी टूट गई। श्राकाश उस पर फट पड़ा । संसार, अव उर्स के लिए सूना था। संगम, शरीर छोड़ कर, पुनः राजगृह के गोभद्र सेठ के घर, पुत्र के रूप में, पाया। सेट का घर, अमरावती के वैभव [७३] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे से, किसी भी कदर कम न था। लक्ष्मी तो, मानो उस के घर, दासी ही वन कर, अपना वोरी-चंडल डाले,श्रा रही थी। घर के फर्श में, ईंट और रोड़ों की जगह पन्ने लगे हुए थे। नवजात शिशु का नाम 'शालिभद्र' रक्खा गया । यौवन में बत्तीस कन्याओं के साथ उन का विवाह हुश्रा । गोभद्र सेठ श्रव स्वर्ग को सिधार गये थे। वहाँ से, वे स्वयं भी, अपने प्राण-प्रिय पुत्र की रही-सही इच्छाओं की पूर्ति में, जुट पड़े । अब तो देवता लोग भी उन के भाग्य को सराहते थे। दुख उन के लिए अव ढूढ़े भी कहीं नाम को न था। यूँ, दिन और महीने, वर्ष और युग, आनन्द-पूर्वक उन के कटने लगे। ___ एक दिन, रतजटित कम्बलों के व्यापारी राजगृह में आये । श्रेणिक राजा के राज-महलों में वे पहुँचे । राजा ने, रा. नियों के पास कुछ कम्बल, दिखाने के मिस भेजे । रानियों ने उन्हें पसन्द तो देखते ही कर लिये परन्तु खरीदना, राजा की मर्जी पर छोड़ दिया। एक-एक कम्बल की कीमत सवा लाख असर्फियों की थी। कीमत सुन कर, राजा के कान खड़े हो गये । व्यापारियों को यहाँ से बड़ी प्राशा थी। राजा के चेहरे को देख कर, वेचारों के चेहरों का नूर उतर पड़ा। उलटे पैरों वे वहाँ से लौट कर, नगर के बाहर एक धर्मशाला में, रात काटने के लिए, ठहर गये । व्यापारी कितना ही बड़े से बड़ा चाहे कोई हो; परन्तु खरीद और विक्री यदि उनके पास नहीं, तो उन का सारा वड़प्पन, ढोल के ढम ढम के समान खाली है; नक्कारे के नाद के समान ऊँचा तो है; पर है अन्दर से घुन लगे हुए गेहूँ के समान थोथा और पोला!वेचारेमन मारकर, सिर लटकाये हुए जा बैठे थे। करोड़ों की सम्पत्ति पास में [७४] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ-शालिभद्रजी होते हुए भी, किसी योग्य ग्राहक की फिराक में, वेचारे वाट के बटोही वे बने हुए थे । खाना-पीना और विश्राम, अाज उन के लिए, सव हराम था। जय तक संसारी-चल का मद, मनुष्य के मन पर शासन करता रहता है, कुदरत का कानून उस के पक्ष में नहीं होता। पर ज्योंही उस मद ने उस का साथ छोड़ा, कि उसे कोई न कोई अपने अवलम्बन का सुलभ मार्ग मिल ही जाता है। उसी समय, शांलिभद्र सेठ की दासियाँ, पानी भर लाने के कारण उधर से निकलीं। व्यापारियों को नत-मस्तक और शोक-ग्रसित देख, उन्हों ने उन की उदासी का कारण, उन से पूछा । " इस से तुम्हें कोई सरोकार ? अपना रास्ता नापो!" उत्तर में व्यापारियों ने कहा । इस पर, "श्राप लोग दूकानदारी करने निकले हैं ! इस में, मनुष्य जय तक, सब की दारी-दासी बन कर नहीं रहता, सफलता उस से कोसों दूर रहती है। ऐंठ और व्यापार का गठ-जोड़ा, किसने, कहाँ, और कव देखा सुना और किया है ?" दासियों ने कहा । व्यापारियों में से एक वृद्ध के हृदय को ये वाक्य तीर-से लग गये। वह चोला, " मानी तुम्हारी वात ! लो, सुनो! रलजटित कम्बलों के व्यापारी हम हैं । बड़ी-बड़ी श्राशाएँ वाँध कर, राजा श्रेणिक के पास, दूर से चल कर आये थे। परन्तु 'सुहावन ढोल लगती दूर की है, 'के नाते विक्री हमारी कुछ हुई नहीं । बस, इसीलिए हम उदास हैं। और कुछ नहीं।" ____ "बस, यही बात, और इतनी उदासी ! हमारे सेठ जी से भी तुम मिले हो ? उन से मिलने पर तुम्हें जान पड़ेगा, कि जितने भी कम्बल तुम्हारे पास अभी हैं, उतने ही तुम्हें और लाने [७ ] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेन 'जगत् के उज्ज्वल तारे पड़ेंगे। उस घर में, एक बार, जो भी आया, कभी विसुख हो कर नहीं लौटा । " दांसियों में से एक ने आगे बढ़ कर कहा । व्यापारी और चाहते ही क्या थे ! वे तो, ऐसे ही एक पारखी की खोज में, स्वयं ही थे । तुरन्त ही वे उठ खड़े हुए, और, दासियों के साथ हो लिये । सेठ के घर में घुसते ही, वे बड़े चकित हो गये । राज-प्रासाद से भी वह उन की आँखों में, अनोखा जँच पड़ा। परन्तु दासियों के द्वारा, यह जान कर कि भवन का यह भाग तो, सेठजी के दास-दासियों के रहने का है, व्यापारियों के अचरज का ठिकाना न रहा । वे आगे बढ़े । आगे चल कर, मुनीम- गुमाश्तों के श्रावासों के पास से वे गुज़रे । यहाँ का वैभव, उन्हें बड़े-बड़े महाराजाओं के वैभव से भी बीसियों गुना जँचा। तीसरी वार, वे सेठ की माता, भद्रा के भवन के पास पहुँचे । महल क्या था, मानो देव ही ने, विश्व के विशाल वैभव को एकत्रित कर, उस की अपने हाथों रचना की थी । वासियों ने माता को व्यापारियों का परिचय दिया । तब तो भद्रा और व्यापारियों के बीच नीचे की बात-चीत हुई: क्या चीज़ है ? " रत्नजटित कम्बल । कितने है ? 2:3 "यदि एक भी कम से कम थापने ले लिया, तो इस नगर में थाना हमारा सार्थक हुआ। क्योंकि प्रत्येक की क़ीमत, सचा बारा स्वर्ण मुद्राएँ हैं । 35 "श्रजी ! नील-तीस की बात तो मैं पूछती ही कहां हूँ। मैं [ ७६ ] 66 .. 33 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ-शालीभदजी पुँच रही हूँ गिनती और तुम बना रहे हो मोल-तौल ! मुझे इतना समय नहीं।" " सोलह ।" "मुझे तो बत्तीस की जरूरत थी । और ! मुनिमजी, इन्हें चीस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दे दो। गिनोगे कहां तक,तोल ही दो।" - व्यापारी, भद्रा की सम्पत्ति, उदारता, और अध्यवसाय . के आगे नत-मस्तक हो गये । भद्रा और दासियों का एहसान उन्होंने माना । तब अपने घर को वे लौट पड़े। भद्रा ने अपनी सोलह बहुओं में उन कम्बलों को चांट दिया । सामूजी के वात्सल्य प्रम के कारण, बहुओं ने एक दिन तो ज्यों-त्यों करके उन्हें श्रोढ़ा। परन्तु दूसरे दिन, मकान के पिछले भाग के मार्ग स, राह में, शरीर पोंछ कर, वे फेंक दिये गये। सेट की मेहतरानी ने उन्हें उठा लिया। वही,राजप्रासाद की भी मेहतरानी थी। एक दिन एक कम्बल अोढ़कर मेहतरानी, राज मन्दिर के इहांत को झाड़ रही थी, कि इतने ही में महारानी ने उसे देख लिया। महारानी ने उसे अपने पास बुलाया । कम्बल, उस प्राप्त कैसे हुया, पूछ-ताछ की। महारानी को स्यामिक रूप से डाह हो पाया । दौड़ी और राजा के पाम बहाई शालिभद्र की सम्पत्ति की सराहना उसने की। अपने भाग्य को कोसते हुए, एक कम्बल तक राजा से न रखरीदा गया, यह बात कह कर कर, राजा को लानत-मरामत भी उस ने यथा-शक्ति की। एक पोर तो, उस कम्बल का अपार मोल: और, दृसरी ओर एक ही दिन में, सेठानियों के द्वारा, अपने पास के कम्बलों को उतार कर फेंक देना; [७७ ] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे मेहतरनी के द्वारा उन कम्बला का उठाया जाना; श्रादि बातों भे राजा के सिर को मन्दा कर दिया । राजा ने शालिभद्र से मिलने की मन में ठानी । सेटजी को बुलाया गया। परन्तु भद्रा ने,-" मेरा पुत्र किसी से मिलता-जुलता नहीं है। राजा चाहे, तो मैं उपस्थित हो सकती हूँ।--यादि बात कह कर, सन्देश-वाहक को टाल दिया। यह जान कर, राजा स्वयं ही शालिभद्र से मिलने के लिये आये। भद्रा ने उन का उचित स्वागत किया। सेठ के महल को देखते ही, राजा के अचरज का ठिकाना न रहा । पने जड़े हुए फर्श में, पानी भरा हुआ समझ कर, अपनी अँगूठी राजा ने वहां डाल दी । परन्तु पानी तो वहां था नहीं। आवाज़ करके वह उछल कर कहीं जा गिरी। उसे ढूँढने के लिए उन्होंने उधेड़-बुन मचाई । भद्रा ने यह जानकर, तुरन्त ही दासियों के द्वारा, बहुमूल्य हीरों की अँगूठियों का एक थाल भरवा कर मँगयाया; और, उसे राजा की भेंट कर दिया। यह देखकर, राजा सिटपिटा-गये। ___ भद्रा ने राजा को उचित श्रासन पर विठा कर, पुत्र को ऊपर से बुलाया। सेठजी ने ऊपर ही से उत्तर दे दिया, कि"मां, यदि 'श्रेणिक' नाम की कोई वस्तु आई है, तो तुम खुद ही उसे ले लो। मोल-तौल में मैं तो कुछ समझता भी नहीं हूँ।" इस पर माता ने फिर कहा, "नहीं, वेटा!'श्रेणिक' खरीद की कोई चीज़ नहीं है। यह तो अपने नरेश का नाम है। ज़रा, नीचे आकर मिल इनसे अवश्य लो।" शालिभद्र का, यह सुनकर, माथा ठनक उठा । पर आज्ञा माता की थी। वे उसे टालना भी नहीं चाहते थे। अपनी करणी को भी, [७ ] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ-शालिभद्रजी अभी उन्होंने अधूरी समझी। अभी भी उनका कोई राजा चना हुआ है, यह बात तो, उन्हें शूलों की सेज से भी अधिक श्रखरी । नीचे पाते ही, राजा ने उनका सिर चूमा । और, अपनी गोदी में उन्हें बिठा लिया । राजा से एक-दो बात कर, चे पुनः ऊपर चले गये । ऊपर जाकर, उन्होंने मन में निश्चय किया कि अब के.ई ऐसी करणी की जाय, जिससे अपने सिर पर 'नाय बनने का कोई दावा ही कभी न कर सके। मनुष्य अपनी भावनाओं का पुतला है । जैसी भीभावनाओं को वह रोज बनाता है, स्वयं वह वैसा ही बन जाता है। विचरत-विचरते, भगवान् चीर प्रभु, उन्हीं दिनों, उधर श्रा निकले । शालिभदजी को भी भगवान के अमृतोपम उपदेश के श्रवण का अवसर मिल गया। उनके भावों की भूमि, पहले सं शुद्ध और उर्वरा बन ही चुकी थी। सिर्फ प्रभु के पावन उपदेश-रूपी बीज कन-भर की देर थी। अपनी अटूट सम्पत्ति और प्यारे परिवार से, सेठजी ने, उसी क्षण नेह नाता छिटका दिया। और, प्रभु के पास जाकर, दीक्षित हो गये। दोर्घ काल तक सयम व्रत का अनुष्टान वे करते रहे । अन्त में, संथारा उन्होंने लिया। तब 'सवार्थ-सिद्ध' नामक विमान में, वहां से पक भव और विता कर, मोक्षधाम के अधिकारी चे बनेंगे। __यौवन, सम्पत्ति, अविवेक और अधिकार के चतुर्विध संघ में से एक भी जहां होता है, नाश की आशंका निकट रहती है। जब ये चारों साथ होते हैं, तब तो सत्यनाश की बात दूर रह ही कैसे सकती है ! परन्तु कर्म की रेख में मेख मारने वाले विरले जन ऐसे भी होते हैं, जो अपने शुभ कर्मों के संयोग से, इनका सदुपयोग कर, सदा के लिए श्रमरात्म-कल्याण के अधिकारी [७६] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे वन जाते हैं। सेठ शालिमद्रजी उन्हीं महान् आत्माओं में से एक थे। ऐसे नर-रत्नों को पाकर, जाति, समाज, राज्य और देश का सिर सदा उन्नत रहता है। वे मनुष्य-समाज का गौरव और अभिमान की वस्तु होते हैं। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढंढ-मुनि बाईसवें तीर्थकर भगवान अरिएनेमि के समय, द्वारिका में श्रीकृष्ण वासुदेव महाराज का राज था। ढंढण-कुमार उन्हीं के पुत्रों में से एक थे। अपने पूर्व भव में ये एक भरे-पूरे खेतिहर थे। उनके घर अनेकां नौकर-चाकर थे। एक दिन, उनके पाँच सौ नौकर, अपने तथा बलों की विश्रान्ति कासमय जान, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे हल चक्खल को खेतों में रख, बैलों को छोड़ने लगे । परन्तु उनके मालिक के कहने पर, एक चाँस और खींचना पड़ा। यूँ, पाँच सौ हलो पर के पाँच सौ पुरुषों और एक हजार वैलों को, विश्रान्ति के समय, कुछ देर के लिए, अन्तराय उन्होंने दिया। उस भव की अपनी जीवन-यात्रा को पूरी कर, वे ही कृपिकार, महाराज श्रीकृष्ण वासुदेव के घर, पुत्र रूप में श्राये । भगवान् के उपदेश से, एक दिन, अपने यौवन-काल में, उन्हें वैराग्य हो पाया। जिसके कारण, दीक्षित वे हो गये। तब से कुमार ढंढण, संयम-शील व्रत-धारी मुनि बन कर, इधरउधर विचरण करने लगे। अपने दीक्षा के पहले दिन ही से, अपनी ही लब्धि के भोजन तथा पानी को ग्रहण करने का अभिग्रह उन्होंन धारा किया। तदनुसार, वे नित्य गोवरी को जाते । परन्तु अपने पूर्व भव के घोर अन्तराय कर्मों के संयोग से, जहाँ भो य जाते. विमुख होकर ही, वहाँ से, लौटना इन्हें पड़ता। एक दिन, अन्य मुनियों के साथ, गोचरी को ये गये। इनके कारण, दूसरों को भी, उस दिन, कहीं से भी प्राहार-पानी नहीं मिला। तव तो अन्य मुनियों ने, अपने साथ, गोचरी में कभी न जाने के लिए, इन से कहा। उसी दिन से, अपने अन्तराय कर्मों को अत्यन्त कठोर समझ कर, और भी कड़े अभिग्रह को धारण उन्होंने कर लिया। अब तो अन्य मुनियों के द्वारा लाये हुए अन्न-पानी को भी ग्रहण करना उन्होंने छोड़ दिया। तब से अकले ही, वस्ती में, गोचरी के लिए वे जाते। दो-दो, चार-चार घण्टे तक लगातार घूमते । परन्तु अन्तराय कर्मों की प्रचण्डता से,अपनी ही लब्धि का अन्न-पानी इन्हें कहीं न मिलता। यूँ, एक-एक [२] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंड-मुनि - कर के, कड़ाके करते-करते मुनि को छः मास चीत गये । एक दिन छः मास के अन्त का दिन था । मुनि, सूख कर काँटा बन गये थे । परन्तु तपोतेज से मुनिं का चेहरा और भी भव्य वन गया था । गोचरी के लिए द्वारिका में वे गये। 1 उसी दिन महाराज श्री कृष्ण वासुदेव ने भगवान् से उन के अठारह हजार मुनियों में से, कठोरतम तपोधनी, श्रर उसी दिन कैवल्य ज्ञान को प्राप्त करनेहारे मुनि का नाम-धाम पूछा। उन्हीं के संसारी पुत्र, इंद्रग-मुनि की बात भगवान ने बताये | इस पर महाराज कृष्ण वासुदेव, श्रानन्द के मारे चाँसों उछल पड़े। उनके दर्शनार्थ, भगवान के सम्मुख अपनी इच्छा उन्होंने प्रकट की । भगवान के बताये हुए पथ पर, तुरंत ही गजारूढ़ हो, वे चल भी दिये । मार्ग ही मैं, मुनि के दर्शन उन्हें हो गये । एकाएक हाथी से नीचे वे उतर पड़े । विधिविधान सहित मुनि का चन्दन उन्होंने किया । तत्र महाराज श्री कृष्णजी अपने महलों में पधारे, और, मुनि ने अपना मार्ग पकड़ा। इसी घटना को एक सेट ने अपनी श्रांखों से देखा । श्री कृष्ण वासुदेव जैसे प्रचण्ड प्रतापी महाराजाओं से चन्दनीय मुनि की निरख श्रात्मार्थी, मुनि के प्रति, सेठ के हृदय में श्रद्धा का सागर उमड़ पड़ा। तब तो बड़े ही प्रेम से वह अपने घर मुनि को ले गया। उन्हें मोदक उसने चहराये। श्राज तक कठोर अन्तराय कर्मों के द्वारा, मुनि की परीक्षा हो रही थी । श्रव समय ने पलटा खाया। मुनि स्वयं ही, श्राज श्रपने कठोर कमों की जाँच करने के लिए, मैदान में उतर पड़े। भगवान् के पास उन लड्डुओं को लेकर वे पहुँचे । वे बोले, "प्रभुवर ! श्राज छः मास से तो एक चना तक गोचरी में [३] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन 'जगत् के उज्ज्वल तारे मुझे नहीं मिला और श्राज ये मोदक मुझे प्राप्त हुए हैं । कहिये, ये मेरी स्वयं की लब्धि के हैं, या नहीं ?" " वत्स ! यह तो महाराज श्री कृष्ण की बन्दना का कारण है । तेरी लब्धि का यह फल नहीं ।" यह सुन कर भी, मुनि का मन ज़रा भी मैला न हुआ। आज पूरे छः मास, कड़ाके करते-करते, उन्हें वीत चुके थे। अभी तक उनके भाव भी कुन्दन के समान शुद्ध और चमकीले निकल चुके थे । उन्हीं लड्डुओं को ले, पास की निर्दोष भूमि पर, उनको चूर कर वे पटकने लगे। मुनि के द्वारा, उन लड्डयों का चूरना, सचमुच में श्रपने ही घनघाती कर्मों को चूरना था | आज भगवान् ही की कृपा से, अपनी प्रतिज्ञा के कठोर मार्ग से पतित वे न हो पाये। यही विचारविचार कर, अपने भाग्य की सराहना वे करते जाते थे । प्रति पल, प्रभु के प्रति, वे अपना आभार प्रदर्शन करते हुए, बीचबीच में अपने आप को अनेकों बार वे धिक्कारते भी जाते थे, कि जन्म-जन्मान्तरों में, इस जीव ने अनेकों प्रकार के खाद्य और पय पदार्थों का सेवन किया है; परन्तु अघाया यह श्राज तक भी नहीं है । यूँ, लड्डुओं को चूरते चूरते, अपने सम्पूर्ण घन घाती अन्तराय कर्मों का अन्त भी मुनि ने कर दिया उसी क्षण, कैवल्य ज्ञान ने उन का हाथ श्रा पकड़ा। वस, मुनि को अपनी कठोर तपस्या का फल मिल गया। अन्त में कैवल्यधाम को वे सिधारे । कैसे ही कठोर -तम घनघाती कर्म क्यों न हो । तप के वल, सच का एकान्त अन्त किया जा सकता है। यही कारण है, कि तप की महिमा, सभी धर्मों और शास्त्रों ने मुक्त कंठ से गाई है । परन्तु यह तप हमारा सात्त्विक होना चाहिए । [58] " Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी राजा पंजाब की सीमा पर, लगभग सत्ताईस सौ वर्ष पहले, सिताम्बिका [पेशावर] में प्रदेशी राजा राज करते थे। उनकी रानी ' सूर्य-कान्ता ' थी और पुत्र 'सूर्य-कान्त-कुमार। 'दया' क्या चीज़ होती है, यह वात, राजा कदाचित जानते भी न थे । वे कट्टर नास्तिक थे। अात्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप स्वर्ग-नर्क, आदि को भी, वे कोरी कवि-कल्पना ही मानते थे। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल नारे चलते हुए मनुष्यों को, अपने मनोरंजन के लिए, ग्वटमल-पिस्प की भाँति, पीस देना, यह तो उनके बायें हाथ काल-सा था। उन का हृदय पापाण से भी अधिक कठोर और तलवार से भी अधिक तीखा था। चित्तजी' इन्हीं के बड़े भाई, और राज्य के प्रधान मन्त्री थे। श्रावस्थि [भ्यालकोट] के गाजा 'जित. शत्रु' उन दिनों, प्रदेशी के एकमात्र अभिन्न मित्र थे । राजाप्रदेशी ने, एक बार अपन मंत्री को, कुछ बहुमूल्य यन्तुग दे कर, जित-शत्रु के यहाँ भेजा। संयोगवश, केशी-श्रमण नामक निर्गन्ध मुनि भी उन दिनों वहीं विराजे हुए थे। मुनिक उपदेश की चारों श्रोर बड़ी धूम थी । उस को श्रवण करने के लिए, यही कारण था, कि जनता बरसाती नदियों की भाँति उमं पढ़ती थी। मन्त्री को भी अनायास ही यह मौका मिल गया । 'गजा कालस्य कारणम्' के अनुसार, नास्तिकवाद ने इन से भी अपना नेह और नाता जोड़ रखा था । परन्तु लगातार क मुनि के उपदेशों ने मन्त्री की मनोवृत्ति को बदल दिया । अब से शास्तिकवाद के अनुयायी वे बन गये ।मुनि से गृहस्थ धर्म को भी मन्त्री ने धारण कर लिया। साथ ही, "सिताम्बिका में, यदि मुनियों का श्रागमन हो जावे, तो कट्टर नास्तिक राजा के जीवन को भी, सुपथ की ओर लाया जा सकता है ," ऐसी प्रार्थना भी, मन्त्री ने, विनीत-भाव से, मुनि के धागे की ! तब मन्त्री सिताम्बिका को लौट गया। नवनीत बड़ा ही स्निग्ध, स्वादिष्ट और हितकर होता है; परन्तु अपने ही ताप से वह तप जाता है। सन्त-हृदय उससे भी अनोखा होता है । वह तो परायों के ताप ही से दिन-रात तपता रहता है ।प्रदेशी के परलोक को सुधारना, मुनि ने [८] Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदशी राजा अपना ध्येय बना लिया था। अतः विचरण करते-करते एक दिन वे सितम्बिका भी जा पहुँचे । बाग में निवास उन्होंने क्रिया । जनता, मुनि के दर्शनार्थ उमड़ी। मन्त्री को भी सन्देश मिला । वायु-सेवन के मिस, राजा को साथ ले कर. उधर ही से एक दिन मन्त्री निकले । मुनि के उपदेश का भी वही समय था।" यह हुल्लड़ कैसा?" राजा ने मन्त्री से पूछा। मन्त्री ने, “ये निग्रन्य मुनि हैं । स्वर्ग-नर्क, श्रादि में इन की आस्था है: "बदले में राजा से कहा। "जिस बात का अस्तित्त्व ही जब कुछ नहीं, तो होना तो सम्भव उस का हो ही कैसे संकता है ? क्या अपनी पूछी हुई बातों का उत्तर, उचित नप से मुनि दे सकते हैं ? " कहते हुए राजा, मन्त्री को ले कर, मुनि के पास गये। तब राजा और मुनि के बीच, नीचे की बात-चीत हुई "क्या, स्वर्ग और नर्क बाप की समझ में कोई वस्तु है ? यदि हाँ, तो मेरे दादा, मुझ ले भी अधिक पापी, आप की मानता के अनुसार थे, अवश्य ही नर्क में गये होगा और, भाँति-भांति की नारकीय यातनाओं को भोग रहे होंगे: क्यों नहीं प्राकर अपने पोते, मुझे पाप से पराङ्मुख कर देते हैं ?' ___ "अपनी रानी के साथ, किसी पुरुष को कुचेष्टा करते हुए यदि तुम देख लो,तो कहो, उस समय तुम क्या करोगे ?" "उसी क्षण, मैं उसे तलवार की घाट उतार दूंगा" "यदि अपने कुकृत्य का फल अपने कुटुम्बियों को सुनाने के लिए, एक मिनिट की भी छुट्टी वह चाहे, तो क्या, तुम उसे जाने दोग?" [ ७] Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे "छुट्टी देना तो बहुत परे की बात है। उस की ज़वान पर ये वोल तक मैं न देख सकूँगा। उसी क्षण, मैं उस का काम तमाम कर दूंगा।" " राजन् ! जब एक ही अपराध के करने पर, अपने अपराधी को एक मिनिट भर के लिए छोड़ना तुम्हें मंजूर नहीं है, तव तुम्हारे दादा ने तो कई पाप किये हैं। नर्क में से उन्हें तो फिर यहाँ श्राने ही कौन देगा? . “अच्छा महाराज, दादा की बात छोड़िये । मेरी दादी तो श्राप ही के समान धर्म का पद-पद पर पालन करती थी। आप की भावना के अनुसार, अवश्य ही वह तो अमर-लोक में गई होगी। उसे तो वहाँ से छुट्टी भी मिल सकती होगी। तव वही क्यों न मुझे पाप करने से हटक देती ?" " राजन् ! कोई मनुष्य नहा-धोकर सन्ध्या-चन्दन श्रादि शुभ कृत्य के लिए, यदि जा रहा हो, उस काल, एक मेहतर पाखाने में बात-चीत करने के लिए उसे बुलावे, तो क्या, वह वहाँ जाना पसन्द करेगा?" ___ "कदापि नहीं, महाराज !" ___" यही हाल, वस, तुम अपनी दादी का भी समझो, राजन् ! फिर, यहाँ के कई युग और वहाँ के कुछेक क्षण, वरावर होते हैं । वह आवे-श्रावे, इतने में तो, यहाँ वालों की कई पीढ़ियाँ वीत जावेगी । तव स्वर्गस्थ-पात्मा आकर यदि कहे भी, तो किसे ओर कैसे ?" " इस विवाद को भी, अच्छा महाराज ! यहीं छोड़िये । . एक अपराधी को मैं ने मार कर, लोह-निर्मित एक मज़बूत [८८] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशी-राजा कोर्टी में बन्द कर दिया था। थोड़े ही दिनों के बाद खोल कर देग्नने से. उस पर असंख्य कांड़ लिपट हुए मिले । वे, बताइये, किस मार्ग से हो कर, वहाँ पहुँचे?" "राजन् ! लोहा गर्म करन पर लाल-मुर्ख हो जाता है। बनायो, यह पाग उस में किस पथ से हो कर प्रवेश कर गई ? "अच्छा मुनिराज, इसे भी यही रखिये । हाथी की अात्मा, चीटी में प्रवेश केस कर पाती है, यही बता दीजिये।" "किसी कमरे में पक दीपक जलता है । सारा कमरा प्रकाश पूर्ण उस से रहता है। श्रब एक वर्तन उस पर ढाँक दो । वन, उसी क्षण, तुम देख पायोगे, कि सारे कमरे का प्रकाश, पक-मात्र उसी वर्तन के अन्दर या ठहरता है। इसी तरह हाथी की आत्मा के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए।" "क्या, श्राप हम श्रात्मा के दर्शन करा सकते हैं ?" " राजन ! बतायो, तुम्हारे सम्मुख, जो वृक्ष है, उसके पत्तों को कौन हिला रहा है." " वायु।" "क्या, वायु को तुम देख सकते हो ?" "नहीं, उसे तो कोई भी देख नहीं सकता।" " जब ऐसे स्थूल पदार्थ तक को देखने में, संसारी आँखें असमर्थ हैं, तो अरूपी श्रात्मा का तो देख ही कब और क्यों सकती है?" यो, अनेकों प्रकार का वाद-विवाद राजा और मुनि के बीच हुया । राजा ने अन्त में हार मानी। उसी क्षण उस के [६] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे भावों की दिशा बदली। राजा ने, श्रावक-धर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया । श्राज से राज्य की श्रामदनी का एक चौथाई भाग, अनाथ और अपाहिजों के अर्थ खर्च होने लगा । धर्म में अभिरुचि उन की दिनों-दिन बढ़ती ही गई । अब, धर्म उनके प्रत्येक व्यवहार और व्यापार की वस्तु थी । राज-पाट और राज-परिवार से भी व धीरे-धीरे उन का मोह कम होता जाता था । विषयान्द के कीड़ों को पारमार्थिक बातें हलाहल विष के समान लगती हैं । रानी का राजा की ये हरकतें चड़ी ही खरी । उस ने सोचा, "अव राजा न तो राज-कार्य मैं ही मन लगाते हैं; न शासन-सूत्र ही मेरे पुत्र के हाथों देते हैं; और, न मेरी ही सुधि व वे लेते हैं । इस से तो यही श्रेयस्कर है, कि राजा को भोजन में ज़हर देकर, रोज़ की इस खट-खट का खातमा सदा के लिए कर दूँ । " रानी ने अपने मनसूबे को कार्य का रूप देना निश्चित कर लिया । उधर, राजा अपने श्रावक-धर्म का यथा विधि पालन कर रहे थे । अव तक वारह चेलों की तपश्चर्या वे कर चुके थे । तेला की तपश्चर्या उन्हों ने शुरू की थी । पारणे के दिन, हलाहल विष - युक्त भोजन रानी ने उन्हें दे दिया। इस बात का भेद भी उन पर प्रकट हो गया । रानी की कुत्सित करणी के लिए, फिर भी, रंच - मात्र तक द्वेष उन के दिल में न आया । इस के विपरीत, क्षमा-भाव को धारण. करते संथारा- उन्हों ने ले लिया। एक ही जन्म के बाद मनुष्य योनि हुए, समाधिमें पुनः आने, और उस के द्वारा श्रात्म-कल्याण कर, मोक्षधाम को सिधारने के हेतु, यहाँ के लोक की लीला-संवरण कर, सूर्याभदेव के रूप में जा कर के वे पैदा हुए । [ 80 ] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयति राजा अाज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले, कम्पिल नगर के महाराज 'संयति' एक बड़े ही विशाल राज्य के स्वामी थे। नाम तो इन का संयति था; परन्तु काम उनके एकदम विपरीत थे। अर्थात् अपने नाम के नाते, प्राणी-मात्र की रक्षा करने के बदल, प्राणियों का, खल-ही-खेल में, प्राण हरण करना ये अपना राज-धर्म और राज पद की प्रतिष्टा की शान सम Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे झते थे। रात दिन शिकार में रत चे रहते । क्षत्रिय हो कर भी, अभय-दान वे किसी को न देते थे । साथी भी इन के परले दर्जे क खुशामदी और स्वार्थी थे। प्रीति तो उन की राजा और राज्य दोनों में भी ; पर थी वह भय के कारण । थोड़े में, 22 66 सचिः, वैद, गुरु, तीनि जो; प्रिय बोलहिं भयन्यास | राज, धर्म, तन तीनि कर; होड़ वेगही नाश ॥ वाले सारे साधन वहाँ था जुटे थे । वे सदैव ठकुर सुहाती बातें राज को कहते । श्रतः सत्य से, राजा, कोसों दृर थे । एक दिन संयति सैर-सपाटे को निकल पड़े। जंगल में प्रवेश करते ही, एक हिरन का पीछा वे करने लगे। बेचारा हिरन प्राण छोड़ कर भागा। श्राखिरकार, केशरी नामक वन में घुसते घुसते, राजा ने उसे तोर मार ही दिया | काल के मुँह में जाकर भी, प्राणी, प्राणों की रक्षा ही का उपाय सोचता है । हिरण वाण-विद्ध था । तव भी दौड़ता गया । और भागते-भागते, तपोधनी गृद्धभाली मुनि के स्थान पर, जहाँ वे ध्यानस्थ खड़े थे, धड़ाम से धरती पर गिर कर उस ने अपने प्राण छोड़ दिये । संयति के भी संस्कार श्राज वदलने वाले थे | वैसे ही समय, साधन और साथी उसे श्रा मिले । राजा तो हिरन के पीछे पहले ही से लपक रहे थे। मुनि के निकट मरा पड़ा उसे देख मुनि का पालतू मृग उसे माना । अब तो ऋपिवर के श्राप की श्री शंका कर, एड़ी से पैर तक 3 अनेकों प्रकार के पसीना उन के श्रा गया । इस के लिए, , आत्म- धिक्कार के शिकार भी वे कृत अपराध की क्षमा के लिए पड़े। मुनि के निकट जा मन ही अश्व की क्षमा-याचना भी [ २ ] मन वने । अपने पीठ से वे उतर उनने की । परन्तु Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयति राजा मुनि टस से मस भी न हुग । क्योंकि, ये ध्यान-मग्न थे। नव तो राजा, मुनि के पूर्ण श्रावश की आशंका कर, और भी ययग उठे। जान-वृझ कर काल को श्रामंत्रित करने की बात, उन के सम्मुन्न बार-बार अपना ताण्डव नृत्य दिखाने लगी। इतने ही मुनि ने अपना ध्यान ग्योला । वे राजा से बोले" राजन ! इंग नहीं। मग पार से तुम्हें अभय रहना चाहिए। मुझे देगा, जिस प्रकार भय तुम्हारे मन में घुस बेटा है, तुम्हारे बन में प्रवेश करने ही. सम्पूर्ण वनले पशु भी, टीक उसी प्रकार भयभीत हो उटते हैं । मेरे द्वारा अभय-दान से जिन प्रकार तुम्हें मुम्ब पहुँचा है. वैसे ही. तुम भी सम्पूर्ण वनचरों को श्रमय-दान प्रदान कर, सदा के लिये, मुखी उन्हें बना सकते हो । गजन् ! ये सारे गट-पाट यहीं के यही घरे-पट्ट रह जायेंगे। क्योंकि, जीवन अनित्य है; क्षण-भंगुर है: चपला के नमान चंचल है। हिंसा और राज्य की यह श्रासहिता, तुम्हें और भी चौपट्ट किये दे रही है । कभी परलोक का विचार भी करते हो, या नहीं ? जगत् के सम्बन्ध, सम्पत्ति, और मुग्य का परलोक से ज़रा भी सम्बन्ध नहीं है। " परम नयन्वी मुनि के अश्रुत पूर्ण वचनों को सुन कर, राजा के विचारों में एकाएक ग्बल-बली मच गई। उन्हें अपने संसारी ऐश्वर्य, नुम्ब, और संघातियों का, अभी तक, बड़ा ही थभिमान था। परलोक के सम्बन्ध में व श्राज तक वे खबर थे। संसार से उसका मन फिर गया। अच्छे काम में देर करना उन्होंने अपराध समझा। अपने नाम को सार्थक करते हुए, तब तो उसी जग, व संयति राजा से, संयति मुनि बन गये। यत्र-तत्र विचरण वे श्रय करने लगे। [ ३] Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे समानुपात के द्वारा, उन की सम्पत्ति का हिसाव लगाया जा सकता है वीर प्रभु के उपदेशों का क़गरा असर उन पर पड़ा। अपने बड़े पुत्र को सारा अधिकार सांप, गृहस्थ-धर्म को अंगीकार उन्हों ने कर लिया । और, प्राण-प्रण से उस के पालन का प्रयत्न वे करने लगे । श्रव धर्म उन का था और वे धर्म के । उन के रोम-रोम से धर्म की ध्वनि निकलती थी । चंड़-वंड़ देवताओं तक को, उन्हें अपने धर्म से डिगा ने को हिम्मत नहीं होती थी । संसार अनादि है । श्रनादिकाल से सज्जनों को स्वर्णपरीक्षा यहाँ होती आई है । परन्तु होती वह उन को कुन्दन चनाने के लिए है । कामदेवजी को भी इस तंग घाटी में से हो कर निकलना पड़ा | चतुर्दशी का दिन था । पोपधशाला में, पौध-व्रत को धारण कर, कामदेवजी ध्यान में मग्न हो रहे थे। आधी रात का समय हुआ । एक मिथ्यात्वी देव ने, भयंकर पिशाच का रूप धारण कर, कामदेवजी की अग्नि परीक्षा, उस समय, करना चाही । भाल पर उस के सलवट पड़ी थीं। दाँत को कड़कड़ाते हुए, लपलपाती दुधारी तलवार को हाथ मैं ले, वह उन के सम्मुख आ खड़ा हुआ । और, चोला, "कामदेव ! मोक्ष के लिए धर्म की आराधना तेरी बड़ी ही सराहनीय है । प्राण रहते इस का पालन करना, तेरा कर्तव्य भी है । परन्तु आज यदि तू अपने पथ से न डिगा, तो इस लपलपाती हुई विकराल तलवार के घाट तुझे मैं उतार दूँगा । परन्तु धर्म-प्राण कामदेवजी के लिए, यह धमकी कुछ भी न थी । मचले हुए चालक की माँग से उस का मोल ज़रा भी अधिक, उन के लिए, न था । वे अपने ध्यान में अडिग थे । 1 . [ ६६ ] --- Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे ** *:-Res - " .. . - -roman -MAuN . . . -. % :.4RT. OTA hi A damaAREERRORATORRERefe-trategort कामदेवजी को जैन धर्म से पतित करने के लिये देवता भयंकर रूप धारण कर तलवार से उनके अङ्गोपाङ्ग का खंडन कर रहा है। Page #112 --------------------------------------------------------------------------  Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सुःश्रावक कामदेवजी उन्ह निश्चिन्त श्रीर निश्चल जान, वह उन पर टूट पड़ा। टुकड़े-टुकड़े, उन के उस ने बात की बात में, कर दिये। कामदेवजी ने हंसत-हसत उस प्राणान्तक परिपह को सह लिया । यह सब कुछ उन्हें सहन था। परन्तु धर्म को छोड़ना, उन के गृहस्थ-धर्म को तीहिन थी। अपन सत्य-धर्म के प्रबल प्रताप से, उस कर-कमां देव ने कामदेवजी को पुनः अपने पहले ही रुप में, वहाँ देखा । अब तो उस के क्रोध का पारा और भी बढ़ गया था। इस बार मत्त मातंग का रूप उस ने धारण किया। और, कामदेव जी का काम तमाम करने के लिए,उन की ओर लपक पड़ा । सँड से उन्हें घर-पकड़ा; और श्राकाश की ओर, बहुत, ऊंचे पर, उन्हें फेंक मारा। गिरते-गिरते उन्हें अपने बड़े ही पैने दन्त शलों पर उन्हें भेला । यो, उन क शरीर को छिन्न-भिन्न कर, पैरों तले उन्हें सेंध मारा। इस से उन्हें जो भी असहा वेदना हुई । परन्तु कट-सहिप्णुता ने उन की काया का साथ न छोड़ा। उन का निश्चय सागर के समान गम्भीर था। हिमालय के समान वह अटल था। श्रीर, मन्दराचल के समान वह गुरु था। कुछ ही देर के याद, ये अपने स्थान पर ज्यों के त्यों बैठे थे। यह देख, काल के समान विकराल, वह देव अव बन गया। उग्र-विपधारी सर्प का रूप उस ने धारण किया। कामदेवजी के सीने पर वह चढ गया । एक विषैला डंक उस ने उन्हें मारा। वेदना भी इस से उन्हें असीम हुई । फिर भी,धर्म को छोड़ने के लिए तो वे स्वप्न में भी तैयार न थे। उस मित्था [६ ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे 3 स्वी देव ने कुछ ही क्षणों के बाद, कामदेवजी को फिर वैसे ही स्वस्थ देखा, जैसे कि वे पहले थे । यों, एक के बाद दूसरा, और दूसरे के बाद तीसरा, कई सहा वेदनाएँ, उस वन उन्हें दी । परन्तु कामदेवजी अपने प्रण के पथ से एक तिलेभर भी विचलित न हुए। क्योंकि, वे खरा सोना थे । ज्यों-ज्यों तपाये वे गये दूनां दूनी दमक उन के चेहरे पर श्राती गई । अन्त' में, कुन्दन हो कर, वे जगत् के सामने श्राये । देव की दुष्कृतियों का दीवाला खसक गया । उसने अपनी हार मान ली। उसे स्वीकार करना पड़ा, कि " कामदेव दृढ़-धर्मी और प्रतिज्ञा- वीर हैं। मैं तो हूँ ही किस वाग की मूली ! स्वयं इन्द्र, देवराज इन्द्र भी कामदेव को अपन धर्म-पथ से भ्रष्ट करना चाहें, तो वे कर नहीं सकते । " तब तो अपना दिव्य देव-रूप उस ने प्रकट किया। और बोला, "कामदव ! तुम मनुष्यजाति के गौरव हो । तुम्हारा नर-देह सफल है। धर्म-धारी कोई हो, तो तुम्हीं जैसा। संकटों का पहाड़ तुम पर टूटा केन्तु एक इंच भी अपने पथ से तुम न डिगे । राकेन्द्र ने एक दिन भूरि-भूरि प्रशंसा तुम्हारी की थी। उसी समय, तुम्हारी दृढ़ता मैं मुझे सन्देह हुआ। उसी मन मलीनता स अग्नि परीक्षा आज मैंने तुम्हारी ली। परन्तु वह तुम्ही थे, जो उस में सफल हो पाये। नहीं-नहीं, सर्व प्रथम जो ठहरे। " अन्त में, देव ने अपने कृत अपराध के लिए बार-बार क्षमा-याचना, कामदेवजी से की। और, अपने स्थान को वह लौट पड़ा । कामदेवर्जी निरुपसर्ग हुए। भगवान् महावीर भी उन दिनों वहीं पधारे हुए थे। अपने पौषध-व्रत से निवृत्त हो, कामदेव जी, भगवान् की शरण में पहुँचे । धर्म-कथा के उपरान्त, सर्वश [] Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुश्रावक कामदेवजी भगवान् ने विगत रात में जो-जो घटनाएँ कामदेवजी पर घटीं, सब की सब कामदेवजी को कह सुनाई। फिर प्रभु ने समस्त साधु-साध्वियों को, जो वहाँ मौजूद थे, चुलाया । " गृहस्थ-धर्म में रहते हुए भी, श्रसह्य और असीम कट को कामदेवजी ने सहन किया हैं । यह सब कुछ हुआ । परन्तु धर्म को रंच मात्र भी इन्होंने नहीं छोड़ा। सभी गृहस्थों को ऐसे ही श्रादर्श मार्ग का अनुसरण करना चाहिए | साधु-साध्वियों का तो यह प्रधान कर्तव्य है ही । " श्रादि बातों को, सब के सम्मुख, प्रभु ने कही। सर्वय भगवान् की थाना को लोकोपकारक और भव-भय-विदारक मान कर, सभी ने एक स्वर से उसे श्रृंगीकृत किया । यूँ कामदेवजी काल-यापन करते हुए, अन्त के समय, एक महीने का सन्धाय ले, इस संसार से, प्रथम देव-लोक में जा विराजने और यहाँ से महा-विदेह क्षेत्र में जा कर जन्म धारण करने, तथा अपने देवोपम सुकृत्यों के द्वारा, सदैव के लिए मुक्ति में जा मिलने के हेतु, प्रस्थान वे कर गये । 9 अपने श्रात्मीय धर्म का सम्पूर्ण रूप से पालन करने ही में सच्चा कल्याण हैं । मनस्तोय का भी यही राज-मार्ग है । श्रात्मीय धर्म का पालन, स्वर्ग का सोपान है । यही निर्वाण-पथ का पाथेय है | इस महीपधि का सेवन करते ही, भव भय का रोग, बात की बात में भाग जाता है । श्रीर, श्रात्म-कल्याण की प्राप्ति का तो यह एक अचूक साधन ही है ! [ee] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सेठ - सुदर्शन कुछ कम ढाई हजार वर्ष पूर्व, विहार प्रान्त की चम्पा नगरी में महाराज दधिवाहन का राज्य था । वहाँ सुदर्शन नाम के एक सेठ भी रहते थे। करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति के स्वामी वे थे। एक से एक अधिक सुन्दर, चार पुत्र उन के थे । यों, सेठ धन और जन दोनों से भरा-पूरा था। नगर के राज-पुरोहित से सेठजी का घनिष्ट प्रेम था । जैसे नीर और नदी का सम्बन्ध Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ - सुदर्शन , हैं; प्राण और शरीर का श्रन्योन्य सम्बन्ध जैसे है; सेठजी और पुरोहित जी की मित्रता भी ठीक वैसी ही थी । किसी कारण वश पुरोहित जी एक दिन कहीं गये हुए थे । पुरोहितानी के मन में बुरे भाव समाये । पुरोहितजी की इस अनुपस्थिति में, पुरोहितानी ने सेठजी के इस प्रेम का अनुचित उपयोग लेना चाहा । श्रपनी पाप-भरी मनोवृत्तियों की पूर्ति उस ने उस समय करना चाही । यह कह कर, कि "पुरोहित जी को बुखार ने श्राज जोरों से पकड़ रक्खा है, " दासियों के हाथ सेठजी को उस ने बुला भेजा। उधर, वह स्वयं बुखार का बहाना कर के, पुरोहितजी के बिछाने पर जा सो रही । सेटजी को बुला कर, यहाँ से रफू चक्कर हो जाने का आदेश, दासियों को उस ने पहले ही दे रक्खा था। सेठ जी वहाँ श्राये । दासियों ने अपना रास्ता पकड़ा। बेचारे सेठजी एक ही गाँव के रहने वाले थे। उस पापाभिसन्धि का रत्ती भर भी पता उन्हें न लगा । बिछौने के पास श्री कर, प्रोढ़ने को अलग उस ने किया । और, पुरोहितानी को सोई हुई देख, वे अलग जा खड़े हुए | वे चकित हो कर पूछने लगे, " श्रजी ! कहाँ है पुरोहित जी ? कैसी हैं उन की तबियत श्रच ? " पुरोहितानी ने सेटंजी का हाथ पकड़ा । और, अपने मन की बात उस ने उन से कही। सेठजी, धर्म भीरु थे । 'पर-दारेषु मातृवत्' का पाठ, उन्हें उनकी जन्म-घुटी के साथ, पालने ही में पढ़ाया गया था । एक पंतित के उपासक ये थे । पुरोहितानी की पाप-भरी बातों ने सेटजी के हृदय की गति को स्तम्भित कर दिया । कानों पर उन्हों ने हाथ दे दिये। वे उसे भाँति-भाँति का बोध देने लगे । परन्तु - "कामातुराणां भयं न लज्जा । " चिकने घड़े [ १०१ ] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे पर पानी की वूदों की तरह,सटजी की उपदेश-भरी यात,पुरोहितानी के हृदय को ज़रा भी न लगीं। सेठजी को, अपने प्रवल प्रयत्नों से,जब वह रिझान सकी,उन्हें पुरुषत्व-हीन समझ,अपने मकान से बाहर उस ने निकलवा दिया । सेठजी ने अपने भाग्य को सराहा। श्रार, मन ही मन, अपनी वाक्चातुरी की प्रशंसा भी उन्हों ने खूब ही की। - एक दिन सेठानी अपने चारों पुत्रों को ले, किसीमहोत्सव में जा रही थी। रानी अभया उस समय राज-महल के झरोख्ने में बैठी हुई थी। पुरोहितानी भी उसी के निकट उस समय थी। पड़ोस में बैठी हुई पुरोहितानी से, उस का परिचय रानी ने पूछा । पास की एक दासी वीच ही में बोल उठी, "सुदशन सेठजी की यह स्त्रो है। चारों वालक, जो साथ में हैं, वे भी इसी के हैं । " पुरोहितानी ने इसे सुन कर, वुरा-सा मुँह वनाया। रानी ने तव तो इस का भेद उस से पूछा । पुरोहितानो पहले तो मौन-सी रही। पर बार-बार पूछने पर, मुँहचनाते हुए, अपने हृदय को खोल कर, उसने रानी के धागे रख दिया। सेठ जी के पुरुषार्थ-हीनता की पोल उस ने पूरीपूरी खोल दी। रानी ने वीच ही में उस की बात को काट, सेठजी के पुरुपत्व की दुहाई उस को दी। इतना ही नहीं, ऊपर से, उसी के चातुर्य की हीनता भी उस ने बताई, जिस के कारण, सेठजी को वह अपना न कर सकी थी! तदुपरान्त, उस ने उन्हीं सेठजी को अपने हिये का हार बना लेने की प्रतिज्ञा भी की। कुछ दिनों के बीत जाने पर, दासियों के द्वारा, रानी ने, [१०२] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेट- सुदर्शन कुम्हारों से, सेठजी की हचह प्रतिकृति का, मिट्टी का एक पुतला बनवाया । पर्दे की ओट में, रानी के इष्टदेव की मूर्ति के रूप में, नित्यम्प्रति, राज-महलों में, वह लाया जाने लगा । पहरेदारों को यह बात भली प्रकार से दासियों ने समझा भी दी । तब भी यदा-कदा रोक-टोंक वे करते ही । इस पर, दासियाँ, अपनी स्वामिनी के पूर्व श्रादेशानुसार, उस मिट्टी के पुतले को वहीं फोड़-फाड़ कर चलती बनतीं। दो चार वार यूँ किया जाने पर, पहरे दारों का सन्देह जड़ से चला गया। श्रागे चल कर, पहरे द्वारों की ओर से ऐसी कोई भी हरकर्ते न हुई, जिस के कारण, सेठजी के पुतले को फोड़ने का नौका श्राता । श्रस्तु | ध्यानस्थ एक बार, चतुर्दशी का दिन था। नगर के सभी नर-नारी, नगर के बाहर, किसी महात्सव को मना रहे थे । परन्तु सट जी पौधशाला में पापवत को धारण कर के, बैठे थे । रानी ने इस अवसर का सदुपयोग कर लेना चाहा । अपनी दासियों को याज्ञा उस ने दी। पुतले के चदले, आज स्वयं सेंटजी ही को उठा उस ने मँगवाया । रानी ने, तब ता, अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए, जितने भी उचित तथा श्रनुचित उपाय करना चाहिए थे, किय । साथ ही यह शर्त भी अन्त में उस ने रखदी थी, कि यदि सेठजी इस दिशा में असफल रहे, तो उन के जीवन का तत्काल ही अन्त कर दिया जायगा । सांसारिक सुख, सम्पत्ति एवं सम्पूर्ण सक्रिय साधन, सेठजी के इशारों पर नाचने के लिए श्राज उपस्थित थे । पर सेठजी के श्रागे, वही अपना एक पत्नी - व्रत प्रण था । "मातृचत् पर दारेपुः लोट-वत् पर-धनेपु च, " का नैतिक सिद्धान्त, [ १०३ ] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत के उज्वल तारे उन के दिल और दिमाग का क्रोत-दास था.। उन्होंने हँसते. हँसते मौत को आलिंगन करना ही गचत समझा: परन्तु अपने प्रण से पराङ्मुख हाना , अनुचित और अधेयस्कर. माना । रानी. जब किसी भी प्रकार से सटजी को अपने पन में न कर सकी. चिल्ला उठी । पहरे दारों को पुकार कर उस ने कहा, "दाड़ो ! दोड़ा !! अपनी पाप-मयो भावनाओं की पूर्ति के लिए, यह पापी, दुराचारी सुदर्शन, मेरे महलों में घुस आया है ! क्षण-मात्र ही की देर. मेरे सतीत्व को सन्दह में पटक देगी !!" यह सुनते ही पहरेदारी ने उन्हें धर-पकड़ा। महाराजा के सामन उन्हें पेश किया गया। राजा के क्रोध की सीमा न रही। उसी क्षण. शूली पर उन्हें चढ़ाने की राजाज्ञा हुई। नगर में हाहाकार मच गया। सेठजी के शील-व्रत की दशों दिशाओं में धान थी । श्राकाश को गुंजा देने वाला जनता की ओर स एक आवाज़ उठी। परन्तु राजा के दिल पर झूठ ने अपना दृढ़ शासन जमा दिया था। सभी प्रार्थनाएं बेकार हुई। नियत स्थान पर उन्हें लाया गया। प्राण-नाश को हानि,सेठजी के हृदय को कंपाने के बदले हँसारही थी। अपनी सत्यता और शाल-व्रत की बाल-बाल रक्षा के कारण, एक दिव्य प्रामा, उन के चेहरे पर चमक उठी थी । नव-कार महा-मन्त्र . का स्मरण उन्हों ने मन ही मन किया। बस, एक क्षण-भरही की देर और थी । इतने ही में एक दैवी घटना घटी । शीलरक्षक देव ने शूली के स्थान पर, सिंहासन उन के लिए वना दिया। दशों दिशाओं से उमड़ी हुई जनता की अपार भीड़ और राज-परिवार ने, इस चमत्कार को अपनी आँखों से देखा। राजा के न्याय और नीति का आसन हिल उठा। अव तोपहरे [ १०४] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेठ-सुदर्शन दारों से भी न कहा गया। रानी के बनावटी इए देवता की सागराम-कहानी राजा के सामने रखी गई । दासियों के दीपन और रानी के शील का साग भगडा फूट गया। सेटजी के चरणों में पढ़ कर, गजान क्षमा याचना की । सेठजी के सत्य की सोलह माना जय हुई। उन का यश-सौरभ और भी फूट पड़ा। संसार ने प्रत्यन दगा और माना, कि बड़े से बड़ा सांसारिक बल भी शरण मात्र यात्मिक बल के यागे भी कुछ नहीं-सा है। सेटजी के इस व्यापार मे. अनेकों की, अकथनीय श्रान्माननि हुयागे चल कर, भी सत्पथ के पथिक यन। [१०५.] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग-कुमार आज से लगभग सत्ताइस सौ वर्ष पूर्व, इसी परम पावन भारतवर्ष की ' श्रीवास' नामक नगरी में, नर-वाहन नामक राजा राज करते थे। कमला इनकी पटरानी थी। कमला की कोख से ललितांग-कुमार का जन्म हुआथा। कुमार राजनीति के नेता थे। विद्या और बुद्धि तो, मानो उन के इशारों ही पर चलती थीं। धर्म का रग उन पर उनके गर्भवास ही से Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग-कुमार - चढ़ा था। परोपकार करना, अपने क्षत्रियत्व की शान वे समझते थे। कुमार के एक मित्र का नाम 'सज्जन ' था। परन्तु करणी से था वह दुर्जन । कुमार के सद्गुणों का वह स्वभाव ही से शत्र था। अपने सद्गुणों को छोड़ देने के लिए, समझाता भी वह उन्हें खूब ही था। परन्तु कुमार का मन पका घड़ा था। सज्जन के वोल की लाख, उस पर किसी भी तरह लग न पाती। वह सदैव उन्हें समझता,कि "कुमार की दानवीरता, आये दिनों, कभी उन्हें ले बैठेगी। और भले का नतीजा सदा बुरा ही होता है।" यों, दोनों का व्यवसाय जोरों पर था। कुमार अपनी करणी का कायल था; तो सज्जन को अपनी सड़ी हुई समझ का मर्ज़ सख्ती से सता रहा था। अच्छे का फल अच्छा ही होता है; और बुरे का नतीज़ा श्रास्त्रिर बुरा । कुमार का इस बात पर अटल विश्वास था। एक दिन कुछ दीन-दुखी लोग कुमार के निकट श्राये। उन्हें अपना रोना-गाना उन्होंने सुनाया। कुमार, करुणा की मूर्ति तो पहले ही से थे। उन का कलेजा थर्रा उठा । बहु-मूल्य हीरे की अंगूठी, अपने हाथ में से निकाल कर, उन्होंने, उन्हें दे दी । कुमार को नीचा दिखाने और उन्हें अपने पथ से भ्रष्ट करने का, सज्जन ने यह सुसंयोग पाया । वह दौड़ कर राजा के पास गया। और कुमार की राई-भर करणी को,पर्वत के समान राजा के सामने रक्खी । राजा. ने, इस पर से, कुमार को चुला कर डाटा-डपटा और भाविष्य के लिए उन्हें आगाह भी कर दिया। कुमार,माता-पिता के भक्त थे । भविष्य में, पिता की आज्ञा को यथा-सम्भव पालन करने का उन्होंने कहा। अब तक कुमार की दान-वीरता, राजा की दानवीरता से [१०७ ] Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे भी अधिक वढ़ चुकी थी। समय पाते ही चारों ओर के दीनदुखी लोगों का ताँता-सा कुमार के पास उमड़ पड़ता । यथासमय कुमार भी उन की उचित सहयता कर ही देते । परन्तु, उस दिन से, पितृ-भक्ति वीच में श्राकर, यदा-कदा बीच विचाव करने लग पड़ती । कुमार का कलेजा, इस से, काँप-सा उठता। सज्जन को साथ लिय, कुमार एक दिन सैर-सपाटे को जा रहे थे। मार्ग में, मुसांवत के मारे कुछ मनुष्यों ने, कुमार को श्राकर घेर लिया । पिता की श्राशा का पालन करते हुए, कुमार ने यथा-सम्भव, उन की सहायता की। परन्तु उनकी इच्छा पूर्ति श्राज न हुई। यह देख, कुमार से वे बोले, “कुमार की दान-शीलता लोक-प्रसिद्ध है । परोपकार, श्राप का पूरे रूप से प्रसिद्धि पा चुका है । क्षत्रिय होने के नाते भी, हम दीनअनाथों का दुःख दूर करना, आपका प्रधान कर्तव्य हो जाता है । लाखों की लक्ष्मी, अभी तक श्राप लुटा चुके हैं । श्राज हमारे ही लिए कुमार को कोर-कसर क्यों ? लाख-लाख बार कलाश्री का काट-छाँट हो, चन्द्रमा अपनी शीतलता को छोड़ कर, उष्ण तो कभी होता ही नहीं । करणा का शूर-वीर, रणांगण को पीठ दिखाना तो कभी सीखा ही नहीं । " दुखियाओं के इस श्रार्त्तनाद ने कुमार के दिल को दहला दिया। कृत्रिम उपायों से, नैसर्गिक दानवीरता की आँधी रुक भी तो कब तक सकती थी। आवेश में श्राकर, कुमार ने अपने गले का हार उतार, उन्हें दे दिया । सज्जन की इर्पा और भी उवल उठी । राजा के पास, अर्ज़ाऊ वन कर, उलटे पैरों वह दौड़ पड़ा । राजाने, कुमार के हृदय को विना टटोले ही, उन्हें देश-निकाला दे दिया । किंचित् भी क्लेश और कल्मप, कुमार के मन में इस से न " [ १०८ ] Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग- कुमार हुआ । पितृ-भक्ति के ज्वलन्त उदाहरण, कुमार, पिता की श्राशा को सिर पर धारण करते ही बने | #6 :: 66 सज्जन भी साथ में था । चले चले दोनों बीयावान वन में पहुँचे । सज्जन बोला, कुमार ! अभी कुछ विगढ़ा नहीं हैं | पनी श्रादत से अभी भी बाज़ था जाश्रो । राज्य तुम्हारा, श्रीर तुम्हारे बाप का है। राजा श्राज भी तुम्हें क्षमाप्रदान कर सकत है । कुमार बोले, सज्जन ! जिस को जो बात मीठी लगती है, लाख कडवी होने पर भी, वह उसे मीठी ही लगती है । श्राम, वसन्त ऋतु को देख कर ही बौराते हैं। पीड-पीड की रटन करता हुथा, प्यासा पपीहा, मरते-मर जाना है: परन्तु स्वाँति की श्रमृत बूंदों को छोड़, अन्य पानी को वह कभी छूता तक नहीं । संसार के सम्पूर्ण जलाशय उस के लिए केवल मरुभूमि ही हैं । तब तो मनुष्य वन कर भी अपने मार्ग से मुझे भटक जाना ही क्यों चाहिए !" $4 भले का भला और बुरे का बुरा नतीज़ा होता है, यदि यही बात है, तो चलें, इस का निर्णय किसी से करवालें । और, इस पर, यदि तुम्हारी हार हो गई, तो अपना अश्व, श्रभूपण और वस्त्र, सब के सब मेरे हवाले, तुम्हें कर देना पड़ेir l " सज्जन ने बदल में कहा। कुमार ने खुशी-खुशी, "हाँ" 9 कहा । चल चले व दोनों एक गाँव में पहुँचे। एक जगह पाँचइस श्रादमियों का मजमा जमा था । सज्जन ने उन से पूछा, कहो भाई, क्या, भले का बदला भला होता है, या बुरा ? 66 बुरा, बुरा, " चारों ओर से श्रावाज़ आई । 66 35 [ १०६ ] Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे कुमार-" कैसे ? ” लोग - 'हमारे राजा, एक बार यहाँ आये । हृदय खोल कर हम ने उन का स्वागत किया । उन्होंने हमें सधन समझा । जाते-जाते, हमारे खेतों पर का टैक्स ही बढ़ा गये । यों, भलाई का बदला, बुराई से हमें मिला । " सज्जन के सिद्धान्त की जीत हुई । प्रतिज्ञा के अनुसार, कुमार ने अपना अश्व, आदि सज्जन को सौंप दिया । सज्जन घोड़े की पीठ पर जा चढ़ा । दिनों का मारा राज कुमार, एक चरवाहे के रूप में, सज्जन के साथ, श्रव चल रहा था। अपने सिद्धान्त के समर्थन में अनेकों ताने, चलते-चलते, सज्जन, कुमार पर कस रहा था । परन्तु कुमार को अपने अरमान की अड़ थी; और सज्जन अपने सिद्धान्त के सन्निपात का सताया हुआ। था । थोड़ी दूर चल चुकने पर, " यदि अब भी तुम्हें अपने अरमान की अड़ वैसी ही है, तो चलो, एक वार अपने भाग्य की आज़माइश और कर देखो । और, इस वार भी हार जाने पर, अपने दोनों नेत्र, तुम्हें मुझे निकाल कर दे देने पड़ेंगे । यूँ, सज्जन ने कुमार से कहा । सज्जन ने इस पर भी अपनी स्वीकृति दे दी । 23 मनुष्यों की खोज में, चलते-चलते, बहुत दूर निकल गये । एक विशाल वट वृक्ष के निकट वे पहुँचे । वहाँ कुछ मनुष्य वैठे हुए थे। उन्हीं से अपने प्रश्न के निर्णय का निश्चय किया। कुमार की अग्नि परीक्षा अभी होना चाक़ी थी । सज्जन ने पहले ही का प्रश्न उन मनुष्यों के सामने भी रक्खा । कुमार [ ११० ] . Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग- कुमार की दृढ़ प्रतिक्षा की परीक्षा के हेतु, उन मनुष्यों ने भी, " भले का बदला बुरा ही होता है; भला तो कभी भी नहीं 1 देखो, अभी एक राजा श्राया था, और उसने इसी वट वृक्ष के नीचे विश्राम लिया | पर जाने समय अपने नोकरों को हुक्म देता गया कि हाथी के खाने के लिए पत्ते इसी वट वृक्ष के लाये करो । इस बार भी सज्जन ही का सिर ऊँचा रहा। पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार, अपनी दोनों श्राँ, एक पैने उस्तुरे से निकाल कर, कुमार ने सज्जन के हाथों सौंप दीं नेत्रों को लेकर सज्जन चलता बना। कुमार का मन-मानस इस बार भी श्रानन्दो - इलिन था। क्योंकि, अपनी श्रग्नि-परीक्षा में भी वह खरा सोना निकल आया था। सज्जन ने जाते-जाते भी नानाकशी उस पर की। वह बोला, "अच्छा, भलाई करने के नाते, व जन्म-भर रोते रहना । 3 कुमार को, उस सुनसान जंगल में बैठे-बैठे, शाम हो श्रई । परोपकार ही एक मात्र उस का पथ प्रदर्शक श्रव था । शाम होते हो, लेखों का एक झुंड, वासे के लिए, उस विशाल वट वृक्ष पर, श्राकर बैठा । विश्रान्ति के समय एक युवक हंस अपने टीले से बोला, " हम खाते तो असली मोती हैं; पर बदले में मनुष्य समाज का उपकार क्या करते हैं ! कुछ भी नहीं । "" नहीं कदापि नहीं ? जानकार लोग हमारी वीठ का उत्तम और श्रवणनीय उपयोग ले सकते हैं । इसी चट वृक्ष पर जो लता यह लगी हुई है, उसके और हमारी बीट का मिश्रण, नेत्र-हीन वही जन्मान्ध को दिव्य ज्योति प्रदान करता है | परोपकारबुद्धि से कोई उपयोग तो उसका ले कर कभी देखे !" पहले " [ १११ I पत्तों का स्वरस को नेत्र देता है । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे की वात काट कर, वीच ही में एक दुसरा हंस बोल उठा । . नोंद, अव,कुमार से कोसों दूर थी। कुमार के रोम-गम ने हंसों के इस संवाद को सुना था। रात तो ज्यों-त्यों कर के काटी। दिन के निकलते ही, लता और वीट की खोज की । मिश्रण · तैयार हुआ। अंजन के आखों में जाते ही, कुमार को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई। थोड़ा-सा मिश्रण ओर तैयार कर लिया गया। लोकोपकार की सुन्दर भावनाओं के साथ, कुमार ने अव बस्तियों की राह ली। There is a place at the top. " जो वस्तु, जिस के योग्य होती है, अवश्व ही उसे श्राकर मिल जाती है। फिर सौदा भी संसार में बरावर हो का होता है । स्वार्थ त्याग भी, उस के लिए वैसा ही होना चाहिए । कुमार का स्वार्थ-त्याग, परोपकार के पथ में. अपने समय का, वे जोड़ था । कुमार के पथ में जो भी संकट आकर पड़े, जान पड़ते थे सचमुच में वे बड़े ही महँग परन्तु आगे चल कर उन की सस्ताई का पता संसार को लगा। चलते-चलते चम्पा नगरी में वह पहुँचा। उन दिनों, महाराज जित-शत्रु वहाँ के राजा थे। महारानी का नाम श्रीकान्ता था। कुसुमावतो उन की पुत्री थी । पर थी वह नेत्र. हीन । यही कारण था, कि अभी तक उस के साथ, कोई विवाह तक करने को राजी न था। वर की खोज में, श्राजकल-परसों करते, वर्षों बीत चुके थे । परन्तु साराप्रयत्न वेकार था। इसी घोर दुःख की चिन्ता के मारे, सारा राज-परिवार, कल प्रातःकाल होते ही होते, जीवित रूप में, जल मरने-वाला था। इसीलिए सारे शहर में, कुहराम मचा गय । जनता, [.११२ ] Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग-कुमार इस हृदय-विदारक हत्या काण्ड के पाप से भयभीत हो कर, जनता शहर को खाली कर निकले जा रही थी। रास्ते चलते हुए एक राहगीर ने कुमार को भी नगर में जाने से रोका । परन्तु परोपकार-परायण पुरुषों का जीवन तो पराया ही के हित के लिए होता है। नगर में प्रवेश उन्हों ने किया। जाते ही 'फुली' नामक एक मालिक की आँखों को अच्छा उन्हों ने किया । वह जन्मान्ध थी । रानी के पास दौड़ी हुई वह गई। उस राम-बाण औषधि की प्रशंसा उस ने वहाँ की। प्रत्यक्षं कि प्रमाणं । रानी ने चट राजा के सामने उस बात को रक्खा । पहले तो कई प्रकार की शंकाएं उस ने की । “ बड़े-बड़े भिषगाचार्य और सर्जना की कुछ करामात सफल जहाँ न हुई, साधारण वैद्य की तो फिर विसात ही वहाँ कौनसी है ! अच्छा, उस के भी मन की कर लेने दो। " यह कह कर नरेश ने कुमार को बुला भेजा । कुमार ने पधि ांजी। थोड़ी ही देर में कन्या की आँख कुन्दन बन गई। बदले में, कुमार का, राजा श्राजीवन ऋणी हा गया । उस कन्या का पाणि-ग्रहण भी, उसी दिन, कुमार के साथ हो गया। यही नहीं, प्राधे राज का अधिपति भी, जित-शत्रु ने उन्हें बना दिया। कुमार की, फिर स. काया-पलट हो गई। जिस प्रकार, पुनः उन की पदवृद्धि हुई, उसी प्रकार, अपनी परोपकारमयी भावना को व्यावहारिक वृद्धि का रूप उन्हों ने दे दिया। कुमार और कुसुमावती श्रव यानन्द-पूर्वक दोनों रहने लगे। उधर, सज्जन की करणी भी श्रव फूलने-फलने लगी। अन्नधन से यह क्षीण हो गया । अब भीख ही उस के जीवन का श्राधार थी। होते-होते, एक दिन भीख के हित वह उसी वस्ती [.१३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे मैं श्रा निकला | ललितांग कुमार की परोपकारमयी वृद्धि और निगाह ने सज्जन को चट से पहचान लिया। उसे पास उन ने बुलाया । कुमार को पूर्ण स्वस्थ और अपने राजसो चेप में देख-भाल कर, संज्जन का सिर भन्दा पड़ गया। सहसा, वह चोल पड़ा, 'मित्रवर! धन्य है आप की कर रही श्रोर मनसूबा ! मैं आज तक आप के सिद्धान्त की अवहेलना करता था । श्रव अपनी हिमालय जैसी भूल मुझे मालूम हो गई। प्रत्यक्ष प्रमाण मी, श्राप ही, इस का मेरे सम्मुख हैं । आपने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिखाया, कि मेले का फल मला ही होता है। मैं ने अपनी नीच करसी का फल पाया । आप से ज्योंही में विदा हुआ था, रास्ते ह्रीं में चलते-चलते मैं लुट गया। ऊपर से मार भी कुछ कम न पड़ी। घर गया। वहाँ भी सब खंड बंड पाया। मेरे पापों की पोल, राजा पर भी, एक दिन प्रकट हो गई । सही-सलामत, रातों-रात, वहाँ से भी भाग कर बच पाया यह कुछ कम नसीब की बात नहीं है । अव तो सूखी-लखी रोटियाँ भी समय पर नसीक नहीं होतीं । सज्जन की आँखें पानी में डुबकियाँ लगा रही थीं। कुमार का करूण-ह्रदय इस घटना को और अधिक देर तक न देख सका। वे परोपकारी थे। शत्रु और मित्र, सभी के लिए, उन की करुणा का स्रोत एकत्सा प्रवाहित था । कुमार ने सज्जन क मय दान देकर, एक मित्र के नाते, उसकी तत्काल ही काया पलट कर दी। कुछ भी हो, आखिरकार उस का हृदय तो, अभी तक वैसा ही दुर्जन था । साँप को चाहे जितना दूध कोई पिलावे, विष ही तो बदले में वह उगलता है। सज्जन की भी यही हालत थी । [ ११४ ] Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग-कुमार एक दिन, वह, कुमार के श्वसुर के पास फ़र्यादी न कर पहुँचा । वह बोला, "आप के दामाद, कुमार ललितांग, मेरे साथ इतना स्नेह केवल इसी लिए करते हैं, कि कहीं उनके पाप का भण्डा फ्रूट न जाय । असली राजकुमार तो मैं हूँ । चे तो मेरे चरवादार हैं । राजा, यह बात सुन कर, याग वगोला हो गया । उसी क्षण जल्लादों को उस ने बुलाया । उन्हें श्राश दी, कि "आज टीक ग्यारह बजे रात को, जय कुमार ललितांग को मैं अपने पास बुलाऊँ, उस समय, अमुक स्थान पर, श्राते हुए कुमार के सिर को धड़ से अलग तुम कर दो। और, यह भी ध्यान में रक्खो, कि इस गुप्त अभिसन्धि का रहस्य किसी पर प्रकट न होने पावे 1 " 66 राजाज्ञा के अनुसार, कुमार के क़त्ल का सारा सरंजाम हो गया । ठीक ग्यारह, घड़ी बजा रही थी, कि इतने ही में एक राजकीय पुरुष कुमार के निकट श्राकर चोला, 'कुमार की जय हो । महाराज ने श्राप को इसी घड़ी याद फर्माया है। मेरे ही साथ श्राप हो लें। " कुमार कुछ सेकण्ड तक दुविधा में पड़ गये । श्राखिरकार, सज्जन को उन्होंने कहा " भाई ! ज़रा, नरेश से मिल तो आओ। इस श्राघी रात के समय, मुझे उन्होंने याद क्यों किया है !" सज्जन राजकीय पुरुष के साथ हो लिया । वेचारा चीच ही में, जल्लादों के द्वारा, कुमार के भरोसे, कत्ल कर दिया गया । सज्जन के पापों की पराकाष्ठा हो चुकी थी । संसार में, उस के लिये, मृत्युदण्ड से बढ़ कर और कोई दंड ही नहीं था । इस जगह, 66 खाड़ खनैगो श्रोर को, ता को कूप तयार " चाली पहली, सज्जन के लिए सोलाह आना घटी। सुबह हुआ । राजा की [ ११५ ] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे इस धींगा - धींग की बात, प्रजा पर प्रगट हो गई। श्रौर, कुमार फिर भी चाल-बाल बच गया । श्रव तो राजा का क्रोध और भी भड़क उठा । कुमार के विरुद्ध, उसने युद्ध की घोषणा कर दी, उधर, परोपकार - परायण, कुमार के हृदय में कपट का नाम भी न था । सज्जन की हत्या और राजा की कुविचार पूर्ण कपट -मन्त्रणा का रहस्य, कुमार ने समझ पाया । श्रन्त में, वे भी क्षत्रिय - कुमार थे । युद्ध का उन के साथ 'चोलीदामन' का नाता था । वे ज़रा भी न झिके । राजनीति और युद्ध-विद्या में कुशल वे पहले ही से थे। अपनी सेना को, बात की बात में, उन्हों ने सजग कर दिया । 1 कुमार व वस्ती के बाहर चले श्राये । समय श्रीर स्थान के अनुसार, सेना की व्यूह रचना उन्हों ने की । कुमार, ठीक उस के बीच में थे । कुमार की श्राज्ञा के बिना कोई भी उस में प्रवेश नहीं कर सकता था। उधर, राजा भी वस्ती के बाहर युद्ध के लिए चला | दीवान ने पूछा, " महाराज ने आज किस पर टेढ़ी भौहें की हैं ! कुमार से लोहा लेने के पहले, कुमार I के सद्गुण, शूरता, साहस, और सम्बन्ध पर तो, भली-भाँति विचार कर लिया होगा।" राजा ने कहा, " अनर्थ हो गया ! कुमार का वंश हमें तो अव ज्ञात हुआ । एक चरवादार के हाथ, राज कन्या का भाग्य चिक गया ! 99 66 महाराज ! - 'अन्तर अँगुरी चार को; साँच-भूँठ में होई, । सव माने देखी कही; सुनी न माने कोई ॥ .यों सुनी-सुनाई बातों पर ही जब युद्ध छेड़ देंगे, तब तो ' पद-पद पर युद्ध होने लगेंगे । अतः ज़रा, कार्य-कारण की तह [ ११६ ] Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितांग कुमार का पता लगाना चाहिए । केवल सज्जन के मुँह से सुनी हुई वात ही पर, कुमार और कुमारी के भाग्य का निर्णय करना, न्याय संगत नहीं है,"मन्त्रों ने प्रार्थना करते हुए कहा। __राजा अपनी अनसोची करणी पर पछताया । दीवानजी को मामले की छानबीन का काम सौंपा गया । दीवानजी, कुमार के वंश का पता लगाने के लिए, उनके पास गये। शिखर में वे पहुँचे । कुमार के सम्मुख, उन की प्राज्ञा ले, उन्हें पेश किया गया। प्राथमिक शिष्टाचार के वाद, मन्त्री ने अपना वक्तव्य पेश किया । कुमार ने कड़क कर इसका उत्तर दिया, कि "मैं जिस जाति का हूँ, इसका उत्तर तो, श्राप को, रणांगण में, मेरी खरतर तलवार के द्वारा दिया जावेगा । दीवानजी ! अपने मुँह मियाँ मिट्ठ तो बनना, मैं जानता नहीं। प्रसंगवश, मुझे तो इतना ही कहना है, कि 'शूर समर करणी करहिं कहि न जना श्राप। विद्यमान रण पाइ रिपु, कायर करहिं प्रलाप॥' मन्त्री इस उत्तर को पाकर हताश न हुआ । वह अनुभवी था। राजनीति की पेचीदागियों को यह सुलझाना भी खूब जानता था। अकारण, कुमार भी नहीं चाहते थे, कि हज़ारों लाखों का खून-खचर मचाया जाय । मन्त्री के प्राग्रह-पूर्वक श्रावेदन ने, कुमार को, उनके वंश का नाम-धाम बता देने पर, अन्त में कायल कर ही जो दिया । यह सुनकर, कि वे श्रीनिवास चाती के दात्रिम महाराज नरवाहन के ज्येष्ठ पुत्र हैं। दीवान का हृदय प्रफलित हो गया। मंत्री, चट से राजा के पास पहुँचे । सारा हाल उनसे कहा। अव तोराजा के श्रानन्द की सीमा ही न रही। कुमार से क्षमा याचना उसने की । महाराज नरवाहन को भी, कुमार के अपने यहाँ होने का सन्देश, उसने दे दिया। नरवाहन [ ११७ ] Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे जो भी 'सज्जन' के झांसे में आ गया था,तव भी अच्छता-पछता वह पूरा रहा था। सन्देश को पाते ही, कली-कली उस की खिल गई । वह दल-बल के साथ, पुत्र का समयोचित स्वागत करने के लिए, तत्काल ही वहाँ पहुँचा । वर्षों के विछुड़े हुए दो हृदय, एक हुए । पिताने पुत्र के परोपकार की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। पिता तो, पुत्र के परोपकार को, निज की करणी में जाने के लिए भी कटिवद्ध हो गये । जित-शत्रु ने भी महाराज नरवाहन का साथ किया । अव कुमार ही, दोनों राज्यों के, सर्वेसर्वा अधिपति बना दिये गये। श्वसुर और पिता दोनों आत्म-कल्याण के लिए निकल पड़े । कुछेक वर्षों तक, कुमार ने बड़ी हीन्याय नीति-पूर्वक राज्य को सँभाला । एक दिन, अपने पुत्र को राज्य का भार सौंप, साधु वे हो गये । और, अपने प्रात्म कल्याण के मार्ग को और भी प्रशस्त कर लिया। यदि कोई प्रयत्न करे तो एक-मात्र परोपकार ही के वल, इस नस्वर जगत में भी अमर बन सकता है। [११ ] Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिमान मुनि श्राज से सैकड़ों वर्ष पूर्व, अयोध्या नगरी में, सूर्यावतंश महाराज पृथ्वीभूप राज करते थे । इनके पुत्र का नाम कीर्तिध्वज था । कुमार की बुद्धि बड़ी ही कुशान थी। निर्ग्रन्थ मुनि का उपदेश श्रवणं कर, एक दिन, महाराज का मन, संसार से उचट गयो । तव कैंमार के हाथों राज्य सोप, श्राप मुनि वन गये । कुमार राजा तो घनं गये । परन्तुं उन का भी मन था Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे उसी दिशा में । यही कारण था, कि न तो संसार का भोग ही उन्हें भाता और न राज-कार्य ही से किसी प्रकार की श्रभिरुचि उन्हें थी । महाराज के मन की बात को दीवान ताड़ गया । एक दिन वह बोला, " महाराज, बिना पुत्र के उत्पन्न हुए, यूं वैराग्यवान् बन कर रहना और मुनि बनने की भावना को प्रोत्साहन देना, तो श्राप जैसे जिम्मेदार व्यक्तियों को किसी भी कदर योग्य नहीं । जैसे, आप के पिताजी ने, प्रजा के कटों को सुनने के लिए, आप को नियुक्त कर के दीक्षा ली है, ठोक उसी प्रकार, आप भी अपने उत्तराधिकारी का निपटारा, अपने पुत्र के हाथों कर, खुशी-खुशी मुने वन सकते हैं। महारानी को भी इस बात का पता लग गया । कुछ ही दिनों के बाद, रानो की कोख से एक पुत्र पेश 'हुआ। राजा को इस बात का पता तक न चलन दिया । क्यांकि, रानो को राजा के मुनि वन जाने का भय था । महाराज एक दिन अपने गवाक्ष म बैठे थे । सूर्य ग्रहण उस दिन था । जगत् की प्रत्येक घटना, ज्ञानी के लिए, एक एक प्रकार की प्रयोगशाला ही का काम देती है । वेश्याओं के नाच तक को देख कर, उन क मन-मानस में ज्ञान की उतुंग तरंग उठने लगती हैं। मृदंग की ' डुबक डुबव. ' से उन्हें ' डूबन ' का भान होता है । सारंगी की' कुन्न-कुन-कुन्न को ध्वनी म 'कौन डूबता है - कौन डूबता है' की ध्याने उन्हें सुनाई देती है । और, वैश्या के द्वारा, दर्शकों की ओर, जो बार बार हाथों को लम्बा करके इशारा किया जाता है, उस से उन के डूबने का सन्देश चे पाते हैं । आखिरकार, मनुष्य अपनी भावनाओं का पुतला तो होता ही है । सूर्य ग्रहण से, महाराज कीर्ति ध्वज " [ १२० ] Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिध्वज मुनि भी पसे कई प्रकार के अर्थ निकालने लगे। वे सोचते थे, सूर्य को इस समय राहु ने दन-वैभव और हीन वल बना दिया है, ठीक इसी प्रकार, धात्म-मपी मूर्य भी पाप-सपी राहु से ग्रसित है। यही कारण है, कि श्राज यह शयन कर,अनेकों प्रकार के कष्टों का उपभोग वह कर रहा है । नाना प्रकार की योनियों में भ्रमता वह फिर रहा है। कुछ ही समय के परगन्. अपने पुत्र को भी उन्हों ने देख लिया । मन्त्री को लय अनुसार, महाराज ने अपने वायदे को पूरा हुना सनझ लिया । घेराग्य ने अब तो उन के चित्त पर और भी गहरा प्रभाव डाला। नुकौशल कुमार के कन्धों पर राज्य का भार उन्हों ने रकरना । और, श्राप ने दीक्षा ग्रहण कर ली। महाराज का मन मान में गोते पहले ही से लगा रहा था। बाद ही समय में, श्रय तो और भी यथेष्ट मान सम्पादन उन्हों ने कर लिया । तपस्याएँ भी पूरे एक-एक मास की वे करन लगे। विचरते हुए, कार्तिध्वज मुनि, एक दिन अयोध्या में पधार । उन्द एक महीने की तपस्या का पारणा, उस दिन था। गोचरी के लिए वे नगर में गये। कहीं, रानी ने उन्हें देख लिया। उन्हें पहचान भी उस ने लिया। मन ही मन बह कहने लगी, "ऐसे ही साधु यहाँ पहले भी आये थे। उन्हों ने मेरे बसे-बसाय घर को चीरान बना दिया। मेरे सौभाग्य को सदा के लिए मुझ से छीन लिया। परन्तु श्राज तो पति-देव हीस्वयं उस प में यहां पधारे हैं। कहीं ऐसा न हो, कि राज्य के एक मात्र सर्वस्त्र, मेरे पुत्र को भी ये बहका दें।" यह सोच कर, अपन दास दासियों को, उन्हें नगर से बाहर कर देने का, हुँम उसने दिया। ऐसी चैसी पासायों के मिलने पर,स्वार्थी [ १२१ ] Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे और अर्थ-लोलुप नौकरों की सोलह आना बन पटनी है । ऐसे ही अवसरों का सदुपयोग कर, वे अपनी मन-मानी पद-वृद्धि करवा लिया करते हैं । यही कारण है, कि अपने मालिक के. किसी के प्रति किये हुए एक गुना विरोध को, दस गुना कर के दिखाते हैं । वे इस बात को तो, फिर देखने ही क्यों और कव लगे, कि उन के स्वामी की श्राज्ञा अन्याय - संगत है या न्याय संगत | वे, रोटी के कुत्ते होते हैं । परमात्मा का भी कोई भय, उस क्षण, उन्हें नहीं होता । श्राज्ञा पाते ही, नौकर लोग, उन्हीं मुनि को, जो एक दिन इसी राज्य के सर्वेसर्वा श्रधिकारी थे, मारते-पीटते शहर के बाहर ले जाने लगे । महाराज सुकौशल ने एक दासी के द्वारा, इस घटना को गुप्त रीति से सुन पाया। वे दौड़े और मुनि के पास आकर उन के चरणों में गिर पड़े। अपने अपराध की क्षमा चाही । वे बोले, "मुनिनाथ ! इस घटना से मैं बिलकुल अपरिचित हूँ। मेरी माता ही का हाथ इस में है । यह राज्य, धन, धरती, शादि सव . के हैं । आप पुनः गोचरी के लिए वस्ती में पधारें ।" सन्तहृदय, शत्रु और मित्र सभी के लिए समान होता है। मुनि बोले " वत्स ! संसार के स्वार्थ और विषमता की गलियाँ बड़ी श्री तंग हैं। आगे चल कर मुनिनाथ ने सुकौशल महाराज को श्रात्म बोध का उपदेश दिया । सुनि का उपदेश कार कर गया। बात की वात में दुनियाँ से उनका दिल फिर गया । बस, फिर देर ही कौन सी थी । चट, मुनि का वेश उन्होंने धारण कर लिया । और, मुनि के साथ हो लिये । महाराज सुकौशल की माता ने इस संदेश को सुना । पुत्र-प्रेम के आवेश में आकर, महल के ऊपर से वह नीचे [ १२२ ] Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिध्वज मुनि 3: 6 कूद पट्टी | यूँ अकाल मृत्यु पाकर, चित्रकूट के पर्वतों में, सिंहनी के रूप में वह जा जन्मी । एक दिन दोनों मुनियों के मासक्षमण की तपश्चर्या का पारणा था । विचरते - विचरते दोनों उसी ओर जा निकले। गोवरी के लिए, बस्ती की टोह में थे। मार्ग में चलते हुए, उसी सिंहनी को बीच रास्ते में बैठी हुई देखा । मुनि-कीर्ति ध्वज बोले, " वत्स ! सामने देख ! जान पड़ता है, सिंहनी के रूप में स्वयं मृत्यु ही, मार्ग रोके श्राज सामने दिन पढ़ती है । यदि पीछे हटते हैं, तो अपने क्षत्रिय कुल को दाग लगता है । और श्रागे पैर रखने में प्राणों की बाजी लगानी पड़ती है । भगवान् ! श्राज, आप के देखते ही देखते में अपने कार्य को सिद्ध कर लेना चाहता हूँ। मुझे ही आप पहले दधर जाने दीजिए। " शिष्य ने गुरु से प्रार्थना करते हुए कहा । गुरु ने शिष्य की अवस्था को कोमल, और उस कष्ट को असल बता कर, उन्हें हटकने की शोशिश की । यों, कुछ देर तक दोनों में, एक दूसरे से पहले जाने के लिए, वाद-विवाद होता रहा । दोनों क्षत्रिय वंश के थे । शूरता और साहस दोनों को रग-रग में भरा था । प्राणों का मोह एक को भी न था । श्राखिरकार, शिष्य ही पहले जाने के लिए तैयार हुए। श्रालोचना कर, सन्धारा उन्होंने धारण कर लिया। तब निर्भीक हो, मौत - रूपी सिंहनी का स्वागत करने के लिए वे श्रागे बढ़ चले । मुनि के निकट पहुँचते ही, सिंहनी ने एक ही पंते में उनका काम तमाम कर दिया। फिर अपने पैने दाँतों तथा नाखूनों से, मुनि के शरीर के चमड़े को उबेर ने लगी । और, मरन्धर के परम प्यासे पथिक की भाँति, जोरों से, उन का खून बह चूसने लगी । देखते ही देखते, उन की बोटी-बोटी उसने बिखेर दी | मरते [ १२३ ] Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे दम, क्षमा के सागर मुनि, अपने परमोज्जवल शुक्ल विचारों के ध्यान में तल्लीन थे। कलुपित भावों का लेश-मात्र भी समावेश उन के हृदय में उस समय न था। फलतः अपने सम्पूर्ण घनघाती कमों का एकान्त नाश करते हुए, उसी क्षण केवल-ज्ञान की अभूत--पूर्व प्राप्ति उन्होंने कर ली । और, मोक्ष-धाम के अधिकारी वे वन गये। संतो की क्षण भर की संगति और दर्शन से जन्मजन्मान्तरों के पापों का क्षय, सहज ही में, हो जाता है। मुनि के दाँतों की पंक्ति को देख कर, सिंहनी जरा ठिठुक-सी. रही । वह कुछ परिचित-सी उसे जान पड़ी। उधर,मुनि कीर्तिध्वज ने जब उसे यूं विचार-मग्न देखा, अपने ज्ञान के वल जान. लिया, कि "यह तो वही कमल प्रभा रानी,सुकौशल की स्नेहमयी माता,है।" वे उसे सम्बोधित कर कहने लगे, "ओ पापिनी। श्राज तूने अपने ही पुत्र का प्राणान्त कर दिया। तुझे धिक्कार है ! धिक्कार है!! सैकड़ों वार धिक्कार है !!!" मुनि की इस मार्मिक वाणी को सुन कर, वह और भी विचार में पड़ गई। सोचते-सोचते, जाति-स्मरण-ज्ञान उसे हो पाया। अपने पूर्व जन्म की सारी चातें, एक-एक करके, उस के सामने श्रा-श्रा कर नाचने लगी। अब तो अपनी दुष्कृति पर उसे घोर पश्चाताप हुआ । अपने पापों का प्रायश्चित्त करने के मिस, मन ही मन प्रतिज्ञा उस ने की, कि "अाज से आगे, कोई भी ऐसा कर कर्म, मैं कभी भूल कर न करूँगी।" तदनुसार,मार्ग से उठ खड़ी वह हुई। चल कर, अपनी कन्दरा में, वह जा बैठी । यों, कठिन भूख-प्यास को सहते हुए, शीघ्र ही अपना - अन्त उस ने कर डाला । मृत्यु पा कर, आठवें स्वर्ग में वह . [ १२४ ] .. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीर्तिध्वज मुनि गई । उधर, मुनि कीर्ति-ध्वज भी, अभी तक, अपने सम्पूर्ण कर कमी का अन्त कर चुके थे। केवल-शान पाकर, कुछ ही काल में ये भी मोक्ष-धाम में जा विराजे । मनुष्य अपने भाग्य का पाप ही विद्याता होता है। जैसी भी भली या बुरी उस की भावनाएँ होती है, तदनुसार ही, भली या बुरी योनियों में जाकर जन्म उसे लेना पड़ता है । जव वात ऐसी है, तव प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य और धर्म है, कि वह अपनी भावनाओं को सदा शुद्ध रक्ख । [ १२५ ] Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ भ्रमक-स्वामी वीर प्रभु के समय के आस-पास, 'प्रभवा' नामक एक डाकू था । दिन-दहाड़े बड़े-बड़े डाके डालना, उस के बाएँ हाथ का खेल था। कई प्रकार की विद्याओं का यह स्वामी था। एक तो 'निद्रावस्थापिनी' अर्थात् जव चाहे तब, जहाँ चाहे वहाँ, और जैसे चाहे तैसे, घोर निद्रा के वश मनुष्यों का कर देना और दूसरी, बात की बातमें मज़बूत से मज़बूत ताले तोड़ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव - स्वामी गिराना, ये दो विद्याएँ तो मानो इस की दासियाँ ही थीं। उसे यहाँ तक सिद्ध थीं, कि उन के बल, मनुष्यों के देखते-देखते बढ़े से चंद्र मज़बूत स्थानों पर छापा वह मार सकता था वह अपने पाँच सौ डाकुओं के एक गिरोह का सरदार ( Ring-L/ader ) था । एक दिन राजगृह में वह श्राया । सेठ ऋषभदत्त के पुत्र, स्वनामधन्य जम्बू कुमार के भवन पर, छापा उसने मारा। उसी दिन कुमार का विवाह श्राठ कन्याश्र के साथ हुआ था । दहेज भी कुछ कम न मिलाथा। पूरे छप्पन करोड़ का था । वह भवन के श्राँगन हो में ला कर रख दिया गया था । हुक्मपाते ही, प्रभवा के सभी साथियों ने बड़ी से बड़ी पोटलियाँ बाँधी । अपनी अपनी गठढ़ियों को उठाना व वे चाहते थे, कि एक घटना उस समय घटी। कुमार को, 'धन के हरण हो जाने से कुमार साधु हो गये हैं, ' इस घोर कलंक से बचाने के लिए, शासनाधिकारी देव ने, प्रभवा को छोड़, अन्य सभी डाकुओंों के पैरों को, पृथ्वी से चिपका दिया। प्रभवा ने उन्हें पूछा, श्रथ विलम्ब किस बात की है ? चलते क्यों नहीं बनते ? राह किस की देखते हो ? " उन्हों ने कहा, " किसी ने ज़बर्दस्त करामात हम पर कर दी है। हमारे पैर और पृथ्वी एक हो गये हैं। एक इंच भी आगे हम हट नहीं सकते | " इन शब्दों के सुनते ही उस के कलेजे में कुहराम - . सा मच गया । " है ! क्या, किसी ने पैर पृथ्वी से चिपका दिये ? कहता हुआ, क्षण-भर के लिए चौक वह पड़ा । तत्काल ही सब को चुप उस ने किया । श्रौर, कान लगा कर, ऊपर के मंजिल से श्राती हुई, गुनगुनाती आवाज़ को वह सुनने लगा । उस के जीवन में, यूँ चकित होने का, यह पहला 22 [ १२७ ] Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे ही अवसर था। आवाज़ के सहारे, संध लगाता-लगाता, प्रभवा ऊपर चढ़ा। कुमार को अपनी पाठी नव-विवाहित श्रद्धांगिनियों के साथ, वाद-विवाद करते, उसने वहाँ पाया । श्राठों श्रद्धागिनियाँ कुमार को कह रही थीं, "जब दीक्षा लेना ही श्राप का ध्येय था, तव विवाह की केवल मानता मात्र पूरी करने के एक दिन ही के लिए, हमारे सारे जन्म और जीवन को आपने वर्वाद ही कसे किया ! हमारी सारी उठती हुई उमंगों को, विवाह के पहले ही दिन, आपने बड़ी ही बुरी तरह से कुचल कर, सदा के लिए नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। क्या, हम्ही अबलायों के साथ इस प्रकार के अत्याचार के करने का मौका श्राप को मिला है ? " " मैंने पहले ही यह बात तुम्हें कहला दी थी। मेरा इस में रत्ती भर भी दोप नहीं। अब तो ऐसा विवाह अपने को करना चाहिए, जिस से भाँति-भाँति के जन्म धारण करने और मौत का मुँह ही कभी अपने को न देखना पड़े ," कुमार ने उदासीनता से कहा । ये सब बातें प्रभवा ने कान लगा कर सुनीं। __ प्रभाव की निद्रावस्थापिनी विद्या की करामात, कुमार के परिवार पर कुछ न चली । इस से भी वह चकराया। फिर एकाएक वह कुमार के आगे जा खड़ा हुआ । उसे देखते ही सारा स्त्री-समाज मुँह वाँधे एक और जा खड़ा हो गया।प्रभवा ने कुमार से कहा,-'एक ओर तो हम हैं, जो पर धन और पर-दारा की फिराक में, इधर-उधर डाका डालते फिरते है। और, जिन को पाने के लिए हम अपने प्राणों तक को, सदासर्वदा हथेली में लिये रहते हैं। दूसरी ओर एक श्राप है, जो [१२८ ] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाव-स्वामी अपनी निज की अपार सम्पति और सौन्दर्य तथा सुकुमारता की जीवित निधियों, पनियों तक का लात मारकर, दीक्षा लेने पर उतारू हो रहे हैं !" क्या कुमार की यह नादानी नहीं है ?, प्रभवा को अपने पक्ष पर वकीली करते देख, पाठों पन्नियों का हृदय-कमल खिल उठा “निर्बल को बल राम " कहते हुए, उन्होंने अपने भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। __ कुमार को सम्बोधित कर, प्रभवा, बोला, " जम्बूजी ! दिल से दूर करे अपनी दीक्षा की बात को ! सँभालो अपनी अहट सम्पत्ति और सह-धर्मिणियों को ! मैं तुम्हारे यहाँ डाकर कभी न डालेगा : लो, सीखो मुझ स दो अमूल्य और असाधारण विद्याण और, बदले में, अपनी 'स्थम्भिनी विद्या को सोपा मेरे हाथ।" पं. स्थम्मिनी विद्या का प्रयोग किसी देव न तुम पर किया होगा। श्ररे, घरा क्या है, इस धन और धरती में ! चोरी कर कर के, क्यों अपनी यात्मा का हनन कर रह दो ! स्या, कमों का फलोदय होते समय भी ये साथी तुम्हारा साथ कभी देंगे? कभी नहीं ! प्रभवा ! अभीभी कुछ बिगड़ा नहीं है। सुबह की भूला,अगर शाम को भी अपने घर श्राजावे, नो उसे भूला हुश्रा नहीं कहत । अतः छोड़ो इस कुत्सित कर्म को इसी क्षण ! और धारा सत्य, दत्त, अहिंसा, ब्रह्मचर्यादि सद्गुणों को ! जिससे तुम्हारी श्रान्मा निजानन्द में रमण करे ।" कुमार ने कहा । कुमार के इन इने-गिने शब्दों ही ने प्रभवा की काया पलट कर दी।बह बोला,"कुमार! श्राज से मैं तुम्हारा ऋणी है। चलो, आप और हम सभी आजही से अात्मोन्नति के मार्ग में कूद पड़े ! दुर्गुणों के दुर्ग को चूरचूर कर, सद्गुणों के अन्वेपक बन ।” कुमार तो पैरों पर बैठे [१२६ ] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे · ही थे । पाँच सौ डाकुओं के साथ, प्रभवा तथा कुमार ने उसी दिन दीक्षा धारण कर ली। उसी दिन से, वे सब के सब श्रात्म-कल्याण में लग पढ़े। कंचन और कामिनी से पीछा छुड़ाना सचमुच में विरले ही महा पुरुषों का काम है । संसार की सम्पूर्ण व्याधियों की मूल ये ही दो बातें हैं। एक बार. साहस कर के जिसने भी मुँह इन से मोड़ा, उसी ने कर्म की रेख में मेख मारने का काम कर दिया। [ १३० ] Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लदाजी हजारों वर्ष बीत गये, महाराज श्री कृष्ण द्वारिका में राज करते थे। उन के भाई बलदाऊजी थे। एक दिन द्वैपायन ऋषि के द्वारा द्वारिका का सर्वनाश जव हो गया,महाराज श्री कृष्ण, अपन भाई तथा-पिता को साथ ले, वहाँ से बाहर चल पड़े। पुरी के द्वार में से हो कर ये गुजर ही रहे थे, कि इतने ही में अचानक उस की छत टूट पड़ी। जिसके कारण, श्रीकृष्ण Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे महाराज के माता-पित का, वहीं का वहीं, शरीरान्त हो गया। चल चले अब दोनों भाई कौशाम्बी में पहुँचे। उस समय, कृष्ण महाराज अत्यन्त प्यासे थे । वहाँ एक विशाल वट को देख, उन की छाया में, वे पैर पर पैर चढ़ाकर, बैट गये । बलदाऊ जी जल की तलाश में गये। इधर, महाराज कृष्ण के पैर के पन के चमकते हुए चिन्ह को, दूर से, जरद कुमार (काल भील ) ने मृग की आँख समझा । और, तत्काल ही, एक तीखो तीर उसने उस ओर छोड़ दी। पास वह पाया। महाराज को सामने दग्य कर और तीर को उन्हीं के पैरों में लगा हुश्मा जान कर, उस के होश-हवास खट्टे हो गय। परन्तु पश्चात्ताप के सिवाय. उस के पास अब कोई नहीं था। इतने है। में, " अर व्याध! यवरा मत । अपने पूर्व भव, रामावतार मेंने तुझे तीर मारा था। यह उसी की भरपाई है। अब तू यहाँ से, जितना भी जल्दी हो सक्ष, भाग निकल । अन्यथा, बलदाऊ के श्रान पर, तेरा वचना असम्भव हो जायगा।" महाराज श्रीकृष्ण ने कहा । व्याध, यह सुन कर, नौ-दो बना । तीर विपैली थी। वलदाऊ जा के आने के पहले ही पहले, शरीर को त्याग कर, महाराज श्रीकृष्ण निज-धाम को पहुँच गये। चलदाऊजी आय । “भाई, पानी पीले । “वे बोले । एक वार, दो वार, चार बार, बलदाऊजी ने उन्हें पानी पी लेने के लिय कहा। परन्तु महाराज श्री कृष्ण का शरीर तो इह लौकिक लीला का संवरण कर चुका था। वे तर बोलत भी कैंले ? वलदाऊजी ने समझा, "भाई गेप में हैं। तब .. तो उन्हें अपने कन्धे पर उन्होंने उठा लिया । ओर , चलने [ १३२] Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदाऊजी लगे । मार्ग में भी पानी के लिए, कई वार उन्होंने पहले ही के समान, अपने भाई से पूछा । भ्रातृ-स्नेह का आर्दश उदाहरण यह था । एक अाज के भी भाई होते हैं। एक ही कोख से वे पैदा होते हैं। एक ही गोदी और घर में पल-पुप कर, बड़े वे होते हैं । संसारी समझ का साथ होने के पहले वे दो शरीर और एक प्राण होते हैं। परन्तु ज्योंही आज के • संसार की हवा उन्हें लगी, वे एक दूसरे के पक्के प्राण-लेऊ बन जाते हैं । पहले, एक के साथ एक अर्थात् ग्यारह की शक्ति उन में श्री। अव एक ऋण एक, अर्थात् शून्य चल उनका रहता है। वे दीवाने बन जाते हैं । यही कारण है, कि संङ-मुसंड वैद्य, हकीम, वकील, आदि उन की सम्पत्ति के श्रव स्वामी होते हैं। कोर्ट-बाजी अब उन का जीवनव्यवसाय रहता है। राम और भरत का श्रादर्श-स्नेह भी, हमारे सम्मुख सदा रक्खा जाता है। वहाँ भी हमें यही पाट पढ़ाया जाता है, कि एक ने, दुसरे के लिए राज्य छोड़ा। परन्तु दूसरा, उसे ग्रहण करना, अपने अधिकार,न्याय, धर्म, कर्तव्य और सब से ऊपर, अपने अश्रुत-पूर्व आदर्श भ्रात-भाव की, हत्या करना समझता है । प्रजा के प्रतिनिधि, सचिव, गुरु और परिवार, सभी के सम्मुख भरतजी कहते हैं:" मोहिं राज हृष्टि देहहु जब ही। रसा रसातल जाइहि तब ही ॥ मो समान को पाप-निवासू ? जेहि लगि सीय-राम वनवासू ॥" एक अाज के भाई होते हैं, जो एक इंच धरती भी इधर की उधर नहीं छोड़ते । स्वार्थ, स्वोन्नति, स्वकीर्ति, स्वत्व, आदि अाज के श्रादर्श हैं। इन की आड़ में, जो-जो अत्याचार, जगत् में श्राज हो रहे हैं, छोटे-छोटे सब कोई उन्हें जानते [१३३] Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे है। अस्तु । “ भ्रातृ-प्रेम के वशीभूत हो, वलदाऊजी, श्रीकृष्ण को कन्धों पर उठाये हुए, वड़ी दूर निकल गये। तव भी मृतक शरीर का अग्नि संस्कार उन्होंने नहीं किया। तव उन्हें चितौनी देने के मिस, एक देव ने मनुष्य का शरीर धारण किया । और, कोल्हू में रेती वह पैरने लगा। चलदाऊजी ने उसे देखा। व बोले, " अरे! यह क्या करता हैं ? रेती से भी कहीं तेल निकला है ?"देव ने कहा, "जयरतोसे तेल नहीं निकल सकता, तोमृतक शरीर भी वोल कैसे सकता है? ज़रा,महाराज श्री कृष्ण के शरीर की ओर देखो तो!" बलदाऊजी की आँखें खुली। भाई की ओर देख कर, नाना प्रकार के विलाप वे करने लगे। अन्त में, विधि-विधान क साथ, मृत-देह का अग्नि-संस्कार उन्हों ने किया । अव जगत् में वे अकेले थे । जगत् की अनित्यता पर, उन का ध्यान गया । वैराग्य उन के हृदय में उमड़ पड़ा। तब तो दीक्षित हो, वन-वन में विहार वे करन लगे। मुनि वलदाऊजी,अब एक-एक माह की कठोर तपस्या करने लगे। एकवार पारणे का दिन था। वन से,वे तुंगिया नामक नगर में गोचरी के लिये आये। रूप-सौन्दर्य पहले हीसे उनका विखरा पड़ताथा। तपस्या के कारण, अब तोवह और भीचमकने लगा था। नगर की नारियाँ कुएँ पर पानी भर रही थी। उन की निगाह वलदाऊजी पर पड़ी। आँखों के द्वारा, वे उन के रूपसौन्दर्य को पीने-सा लगीं। एक ने तो, इस धुन ही धुन में,बड़े के बदले, पड़ोस में बैठे हुए अपने बच्चे ही के गले में रस्सी डाल दी । और, 1एँ में उस लटका तक दिया। बलदाऊ जी ने, उस की इस अमानुषिक करतूत के लिए, चिताया । तव [१३४ ] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलदाऊजी वह होश में आई। उस के पहले तक, उस ने बच्चे का रोनाधोना सुना तक नहीं, क्योंकि, उस का मन और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तो, बलदाऊजी के रूप-सौन्दर्य के हाथ बिक चुकी थीं। मुनि ने अपने रूप-सौन्दर्य की, मन ही मन में बढ़ी निन्दा की। इतना ही नहीं, ऐसे-ऐसे कई श्रनर्थों का मूल कारण अपने को समझ, उस दिन से, भिक्षार्थ शहर में थाना तक उन्हों ने सदा के लिए रोक दिया । वहीं से वे फिर वन में लौट पड़े । " उसी वन में, एक सुतार किसी एक विशाल वृक्ष की शाखा को छाँग रहा था। भोजन का समय होने पर उस की स्त्री मट्ठा और रोटियाँ, उस के लिए यहाँ लाई । काम को अधूरा ही छोट कर वह वृक्ष से नीचे उतरा। इतने ही में, एक मृग बलदाऊजी के निकट श्राकर, अपने सिर से उसी श्रीर, उन्हें ले चलने के लिए, इशारा करने लगा। मुनि ने मृग का अनुसरण किया | चल चल वे दोनों भी उसी वृक्ष के समीप श्राये । सुतार भी भोजन करने के लिए तैयार बैठा ही था । मुनि नं, "भाई ! यदि तु चाहे, तो हमें भी कुछ दे दे, कहा। सुतार प्रसन्न हो कर मुनि को भोजन बहने लगा । मृग, उस समय, मन ही मन अनेकों प्रकार के मनसूबे करने लगा। उसके मन में, "श्राज, यदि मैं भी मनुष्य होता, तो तपस्वी मुनि की यथा-शक्ति कुछ न कुछ सेवा श्रवश्य करता । इस सुतार का भाग्य सचमुच में सराहनीय हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई का कुछ भाग, मुनि की सेवा में अर्पित कर रहा है । " श्रादि यदि इस प्रकार की ऊंची भावनाओं का कुरण हो रहा था । तीनों के जीवन की अन्तिम घड़ियाँ बिलकुल ही निकट था "" t [ १३.५ ] Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे पहुंची थीं। हवा ने अपना विकराल प्रवाह बहाया। अधकटी शाखा, वायु के प्रचण्ड वेग से, सुतार, मुनि और मृग, तीनों के ऊपर, अचानक आ गिरी । बस, उसी क्षण, तीन का. वहीं का वहीं, अन्न हो गया। बलदाऊर्जा अपनी कटोर तपस्या के चल, सुतार उस काल के क्षणिक उच्च-भाव के दान से, और मृग अपने तात्कालिक सुन्दर एवं सेवा-मय निष्कपट मनसूबों के सहारे, यो वे तीनों के तीनों, पांचवे स्वर्ग में सिधार गये। ___ जब क्षण-भर की शुद्ध सेवा एवं त्याग-पूर्ण भावनाओं की जड़ इतनी गहरी जा सकती है, तब जीवन-भर की निष्कपट सुक्रियाओं, तथा सत्संगति से, निर्वाण-पद का मार्ग, निष्कंटक बन जाय, तो इस में अचरज की कोई बात ही नहीं। सरलता, शुद्धता एवं सद्भावनाएं, स्वर्ग की सुदृढ़ एवं सुन्दर सड़के हैं। १३६1 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनरिख-जिन-पाल सक्दों वर्ष पूर्व, विहार प्रान्त की चम्पानगरी में, माकन्दी नामक एक सेट थे। भद्रा उन की भार्या थी । जिन-रक्ष और जिन-पाल दो यागाकारी पुत्र उनके थे। ये दोनों भाई समुद्रयात्रा कर के ग्यारह बार विदेशों को जा चुके थे । व्यापार विद्या में कुशल इतने थे, कि केवल ग्बारह बार की विदेश-यात्रा सही, अहट धन-राशि के स्वामी ये बन चुके थे । वारहवीं Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत के उज्ज्वल तारे वार फिर भी समुद्र यात्रा करनी इन्होंने चाही सिमय पाकर माता-पिता के सम्मुख अपने विचार इन्हों ने प्रकट किये। ये वाले, " प्राणप्यार ! पहले तो हम व वृद्ध हो चुके हैं। तुम्हारे सिवाय, हमारी देख-भाल करने वाला तक यहाँ कोई नहीं है । हाँ. नौकर-चाकर जो भी बीसियों है; परन्तु अन्त में वे नौकर ही तो होते हैं । उनके हृदय में, तुम्हारी सी पीर होने ही क्यों लगी ? दूसरे श्रभी भी घपने पास इतनी घट सम्पत्ति है, कि संभाल कर चलने पर तुम्हारी सन्तानें तो क्या, चरन् कई पीढ़ियों के लाने पर भी खर्च नहीं हो सकेगी। श्रतः हाय काम को छोड़ो। और, कठिन परिश्रम से कमाये हुए, अपने वैभव की विलसते हुए अब तो विश्व का सुख भोगो । तीसरे, इस बार की जलन्यात्रा हमें कुछ उपसर्गकारी भी जान पड़ती है । " पुत्रों ने उन की बातों को कानाफूसी में टाल दी क्योंकि, जवानी का जोश उनमें था । और, सब से ऊपर, लक्ष्मी का लोभ रूपी भूत उनके सिर पर सली से सवार था। सच है, " लोभचंद्रगुणना के ?" अर्थात् हृदय में लोभ यदि है, तो और अवगुणों की श्रावश्यकता ही क्या ? समुद्रयात्रा के लिए थाखिरकार, हटकते - हटकते भी, चल ही पड़ । जहाज़, किनारे से किनारा काट के, समुद्र की छाती को विकरालता से चीरता हुआ, उसके मध्य में अभी जाकर लगा ही था, कि एक विपस घटना इतने में वटी । भीपण तूफान उठ श्राया । श्राँधी चली । सागर की उसाल तरंगें, श्रासमान को चूमने की होड़ा-होड़ी करने लगीं। विशाल जलयान समुद्र की चपेटों को और श्रायेक समय तक व न सह सका । उथल-पुथल वह करने लगा । और, वात की बात में, [ १३८ ] Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनरिख - जिन पाल सैकड़ों आदमियों के साथ, सदा के लिए, समुद्र की तली में वह जा बैठा 1 जिनपाल और जिन-रक्ष का दिन मान कुछ ऊँचा था। या यूँ कहो, माता-पिता की लंघन की सजा और भी कड़ी उन्हें मिलनी थी । समुद्र पर उतराता हुआ, एक पटिया दोनों भाइयों के हाथ लग गया । दोनों सवार उस पर हो लिये । ध्रुव उनके जीवन का रुख, भाग्य और हवा के रुख की थोर था | उतराते-उतराते तस्ता रत्न- द्वीप के तट पर जा कर लग गया । वहाँ पटिये पर से दोनों भाई उतर पड़े। वहां नारियल के वृक्षों का सघन वन था । भूमि पर पड़े हुए कुछ नारियल उन्हों ने उठाये । गिरी का तेल निकाल चदन पर उन्हों ने मला | उन्हीं की गिरी और पानी से अपनी भूख और प्यास उन्हों ने वुझाई। इतने ही में उसी द्वीप की रत्ना देवी, विकराल वेप किये, तलवार अपने हाथ में पकड़े, उनके सम्मुख ना खड़ी हुई । वेष-भूपा से वह देवी थी, पर हृदय उस का विकराल राक्षसा का था । पहले अनकां प्रकारक प्रलोभन और श्राश्वासन उसने उन्ह दिये । सब प्रकार से स्वागत भी उसने उनका यूरा-पूरा किया | इशारा करते हुए, अपने बढ़े - चढ़े वैभव की सम्पूर्ण सामग्री भी दूर ही से उन्हें उसने दिखाई। यह उसके कथन का एक पहलू था । दूसरे में, उस की पापवासना की पूर्ति न का जान पर, तलवार का ऊपर उठा कर, उन के सिरों को धड़ से अलग कर देने की धमकी उन्हें दी । उस विकराल वेष का देख कर, दोनों भाइयों का विवेक, वल और विक्रम, सव के सत्र विकल हो उठे थे । अस्तुः देवी का प्रस्ताव श्रनोति पूर्ण होने पर भी, स्वीकृत हो गया । तदनुसार, दोनों भाइयों को, उसके वैभव-सम्पन्न विशालकाय भवन में, उसने ला ठहराया। [ १३६ ] " Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे दोनों भाइयों ने, उसके कथनानुसार, उसकी पाप पूर्ण वृतियों की पूर्ति भी की । पश्चात्, जब अधिकारी देव के प्रादेश से, सागर की सफाई के लिए वह जाने लगी, उसके पूर्व, वह उन से चोली, " मैं भी आती हूँ । इतने पर भी, तुम्हारा मन यहां 'न लगे, तो अनेकों प्रकार के सुन्दर सुन्दर वृक्ष और लतामंडपों से, पूर्व के चाग़ में जा कर अपना मनोरंजन तुम कर सकते हो । यदि, वहां भी भला न लगे, तो शरद की सुन्दर और मनमोहक छटा को छीननेवाले, उत्तर के उद्यान में तुम चले जाना । श्रनज्ञान होने के कारण, यदि वहाँ भी अधिक काल तक तुम्हारा मन विलम न सके, तो फिर पश्चिम के, उस उद्यान में तुम दोनों भाइयों ने चले थाना, जहाँ " वसन्त ऋतु रहे लुभाई ' है । और, ग्रीष्म अपनी गरिमा गवाँ बैठी है। यदि, वह भी तुम्हें अखरे, तो पुनः यहीं लौट थाना इतने में तो, मैं तुम्हें यहीं मिल जाऊँगी । परन्तु भूल कर भी दक्षिण के बाग़ में कभी पैर न रखना । वहाँ एक चढ़ाही विषधर भुजंगम रहता है । जिस ने भी एक वार, कभी उधर पैर धरा, कि चस, वह वहीं का वहीं सदा के लिए सो गया । " यूँ कह कर, देवी तो अपने काम के लिए चल पड़ी । पीछे से, खड़ेखड़े दोनों भाई, अपने भाग्य का स्वयं ही निपटारा करने लगे। अपने गुरु-जनों के श्रशोल्लंघन की बात रह-रह कर उनके विचारों में आती थी। उस निर्जन स्थान में, असहाय होने का अन्धकार उन की आँखों में था । कल, जिस लोभ का हाथ, जवानी के जोश में आ कर उन्हों ने पकड़ा था, उस के प्रति, एक रत्ती भर भी सहानुभूति, उनके हृदयों में अव न रह पाई थी । सच है, जब तक स्वयं को चपेट नहीं लग पाती, लाख 1 [ १४० ] Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनरिव - जिन पाल भली बातें कोई कहे, मनुष्य-स्वभाव, उसे मानने के लिए कभी भूल कर भी उतारू नहीं होता । मनुष्य का मन सरलता का श्रनुगामी हैं। लोग, लम्ब और श्राधार के संयुक्त तथा लम्बे, किन्तु पक्के मार्गों को छोड़ कर, कर्ण रूप सीधे, किन्तु कलि मार्गों का अनुगमन करना सदा से पसन्द करते श्राये हैं । यह सब कुछ होता है । इतने पर भी लोग अपने प्राणों तक को संकट में डाल कर, श्रात्मो नति के अर्थ, अनुभव भी अनेकों, सदा करते ही रहते हैं। देवी ने दक्षिण के बाग में पैर रखने की सख्त मुमानियत की थी । उस बात ने तो उसे देखने की उत्कंठा को और भी उग्र कर दिया । इस एकान्त जीवन से मृत्यु का श्रालिंगन भी यंत्र उन्हें सुखद एवं शीतल जान पड़ने लगा था । निःशंक हो कर, दोनों उस और चल ही पंड़ । निकट श्रांत ही, वहां की सड़ान से, उन का नाक और सिर सड़ने लगा । आँखे ज़रा और भी दूर फेंकी, तो सामने की थोर, वृक्षों के झुरमुट में, अस्थि-पंजरों का एक बड़ा भारी ढेर नज़र श्राया । वे उस के निकट गये । पढ़ीस ही में, एक ज़िन्द मनुष्य को, जो शूली पर लटकाया ही जानेवाला था, बड़ा देखा। वे उस से पूछने लंग, " भाई ! तुम्हारी यह दशा क्या ? और, हर्दियों का हृदय विदारक यह ढेर यहाँ कैसा ? " " भाई ! इस द्वीप में तुम्हारे पैर रखने के कारण ही मेरी यह दशा हुई हैं। जब कभी भी, कोई नया व्यक्ति उस चंडिका के हाथ यहाँ चढ़ पाता है, पुराने की, दीर्घकाल से, यही गति, उस के द्वारा होती थाई है । श्राज या कल, तुम्हें भी यहाँ इसी घाट उतरना पड़ेगा। दुर्दिन के मारे, ऐसे ही प्रभागे व्यक्तियों के अस्थि-पंजरों का ढेर यह है । " बात सुनते ही [ १६ ] Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे दोनों भाइयों के होश गगन में गुम हो गये । " बचने का कोई उपाय भी, है ? भाई !" वे लड़खड़ाती हुई जबान में उस से योले । “हाँ, हाँ ! है क्यों नहीं ? मुझ से पहले के, इसी शूनी पर लटकने वाले भाई ने, वह उपाय मुझे सुझाया था। इस चंडिका के प्रेम-पास में फंस कर, वह उपाय मेरे लिप.ता चेकार हुआ । परन्तु मरते-मरते, तुम्हें तो मैं उसे बता ही दूंगा। उसे काम में लाना, न लाना, फिर तुम्हारा काम है। पूर्व के वारा में 'शेलक' एक यक्ष रहता है। अष्टमी चतुर्दशी, श्रमावस्या और पूर्णिमा को प्रकट हो कर, 'किसे ताई? फिले पार उतारूँ ? ' ऐसे उद्गार वह घोषित करता है। उस समय, उपस्थित रह कर, 'हमें दुख से छुड़ाया ! हमें पार उतारो !' आदि प्रार्थना तुम उस से करो। चस, तुम्हारे बचने का यही एक राज-मार्ग है।" उत्तर में उसने कहा। दोनों भाइयों ने उस का बड़ा उपकार माना। और, दौड़े. दौड़े पूर्व के वीचे में चे पाये। नियत स्थान पर पहुँचे। उस दिन भी उस के प्रकट होने की वारी थी। यक्ष समय पर प्रकट हुअा। आर, जैसा उस आदमी ने कहाथा,घोपित करने लगा। तव उन दोनों भाइयों ने, कष्ट से छुड़ा कर, समुद्र से पार उतार ने की प्रार्थना, उस से की। यक्ष चोला, “ अच्छा ! उपाय तो मैं तुम्हें बताये देता हूँ। पर क.म मैं उसे उतारना, तुम्हारा काम है। जिस क्षण, मैं तुम्हें पार उतारूँगा, वह चंडिका, सोलह शंगार और वारह आभूपणों से सज-धज बड़े ही मनोरम रूप को धारण कर, तुम्हारे सम्मुख आखड़ी होगी। वीसियों प्रकार के प्रलोभन और आश्वासन वह तुम्हे देने की चेष्टा करेगी । लाख लल्लोपत्तो कर-कर के, तुम्हें लौटाने की [१४२ ] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनरित्र-जिन-पाल धात वह करेगी । पर उस के कहने पर जरा भी कान तुमने कभी न देना। इस के विपरति. उस के वचनों में. तुम में स काई, जरा भी माहित हुश्रा, कि उसी क्षण, अपनी पाठ से. में उसे उतार फेंक दूंगा । परन्तु मेरे बचनों पर दृढ़ यदि वने रहे, तो सहज ही में पार भी में लगा देगा।" कह, उस यक्ष ने घोड़े का प धारण कर लिया। दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर चढ़ाया । तब चम्पा नगरी की धार वह चला ' रतादेवी ने भी इस बात को किसी तरह जान लिया ।वह भीचटचंडिका के प्रचंडवप में यहां या पहुँची। और, मानो, जैसे वह उनकी सचमुच में प्रेयसी ही कोई हो. उसी रूप में, उन के वियोग में, भाँति भाँनि के श्रालाप-विलाप, उन्हें सुना-सुना कर, वह करने लगी। उस के इन कपट-पूर्ण, किन्तु करुणा और प्रेम-संग शब्दों का जिन-पाल पर तो जरा भी असर न पड़ा । परन्तु जिन-रक्ष उस की बाग-जाल में, जर्जरित होकर, फंस गया। उसके प्रेम में वह पागल हो गया। पूर्व में, उसके साथ किये गये कीदा विनोद और प्रेमालाप का रह-रह कर स्मरण उस हो पाया। अपने उद्धार की पर्वाह न कर, उसन उसकी और अन्त में दग्य ही लिया । यक्ष ने यो पतित हाते उसे दंग्य, अपनी पूर्व प्रतिमानुसार, पीठ पर से उतार उसे फका । चंडिका ना यह चाह ही रही थी। पाते ही. जिन रक्ष का काम उसने तमाम कर दिया। फिर जिन-पालको भी लाखलाख प्रयत्नों से यह ललचाने लगी। परन्तु प्रतिज्ञा-चीर जिनपाल को अपने प्राणों की पड़ी थी। उस ने उस की रीझ और ग्वीम की तनिक भी पर्वाह न की। यह उस की अग्नि-परीता श्री । पर वह उस में सोलह श्राना सफल हुआ। देवी,थक कर [१४३] Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जैन जगत् के उज्ज्वल तारे moto% लौट पड़ी | यक्ष ने, जिन- पाल को, सानन्द, चम्पा के चारा में जा उतारा । घर जा कर, माता-पिता के चरण उस ने ऋ छोटे भाई के दुर्दान्त और दयनीय ग्रन्त की कथा उसने उन्हें कहो । वड़ों की श्राज्ञोल्लंघन करने पर, किन-किन घोर विपदाओं को उन्हें सहना पड़ा, सब ज्यों की त्यों कह सुनाई। कुछ काल तक श्रानन्द-पूर्वक वे रहे । एक दिन एक निर्ग्रन्थ मुनि वहाँ पधारे । उन के उपदेशों का जिन- पाल पर जादू सा असर गिरा । तव तो उसी समय दीक्षित हो कर मुनि वे बन गये । उस रूप में अनेकों करारी तपस्याएं उन्हों ने की । ज्ञान भी कुछ कम सम्पादन नहीं किया था । ग्रन्तिम दिनों सन्धारा धारण कर, मोक्ष में सिधारने के लिए, प्रथम स्वर्ग में वे जा विराजे । मातृ-पिता-गुरु- स्वामि-सिख; सिर धरि करहिं सुभाव | लहेउ लाभ तिन्ह जनम कर न तरु जनम जग जाय ॥ [ १४४ ] Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ अमर कुमार वीर भगवान् महावीर के समय, महाराज श्रेणिक ( विम्वसार) राज-गृह में राज करते थे । वहाँ ऋषभदत्त नामक एक निर्धन ब्राह्मण रहता था। उसके चार पुत्रों में से सब से छोटे का नाम श्रमर- कुमार था। वह जन्म ही से सत्संग- प्रेमी था । कुमार के हृदय को कोमल और निष्कपट देख एक दिन एक मुनि राज ने 'नवकार ' महा-मन्त्र इसे सिखला दिया। मुनि के Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे श्रीमुख से, " यह, विषय-व्याल के लिए महा-मणि है: यह, कर्म की रेख में मेख मारने वाला है; यह, वह अमोघ-शक्ति है, जिल के वल भाग्य के कठिन कुअंक भी सहज ही में पलट जाते हैं, यह सर्वोत्कृष्ट मंगलकारी एवं प्रानन्द का श्राधार है, भव.. सिन्धु की वैतरणी के पार जाने के लिए, यह, दृढ़ जल-पोत है, उसके इस महात्म्य को सुन कर तो, उस में उसकी श्रगाव श्रद्धा हो गई। वह विधान के साथ, नित्य उसका जप-जाप निष्काम भाव से करने लगा। ____एक दिन महाराज श्रेणिक न, एक विशाल भवन के रचवाने का विचार किया। दूर-दूर के सैकड़ों शिल्पयों को बुलाया गया। राज-प्रसाद का काम प्रारम्भ हुा । परन्तु." नों दिन चले अढ़ाई कोस" की कहावत के अनुसार, महल का जितना भी भाग दिन में वन पाता, रात में पुनः ढह जाता। अनेकों उपाय किये गये । लब्ध प्रतिष्ठा और कार्य-कुशल श्रनेको इंजीनीयरों ने, दिन-रात एक कर, अक्ल दौड़ाई; परन्तु सव उपाय जड़मूल से बेकार सिद्ध हुए। किसी की भी करामात वहाँ कारगर न हुई । जव विज्ञान और उस के धुरन्धर भक्तों की कुछ अल न चली, अन्ध श्रद्धालु लोगों के साथ सलाहमशविरा तव किया गया। और, उनकी राय-शरीफ से यह तय किया गया, कि एक सुलक्षण-सम्पन्न पुरुप का बलिदान वहाँ किया जाय । तदनुसार, उपर्युक्त पुरुप की माँग और वदल में उसी के तौल का सुवर्ण देने की राज-घोपणा, राज्य भर में हुई । ऋपभदत्त के कानों पर भी यह बात पड़ी। दरिद्रता का मारा तो वह जन्म ही से था । अभी-अभी तो उस के भाग्य यहाँ तक फूट चुके थे, कि जहाँ भी आशा लगा कर यह जाता। [ १४६ ] Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमर कुमार दो धक्के दक्षिणा में वह पाने लगा था। इसकी स्त्री की तानाऋशी ने तो, इस के हृदय को और भी एक-दूक कर दिया था। राज घोषणा के सुनते ही, अपनी स्त्री के पास वह दौड़ा गया। गौर, बोला, " तु प्रति दिन धन के लिए माथाकूट मुझ से करती हैं । ले, खोल छाती! और, तेरे चार पुत्रों में से एक को सौप राजा के हाथ ! बदले में, उसी के तौल का सुवर्ण, तेरे घर पाकर अभी पड़ा जाता है ! बोल ! हे हिम्मत ?" स्त्री की नस-नस फड़क उठी । धन की प्राप्ति के लिए अन्धा संसार क्या-क्या नहीं करता ! गरीर से गरीब और अमीर से अमीर हर एक चाहता है, रात-दिन प्रयत्न करता है, सत्य और शील, सद्गुण और सद्धर्भ,सभी का एक क्षण में खातमा वे कर सकते हैं, यदि, लक्ष्मी उन की बगल में अांन को लालायित हो उठे; अथवा उन की हो कर रहने भर की हाई ही सिर्फ वह भर ले। पति के प्रस्ताव का हृदय से समर्थन हो गया। पड़ोस में बैठे हुए अमर कुमार ही को राजा के हाथ वेच देने का निश्चय हुया। तदनुसार, दरवार को सूचित कर दिया गया । राजा तो टोह में पहले से था ही । तुरन्त सिपाही वहां आ धमके। अभागे कुमार को जबरन तुला पर चढ़ा दिया गया । और, वरावरी का सुवर्ण, राजा की ओर से ब्राह्मण के घर पहुंचा दिया गया । सिपाही अव उसे पकड़ कर ले जाने लगे । कुमार न संकड़ा नाच नाचे । रोया, चिल्लाया। पछाड़ खा कर गिर भी पड़ा। पिता को पुकारा । माता की मिन्नतें मानी । भाइयों को रक्षा के लिए पुकारा । गगन भेदी नाद किया । पर सव के सब उपाय एक सिरे से चेकार सिद्ध हुए । क्योंकि, यहां तो रक्षक ही भक्षक बन बैठे थे। 'सर्व गुणाः काचनमाश्रयन्ति' [१४७ ] Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे का सौदा पट चुका था। तव कुमार की मुनने ही कोन लगा था ? आखिरकार उसे राजा के सन्मुख पेश कर ही दिया। उस समय, कुमार की काया काँप रही थी। उसकी पाखों से वहे हुए पानी के पनारे, उसे अलग ही डुबो रहे थे। मौत का विकराल खंजर उस के सिर पर लटक रहा था। फिर भी, रोता-विसूरता, राजा से वह बोला, "राजन् ! श्राप, प्रजा के पिता कहलाते हैं । जो अनाथ, असहाय, और अपाहिज़ होता है, उस के सच्चे रक्षक एक-मात्र श्राप ही होते हैं। फिर, मुझ असहाय और अनाथ ही को होम के हवाले क्यों किया जा रहा है । क्या, प्रजा के नाते, मैं आप का पुत्र नहीं हूँ ? अतः इस प्राण-नाशक संकट से आप ही मुझे उवारिये । श्राप शक्ति शाली हैं। शरणागत की रक्षा करना, आप का कर्तव्य और धर्म है।" "भाई ! तेरा कहना सब ठीक है। मैं सब का रक्षक हूँ। परन्तु अभी तो सौदा, दामों में हुया है। मेरा इस में दोप ही क्या ? हाँ, मुफ्त में जो मैं तुझे लेता, तव तो अवश्य ही अत्याचारी, आततायी और अन्यायी में कहलाता! अतः मैं अव कुछ भी नहीं कर सकता।" राजा ने बदले में कहा। अमर कुमार अव आधार हीन था। धधकते हुए अग्निकुंड के निकट वह लाया गया। उस समय, कुमार का रोमरोम खड़ा होकर, उस के माता-पिता के स्वार्थ और राजा के अत्याचार की शिकायत कर रहा था । भक्त-हृदय की परीक्षा भी पूरी-पूरी होती है । निर्वल का वल राम होते हैं । जहाँ अपबल, तपबल, वाहुवल और दाम-बल सिरपकट-पकट के, हार मान बैठते हैं, वहाँ प्रभु का नाम-स्मरण ही हारे हुए का हाथ श्रा कर पकड़ता है । कुमार को न-व-का-र महा मंत्र की अमोघ [ १४८ ] Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमर-कुमार - शक्ति की स्मृति श्राई । हवन कुंड के किनारे पर खदाखदा ही फुमार ध्यान-मग्न हो कर. उस का जप यह करने लगा। उधर होता (होम-कर्ता) लोगों ने पूर्णाहुति दी: और, कुमार को हवन कुंड में धकेल दिया गया । धधकती हुई अग्नि ने दिव्य सिंहासन का कप बना कर, कुमार का स्वागत किया भिय, उस से घर कोसों दूर था। कुमार की इस गति को देख कर, सभी होताओं के होश-हवाश ढीले पड़ गये। वे अचेत हो कर, घड़ाम से धरती पर गिर पड़े। इस प्रत्यन चमत्कार को देख, राजा क अचम्भ का भी कुछ टिकाना न रहा। राजा का सिर, लज्जा, भय और अत्याचार के कारण अव नीना था। कुमार के चरणों में गिर कर, उस ने अपनी दीर्घ-दर्शिता दिग्याई; अपने अपराध की क्षमा इस ने चाही। दव-यागी ने, कुमार के धवल यश का गगन-भदी गान, अलग ही किया। देव-वाणी ही के अनुसार, कुमार का चरणादक ल कर, अंचत व्यक्तियों पर दिया गया। और वे सब के सब स्वस्थ हो कर उठ बंटे। उन में सं भी प्रत्यक ने, बारी-बारी से, कुमार के चरण छूकर, अपने अपराध की क्षमा चाही । राजा न ता कुमार को श्रव राज तक दे दन को कहा। परन्तु कुमार की शाखा म नवकार महामन्त्र की अमोघ शक्ति के श्रांग, यह सब धूल था; मायामरीचिका का दिखाया था; सांझ अम्बर-डम्बर का दृष्य था। संसार की बड़ी से बड़ी शनि और वैभव, उसके मन को माहित करने में असमर्थ और जदथे । राजा को सम्बोधन करता हुया, कुमार बोला " सांसारिक बड़े से बड़ा चंभव भी, राजन् ! याग्विर कार क्षणभंगुर ही तो है । मुझे रात-भर भी इन की चाह नहीं। मैं तो अब यह कार्य करूंगा, जिस से अक्ष [ १४६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे य सुख की प्रखंड प्राप्ति हो । न-व-का-र महामन्त्र के, क्षण-भर के जाप मात्र से, मेरी यह घोरातिघोर विपदा, जब बात ही यात में ढल गई, तव जीवन-भर इस का जाप करने से तो मुक्ति अवश्य ही मुँह माँगी मिल सकेगी। इस में अचरज ही क्या ! वस, श्रवता दिन-रात में इसी का स्मरण करता गंगा | इस के बल सुझे पूर्ण विश्वास है, अक्षय सुख मेरा और मेरा, हो कर के रहेगा । " यों कह, दीक्षा लें, कुमारं चन की ओर चल दिया | अमर कुमार व मुनि अमर कुमार बन गये । और, एक विशाल वृक्ष के तले ध्यानस्थ हो कर वे ठहर गये । उधर, कुमार की माता को प्राप्त सुवर्ण के छिन जाने की शंका हुई। वह मनही मन तरह-तरह के मनसूबे बाँधने लगी । वह सोचती थी, " यदि राजा दिया हुआ सुवर्ण, पीछा माँगेगा, तो उस के पहले ही, मैं छुरे से अपने पुत्र का काम तमाम कर दूँगी । फिर तो जब लड़का ही जिन्दा न रहेगा, तो सुवर्ण वह माँग ही किस प्रकार सकेगा ! इतने पर भी उसने अपनी हट यदि न छोड़ी तो मैं बदले में पुत्र को माँग बैदूंगी। पर कुमार को न पाकर, सोना हमारे ही पास रहेगा। " यँ सोचती समझती एक पैने छुरे को हाथ में ले, वह कुमार के पास, वनस्थली की ओर गई । कुमार ध्यानमग्न वहाँ बैठे ही थे । जाते ही उस ने कुरा उनके पेट में भोंक दिया। मुनि क्षमाशोल थे । सचमुच में अमर भी उन्हें चनना ही था । माता की करणी पर, जरा भी रोस उन के मन में न आया । वे सागर के समान गम्भीर और मेरू-गिरि के समान, अपने ध्यान में चल रहे । माता घर की ओर लौट चली। पुत्र-हत्या के घोर पाप से [ १५० ] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमर- कुमार उस के पैर व लड़खड़ा रहे थे । मार्ग ही में एक सिंहनी ने उसे देखा । और, उसका काम, वात की बात में तमाम करदिया । उसके फलस्वरूप, घोर नर्क में जा कर वह जन्मी । अमर-मुनि भी, श्रायुष्य को पूर्ण कर भविष्य में मुक्ति के साथ, सदैव के लिए, वरण करने के लिए, स्वर्ग में जा सिधारे । • न-व-का-र महा-मन्त्र की शक्ति का सुन्दर परिचय संसार को मिला । क्या, हम भी, इसके जप-जाप से, लाभ उठाने की कोशिश कभी करेंगे ? क्या, याज के अन्धकार में यह हमारे लिए Search Light ( प्रकाश स्तम्भ ) का काम न देगा ? क्या, श्राज की हमारी बेकारी को इस की भव-भय-नाशिनी शक्ति, दूर न कर देगी ? विश्वास, व्यवस्था और निष्काम भाव की त्रिवेणी में नहा कर, एक बार श्राज हम इसकी श्राराधना तो करें | [txt] Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ रवन्धक मुक्ति एक समय सावत्थी-स्यालकोट में महाराज कनककेतु राजा थे। प्रजा-पालन को वे अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। महारानी का नाम मलया-सुन्दरी था । खन्धन-कुमार उन के पुत्र थे। समय पर, समुचित प्रवन्ध हो जाने के कारण, कुछ ही काल में कुमार बहत्तर कलाओं के स्वामी और नीति के नेता बन गये थे। कुमार अभी कुमार ही थे, कि एक दिन, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खन्धक-मुनि " 9986 बस्ती में विजय सेन मुनि का शुभागमन हुआ उत्थान कैसे हो, " इस विषय पर उन्हों ने यथेष्ट प्रकाश डाला । मुनि के प्रभावोत्पादक और ग्रात्म-कल्याण-कारक उपदेश से, कुमार का मन वैराग्य में रंग गया। वे मुनि से बोले, भगवन ! मैं भी इसी मार्ग का अनुयायी हूँ। मुझे भी, मेरी शक्ति के अनुसार, कोई मार्ग दिखाइये, जिस के चल, भव-सागर से मैं भी सहज ही में पार लग सकूं। माता-पिता की श्राज्ञा प्राप्त कर, मैं भी दीक्षित होना चाहता हूँ । तुम्हें जिस प्रकार भी सुन हो, करो, " मुनि ने बदले में कहा । माता-पिता के पास श्राकर, कुमार ने दीक्षार्थ श्राशा मांगी। और, पुनः मुनिराज के पास जाकर, दीक्षित वे हो गये । थोड़े ही समय में, यथेष्ट ज्ञान प्राप्त उन्हों ने कर लियां । यहाँ तक कि अकेले ही विचरण कर, शास्त्र सम्मत उपदेश देने के अधिकारी भी वे बन गये । एक दिन अकेले में बिहार उन्हों ने कर भी दिया । माता-पिता को यह बात मालूम होने पर पांच सौ सुभटों की एक टोली, शरीर-रक्षक के रूप में, उन्हों ने तैनात कर दी। साथ ही उन्हें यह भी समझा दिया, कि कुमार-मुनि को कहीं भी कोई कष्ट न हो । वे पूरी-पूरी देख-भाल करते हुए, गुप्त रूप से, उन के श्रास-पास ही सदा-सर्वदा रहे । , 66 I आत्मा का विचरते विचरते, मुनि, कुन्ती नगर के बाग़ में पधारे । मास - मरण की तपस्या का पारणा उन को उस दिन था । गोचरी के लिए फिरते-फिरते राज-महलों के नीचे से वे निकले । पुरूष सिंह यहाँ के राजा थे । और खन्धक मुनि की चाहिन सुनन्दां का विवाह इन के साथ हुआ था । उस समय, राजा और रानी दोनों महल के गवाक्ष में बैठे हुए चौपड़ पासा खेल [ १५३ ] Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे रहे थे। अचानक, रानी की निगाह मुनि के. ऊपर उस क्षण पड़ गई । उन्हें देखते ही अपने भाई का भान हो पाया। अतः खेल से कुछ दिल उन का हट गया । परन्तु राजा ने इस का कुछ और ही मतलव समझा। रानी और मुनि के वीच कुछ अनुचित सम्बन्ध होने की मन में आशंका करते हुए, चौपड़ को वहीं छोड़, मन ही मन कुछ झल्लाते हुए, वहाँ से वे उठ बैठे। दरवार में श्रा, जल्लादों को उन्हों ने बुलाया। और, मुनि के सारे शरीर की खाल उतार डालने की कठोर अाशा उन्हों ने उन्हें दी। प्राज्ञा मिलते ही जल्लाद, मुनि के पास, जा धमके । वे गोचरी के लिए इधर-उधर अभी घूम ही रहे थे। कहीं भी निदाप भोजन-पानी उन्हें अभी तक मिला नहीं था। जल्लादों ने राजाज्ञा उन्हें सुनाई; और, स्मशान की ओर उन्हें वे ले चले। इस सन्देश को पाकर भी मुनि पहले ही जैसे स्वस्थ थे। राजा और जल्लादों के प्रति, किंचित्-मात्र भी द्वेप उन के दिल में नहीं था। शरीर का मोह तो. दीक्षा के प्रथम दिन से ही वे छोड़-छाड़ बैठे थे । हँसते-हँसते स्मशान-भूमि में वे आ पहुँचे; और, प्रभु के ध्यान में निमग्न वे हो गये । जल्लादों ने अपना काम शुरू किया। और, वात की बात में, खरबूजे का छिलका जैसे उतारा ज ता है, ठीक उसी तरह, मुनि की खाल उन्हों ने उतार फेंकी। सुनि ने उफ़ तक न किया। वे वैसे ही अविचल ध्यान में मग्न रहे । उन की क्षमा-शील आत्मा, दिव्य केवल मान को प्राप्त कर, अलौकिक तथा अक्षय सुख के स्थान, मोक्ष में जा विराजी । सच है, वादल के बिना, जैसे बिजली का प्रकाश कमी हो ही नहीं सकता, ठीक उसी प्रकार, विपत्ति के . विना, मनुष्य के वास्तविक गुणों का प्रकाश भी कभी हो ही [१५४ ]. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खन्धक - मुनि नहीं पाता । जगत् जिसे सब से बुरी बुराई समझता है वही वास्तव में सबसे अधिक भलाई करने वाली होती है । इस श्राकस्मिक विपदा ही ने मुनि को असमय ही में मोक्ष धाम में पहुँचा दिया | 1 मुन के पाँचसा सुभट-साथी, यह समझ कर, कि यह तो खास कर के मुनि के बहिन हिनोई ही की वस्ती है, वहाँ हमारी इतनी कोई श्रावश्यकता ही नहीं है, मुनि के साथ, उस समय न रहे । परन्तु इस दुर्घटना का सन्देश सुनते ही, उन की सारी निर्भयता और निशंकता, शशक-शृंग के समान उड़ गई । वे शीघ्र ही कुन्ती नगर में आये । और, राजा के पास, फ़ी बन, वे पहुँचे । राजा को मुनि का सारा परिचय उन्हों ने दिया। इस से राजा का कलेजा कांप उठा। उन्होंने अपनी करणी पर, घोर पश्चात्ताप प्रकट किया। मुनि की वहिन के कानों भी यह बात पड़ी। बन्धु-निधन पर वह भी अपने वलभर रोई विरी । " बहिन बहिनोई का साले के साथ यह हृदय विदारक अत्याचार सुन, मेरे माता-पिता क्या कहेंगे; मुझे किस तरह चे विकारेंगे; भाई ने यहां आने पर, हम किसी को अपना परिचय तक नहीं दिया; " यह सोच सोच कर, वह बेहोश सी हो गई । यह बात, विजली की तरह, बात की बात में शहर में फैल गई। चारों श्रोर, राजा के श्रविचार पूर्ण कुत्सित कर्म की निंदा होने लगी । मुनि-वध से नगर में हाहाकार मच गया । ऐसे ही श्रवसर पर, धर्म-धोप मुनि का शुभागमन वहाँ हुआ। राजा-रानी दोनों भी समय पाकर मुनि के वन्दनार्थ गये । राजाने, ग्रन्थ से [ १५५ ] Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे इति तक, इस दुर्घटना का सारा इतिहास, मुनि के आगे कह सुनाया। साथ ही, वह कुकृत्य उन के द्वारा क्यों हो पाया, उस का कारण भी उन्हों ने उनसे पूछा << 1 राजन | तुम पूर्व भव में, काचरे के एक जीव थे। और, खन्धक एक राज कुमार ही । इन्हों ने बड़ी ही प्रसन्नता पूर्वक, उस काचरे का छिलका उतार फेंका था । उसी का, इस जन्म में, तुम ने यह वैर-बदला लिया है । और कुछ नहीं । ऋण और वैर का चदला, लाख प्रयत्न कर के कहीं भी कोई जावे, अवश्य उसे चुकाना ही पड़ता है । और, वह भी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ | श्रतः मन में वैर और बदले की भावना तो, कभी भूल कर भी न रखनी चाहिएं। प्राणी, इन्हीं के चक्कर में श्राकर, श्रावागमन के पंजे में फँसता है । श्रात्म-कल्याण और श्रात्मोन्नति के राज-मार्ग में, ये बड़े भारी वाधक हैं । क्या, धर्म-शास्त्र और सन्तों के इस अनुभव का उचित लाभ हमें न उठा लेना चाहिए ? यदि हाँ, तो आज ही से हमें प्रतिज्ञा कर लेनी चांहिए, कि वैर और बदले की भावनाओं को हम कभी पास तक न फ़टकने देंगे। बस, इसी में हमारा, हमारे कुटुम्ब तथा जाति और हमारे स्वर्गो म देश का उत्थान है ।" मुनि ने समझा कर कहा | मुनि के इन सत्य और हितप्रद वाक्यों से, उन पाँच ही सौ सुभटों और राजा तथा रानी का हृदय संसार से फिर गया । तब तो, आत्म-कल्याण और अक्षय सुख की प्राप्ति के हित, साधु वे वन गये । ं १५६ ] Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि प्रसन्नचन्द्र भगवान महावीर के समय, पोतनपुर नामक नगर में, महाराज चन्द्रगुप्त के सुपुत्र 'प्रसन्न चन्द्र' राज करते थे । यौवन और वैराग्य, एक ही साथ, इन के जीवन में, इन के निकट अाय । संसार की नश्वरता, यौवन की अस्थिरता और अल्हड़पन तथा अधिकार की मादकता के कई उदाहरण सन्त और शाखा के द्वारा, समय-समय पर इन्होंने सुन रखे थे। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे अतः स्वभावतः अपने सांसारिक राज्य की अपेक्षा, वैराग्य के साथ, आत्म-राज्य में विचरण करना ही इन्हें अच्छा लगा। समय आया । विचारों में दृढ़ता हुई । अन्त में एक दिन, अपने इरादे के अनुसार, राज्य का सारा भार, अपने नव-बयस्क कुमार के कन्धों रख,भगवान् की शरण में जा,श्राप दीक्षित हो ही गये। सच है,"where there is a rill,there is a way" कंवल भाव-शुद्धि और दृढ़ता की आवश्यकता है । फिर, संखार की कोई भी शक्ति मार्ग में श्रा कर, मबल नहीं सकती। स्थान-स्थान में धर्म का शुभ सन्देश देते हुए, एक दिन भगवान् राजगृह में पधारे । लोग, दर्शनों के लिए लालायित प.ले ही से हो रहे थे । भगवान्.. अागमन ने उन की उस लालसा को और भी भड़का दिया । वे उनके दर्शनों के लिए, बरसाती नदी-नालों की बाढ़ की भाँति उमड़ पड़े । वीर प्रभु के दर्शन और पवित्रं प्रवचनों से, अपने दैहिक और भौतिक नापों का शमन कर के जनता घर लौटो । उसी दिन, प्रसन्नचन्द्र मुनि ने भी भगवान् की आज्ञा को सिर आँखों रख, वन की ओर प्रस्थान कर, ध्यान धारण किया। ___ एक दिन कुछ वटोहियों ने मुनि को ध्यानस्थ देखा । वे परस्पर कहने लगे, "मुनि ने अपना श्रात्म-कल्याण भले ही सोचा हो; पर पुत्र के पैरों, तो कुल्हाड़ी इन्होंने मार दी। पुत्र भी सयाना भी नहीं हो पाया था, कि हिमालय पर्वत-जैसे भारी राज्य का भार, इन्हों ने उस के सिर दे मारा । इस से शत्रु प्रों की सोलह श्राना बन पटी है। ना-वालिरा कुमार पर किसी-किसी ने तो हमला तक वोल दिया है।" वन की चीहता ने बटोहियों के उन चोलों को और भी चीहड़ बना दिया। [१५८ ] Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि - प्रसन्नचन्द्र प्रतिध्वनि के द्वारा, ध्यानस्थ मुनि के कानों में उन का प्रवेशं हु । चस, मुनि का मन, धर्म-ध्यान से सर्वथा फ़िसल पड़ा। श्रौर, फिसलते-फिसलते, श्रार्त्त तथा रौद्र ध्यान की प्रचण्ड वेगवती सरिताओं की वादों में वह था फँसा । मुनि-पद की मर्यादा ने उस क्षण उन का साथ छोड़ दिया । अपने वन वल. शत्रु को किसी भी प्रकार संहार करने का भाव, उन के हृदय में जागृत हुआ । इसी भाव ही भाव में, अपने सेनापति और शत्रु-दल संहारिणी, वीर योधाओं की एक सेना की रचना तक उन्हों ने कर ली । उन्हें रणाङ्गण में जा कर शत्रुओं का शमन करने का हुक्म तक दे दिया गया। और रणभूमि में जाने. के लिए आप भी जिरह वख़्तर पहनने को उठ खड़े हुए। इस भाव-भय-राज्य में विचरण करते हुए, मुनि के दोनों हाथ, जिरह - तर पहनाने के बहाने, उन के सिर की ओर पहुँचे । 33 उसी क्षण, राजा श्रेणिक, भगवान् की सेवा में उपस्थित थे। उन्हों ने वीर प्रभु से पूछा, "भगवन् ! वन-स्थली में ध्यानस्थ खड़े हुए प्रसन्नचन्द्र मुनि यदि इस समय आयुष्य पूर्ण करें, तो वे कहाँ जा कर उत्पन्न हो सकते हैं ? इस पर, "सातवें नर्क में, " भगवान् ने कहा । भगवान् के उस उत्तर से, श्रेणिक के सिर में कुछ चक्कर- सा आ गया; और आंखों के आगे अन्धकार छा गया। यही नहीं, वैराग्य के त्याग पूरी जीवन के प्रति, गहरी घृणा भी उन के हृदय में हो आई । फिर भी, भगवान् के वाक्यों में उन की श्रद्धा थी, भक्ति थी, और था, अटल विश्वास । यही कारण था, कि अपनी शंका-समाधान के उचित समय की प्रतीक्षा करते हुए, कुछेक क्षणों के लिए, वे ठिठुक-से रह गये । [ १५६ ] Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे संसार, प्रति पल परिवर्तन शील है। उधर ध्यानस्थ मुटि का मन भी पलट चुका था । यह दुर्दम्य मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण है । सिर की ओर हाथ बढ़ाते ही, राजर्षि प्रसन्नचन्द्र मुनि के विचारों की दिशा एक दम चदल गई। उन्हें अपने साधुत्व का स्मरण हो आया । एक चोर, संसार का एकान्त त्याग और दूसरी ओर, पुनः मारकाट तथा संग्राम से सम्बन्ध ! संसार के ये गँदले विचार उन के हृदय में आये ही क्यों ? इस के लिए, मुनि वार वार श्रात्मधिक्कार के शिकार बनने लगे। मन की श्रगम गति का सच्चासच्चा पता मुनि को श्राज लगा । वे उसे बार-बार धिक्कारने और समझाने बुझाने लगे । वे कहने लगे, "एक चार साहस कर के सिंह की मूँछों पर भी हाथ कोई रख सकता है: परन्तु मन को मसोस कर उसे अपने हाथों में कर लेना, सचमुच में, महान् कठिन काम है । इसीलिए बीत-राग प्रभु ने भी तो फ़र्माया है, कि । $6 एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस । दसहा उ जिणित्ताणं; सव्व-सत्त - जिला महं ॥ 99 भावों की इस एकान्त शुद्धता के कारण, मुनि के सम्पूर्ण घनघाती कर्मों का उसी क्षण नाश हो गया । और, कर्म-नाश से कैवल्य - ज्ञान की प्राप्ति उन्हें हो गई । जिसके उपलक्ष्य में, आकाश की दशों दिशाओं से श्राश्रा कर, देवी तथा देवता लोग, कैवल्य-प्राप्ति-महोत्सव को मनाने लगे । उसी क्षण, वीर भगवान् की सेवा में उपस्थित राजा श्रेणिक ने, उन देवी देवताओं को, आकाश मार्ग में इधर-उधर हर्षित हो कर जाते हुए देखा। उन्हों ने भगवान् से इस का कारण पूछा। उत्तर में [ १६० ] Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन जगत् के उज्ज्वल तारे - QARARSAGARAAN magas กระดาน re-ee we wewell ", 8 "; Pestect:v6t7 : : 58tec JantARRRAARARARAAResantanaRaREATE s) - 1 จ . ลง systyrews - - - - - Grundstueusesteovora राजर्षि प्रसन्नचन्द्र ध्यानस्थ खड़े हैं। Page #178 --------------------------------------------------------------------------  Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपिप्रमन्त्र " श्रेणिक ! कुछ ही क्षण पहले जिन मुनि के सम्बन्ध में तूने मुझ से पूछा था, उन्हीं को अब कैवल्य ज्ञान प्राप्त हो चुका है। उन्हीं के कैवल्य प्रामि महोत्सव को मनाने के लिए, ये देवगण, इधर से उधर और उधर से इधर दौड़-धूप मचा रहे हैं:भगवान ने फर्माया । भगवन् ! क्या, कैवल्य ज्ञान ? अभी कुछ ही क्षणों के पहले जिस के लिए सातवाँ नर्क सजाया जा रहा था, उसी को कैवल्य - ज्ञान की प्राप्ति ? रसानल और स्वर्ग का यह सम्बन्ध कैसा ? बात ही बात में, राई और पर्वत के इस अन्तर का रहस्य घट केसे गया ? " श्राश्वर्य मं श्राकर, श्रेणिक ने भगवान से विनम्र होकर पूछा । भगवान् ने फ़र्माया, " राजन ! चकित होने की इस में कोई बात नहीं। यह मन ही है, जिस के फेर में पड़कर, मनुष्य, नारकीय एक क्षण में बन सकता है । श्रर, उसी को अपने अधिकार में कर लेने पर, वही मनुष्य, दूसरे क्षण में स्वर्ग का एकच्छत्र शासक भी सहज ही में बन सकता है। एक क्षण में मुनि के विचार इतन मैले हो गये थे, कि उस समय यदि मृत्यु वे पा जाने, तो अवश्य सातवें नर्क में जाकर जन्म वे पाते । परन्तु दूसरे कुछेक क्षणों में ही मुनि के मन में सत् - विवेक का विवरण हुआ । राजा कालस्य कारणम्' सत्-विवेक राजा के हृदय देश में रहते हुए, कलुषित भाव मुनि के हृदय में फिर पनपन ही कैसे पाते ! हृदय में विवेक विराजमान होते ही, सारे धन-घाती कर्मों का मृलोच्छेदन हो गया। बस, 6 सेल्स की सम्प्राप्ति उन्हें हो गई है । श्रतः तुम भी जब तक जीश्रो, मन के एक मात्र मालिक बन कर ही रहो । मन की एक क्षण मात्र की गुलानी में रहना, रौरव नर्क में [2] "3 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे जाकर जन्म-भर विताने से भी बदतर है। येही दो बातें, स्वर्ग की सुन्दर सड़के हैं निर्वाण के राज-मार्ग की प्रकाशस्तम्भ है । अस्तु । [ १६२] Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ मेघ- मुनि राज-गृह के महाराज श्रेणिक की रानी का नाम धारिणी था। एक दिन उसने रात में एक स्वप्न देखा । वह शुभ था। श्रतः उस के बाद वह सोई नहीं। स्वम-शास्त्रों का कथन है, कि शुभ स्वप्न देखने पर सोने से उस का फल नष्ट हो जाता हैं। इसी के कुछ दिनों के बाद, उसे अऋतु में मेह के वरसने और हरियाले के दृश्य को देखने का एक डोहला श्राया। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे अभय कुमार ने उस की इस हार्दिक भावना की पूर्ति कर दी। समय पूरा होने पर, रानी ने 'मेघ-कुमार नामक एक सुन्दर पुत्र को प्रसव किया । वह प्रादित्य के समान तेजस्वी और वृहस्पति के समान बुद्धिमान था। अपने यौवन-काल के श्रागमन के पूर्व ही. वह बहत्तर कलाओं की शिक्षा में पारंगत हो गया। फिर यौवन का श्रागमन हुआ । धूम-धाम के साथ विवाह हुआ । कुछ काल योहो अानन्द-पूर्वक बीत गया। कुमार के जीवन का यह स्वच्छन्द समय था। इसी बीच, एक दिन विचरण करते करते वीर प्रभु उधर श्रा पधारे । दशौ दिशाओं से श्रा-भाकर जनता ने भगवान् की पीयूप-भरी वाणी का उचित लाभ उठाया। एक दिन मेघकुमार भी वहाँ जा पहुंचे । उर्वरा भूमि में वर्षा की बूंदों की पड़ने ही की देर होती है । ज्यों ही उन यूँदों का मिलन उस भूमि से हुआ, कि चट, पौधे पनप उठते हैं । मेघ कुमार के हृदय की भूमि भी उसी प्रकार उर्वरा थी । बस, भगवान् की पीयूप-वी वचनावलि की बूंदों के लगते ही, चैराग्य और सद्विवेक का पौधा उस में पनप उठा। जिस के फल-स्वरूा, वे अपने माता-पिता के पास गये । श्राज्ञा प्राप्त की ।और, लौट कर, प्रभु की शरण में श्रा, दीक्षित वे हो गये। आज पहली ही रात्रि थी। सोने के समय अन्यान्य सभी साधु-सन्तों ने अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर, अपने-अपने आसन विछा लिये । मेघ मुनि की चारी सब से पीछे आई। अपने श्रासन का स्थान इन्हें दर्वाजे के तट पर-मिला । रात्रि के समय. साधुओं का बाहर-भीतर आना-जाना भी नियमपूर्वक होता ही रहा । स्वभाव से ही, मेध-मुनि.के हाथ-पैर .. [१६४] Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ-मुनिः तथा शरीर आदि भी बीच-बीच में ठुकराते ही रहे. । सव के. पैरों की धूल भी उन पर कुछ कम नहीं गिरी। इन हरकतों से, एक ही रात में, नवदीक्षित मुनि का मन, वैराग्य.से विपम विरोध कर उठा । दीक्षित हाने के पूर्व, सभी सन्त जन, बड़े. अदय के साथ, उन्हें 'मेघ कुमार ' के.आदर सूचक नाम से सम्बोधित करते थे। अब वह अदव और अदाएँ भी एक दम गायब हो गई । श्राज अपने को मेघो' के नाम से पुकारते सुन कर, उन के हृदय को गहरी चोट पहुँची। अतुलित. राज-वैभव, अधिकार के मद, और अनेक दास-दासियों के बीच प्रेम से पले हुए, कल के 'राजकुमार मेघ', और आज के 'मघ-मुनि', इन तरह-तरह के अपमान को और अधिक समय तक सहन न कर सके। उन्होंने निश्चय किया,कि अभी तो पाव में एक पौनी भी नहीं कती है। सुबह होते ही, अपने भण्डोपरकण भगवान् के हाथों सौंप, अपने, घर की राह लूँगा। वहाँ फिर, इस प्रकार का न तो कोई बाँस ही रह पावेगा: और न कोई बाँसुरी ही तब वहाँ वज पावेगी।" सुवह हुश्रा.. ही था, कि मुनि अपने इरादे के अनुसार, भगवान् के निकट. पहुँच गये । अन्तर्यामी भगवान ने, उन के हृदयस्थ भावों को. जांन कर, उन के निकट पाने के पूर्व ही, यूँ कहना शुरू कर दिया, " मुनिवर मेघ ! क्या, एक ही रात में, और वह भी केवल मुनियों के टल्ले पल्ले-मात्र से, यूँ घबरा उठे ? अपने गत-' जन्म के कप्टों को तो कदाचित् तुम ने इस समय ..स्मरण भी न. किया, होगा :! अपने पर भव की गाथा को तो जग सुनो ! उन दिनों, तुम एक हाथी के रूप में थे। वहाँ सात, सौ ..हथनियाँ तुम्हारे साथ थीं। वैताट्य ..पर्वत [ १६५] Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे के समीपस्थ, गंगा नदी के दक्षिण तट पर, बाँसों के वह वन में तुम रहा करते थे। प्रतिवर्ष, ग्रीष्मकाल के ग्रांगमन में, आँधियाँ चलतीं । वाँस टकरांत । श्रौर, सारे वन में दावानल उन से फैल जाती । उन दिनों प्राण-रक्षा करने में कितना घोर कष्ट तुम्हें उठाना पड़ता । साधारण जन-समुदाय उस कष्ट का अनुभव नहीं कर सकता । चार-चार के इस कष्ट ने तुम्हारे कानों को खड़ा कर दिया । इस कष्ट का अन्त कर देने का, तुम सभी ने पक्का मनसूबा एक दिन किया | गंगा-तट की सील-दार भूमि का पता तुम ने लगाया, जो चार वर्गकोस की लम्बी चौड़ी थी। अपनी सूँडा और पैरों से वहाँ की भूमि के सारे भाड़-खड़ों को उखाड़ तुम ने फेंका । सूड़ों में पानी भर-भर कर वहाँ छिड़काव लगाया। तब पैरों के चल उसे कई दिनों तक रौंदा। और, यूँ, उसे सदा के लिए एक सुन्दर और सपाट मैदान तुम ने उसे बना दिया । ग्रीष्म के प्रांत ही फिर दावानल भड़की । तब तुम सब के सब श्राकर, उस मैदान में, मण्डलाकार खड़े हो गये । चनैले अन्यान्य पशु-पक्षी भी वहाँ दौड़े श्राये । और यूँ, अपने प्राणों की रक्षा उन्हों ने की । अन्त में, प्राण-रक्षा के बहाने, एक खरगोश भी वहाँ था पहुँचा | परन्तु सारा मैदान खचाखच भर चुका था। पर, उसी समय, अपने शरीर को खुजलाने के लिए तुमने अपना एक पैर ऊपर किया । वस, खरगोश वहीं श्राकर दुबक रहा । शरीर को खुजला लेने के वाद, ज्यों ही धरती पर पैर तुम रख रहे थे, वहाँ एक खरगोश तुम्हें दिख पड़ा। उसी समय, तुम्हारी करुणा ने, उस के कँपकँपाते दर्द का हाथ पकड़ा। यही कारण था, कि तुम ने भी उस की प्राण-रक्षा करना उचित समझा। [ १६६ ] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ मुनि कम्णा के भाव से, उस छोट-से प्राणी की रक्षा करने के नाते, अपना वह पीय अधर में लटका रखनाही तुम ने उचित समझा। यू, पूरे-पूरे तीन दिनों तक, अपने तीन पैरों ही के बल, अपनी विशाल काया का भार संभालते हुए, शान्त-भाव से तुम खड़े रहे। पश्चात् . याग शान्त हुई। इधर-उधर से आये प. अन्य सभी पशु-पक्षी भी अपने दाना-पानी की खोज में, उठ-उठ कर वहाँ से चलते बने । यह देख कर, वह खरगोश भी वहाँ से खिसक गया । तुन ने भी तब अपने पाँव को भूमि पर टिकाने के लिए नीचे किया। किन्तु अचल रहने के कारण, खून का प्रवाह उस का वन्द हो चुका था। अतः वह अकड़ गया था। तब तुम और अधिक काल तक अपने को सँभाल न सके। घलाम स धरती पर गिर पड़े। उस समय तुम्हारेभावों में सोलह याना शुद्धता थी। सम-भावों से बेदना को सहते हुए, उसी काल, तुम मृत्यु का भी प्राप्त हो गये । और, वहाँ स सीधे तुम इस भव में श्राकर जन्म हो। उस भव में उस छोटे से एक प्राणी की प्राण रक्षा कर के दी, इस जन्म में तुम पक श्रेष्ठ राज-कुल में श्रा कर जन्म हो । तुम्हारे पर भव के ताप की तुलना में, फिर यह ताप तो पासँग के वरावर भी नहीं है। तय हे मेघ ! तुम अपने इस शरीर के एक छोटे से कष्ट को तो कट समझ ही क्यों रहे हो?" ___ भगवान् के इस बोध से मेघ मुनि की घाग्न खुनी। विचार फरत ही उन्हें 'जाति-स्मरण-शान ' हो पाया। भगवान् के कथनानुसार, तव तो अपने विगत की उस सारी घटना को, प्रत्यक्ष रूप से उन्हों ने देख भी लिया। वे भगवान् से वोले"भगवन, अब धागे से मैं ऐसे विचारों को कभी पास तक [१६७ ] Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन जगत् के उज्ज्वल नारे - न फटकने दूँगा | सभी साधु-सन्तों की सेवा-शुश्रूषा करना, हर समय, मैं अपना कर्तव्य और धर्म समझँगा । गँदले विचारों ' के उत्पन्न हो थाने के कारण, प्रभुवर ! मुझे, प्रायश्चित्त-स्वरूप, दुवारा दीक्षित कर अपनी चरण-शरण दीजिए |" तदनुसार, भगवान् ने हर प्रकार से उन के भावों की शुद्धि की । आज से मेघ-मुनि, अपने नाम को सार्थक करने वाले मेघमुनि वने । जिस प्रकार श्राकाश-स्थित मेघ, जगत के कल्याण के हेतु अपने अस्तित्व को धूल में मिला देता है, ठीक उसी भाँति, मुनि ने भी लोक कल्याण की साधना में, अपने कर्तव्यपथ को निश्चित किया। तब से त्यागी भी हुए । त्याग ही उन के जीवन का एक मात्र ध्येय हुआ । थोड़े ही दिनों में उनके ज्ञान-ध्यान और तपस्या की तरंगिणी प्रचण्ड - रूप से तरंगित . हो कर उमड़ चली । जिस से जगत् श्राप्लावित हुआ । श्रन्त में, विपुल - गिरि पर सन्धारा ले कर, सोधे मोक्ष में वे सिधार 'गये। सच है, ज्यों मेघ के बिना बिजली की दमक श्रसम्भव है, ठीक वैसे ही चिना विपत्ति के मनुष्य के वास्तविक गुणों का विकास भी कभी नहीं हो पाता । [દ્દન Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे - गा- 14 ... . . . FOR २४.' 4 . . . . मा .. . BREHI" 41 . irgininer : . ST AAP . PA मा १.41 RRCH .: . Trt. - . . -.. . -. LF NIR H -- . ALE RANG A If H -- na HTM COM या : AA COM '.. . ... . .. . . Financidity Maray. 7 " . JANV .....Ms 15 . r ३ GHASHTHE नाटक करते हुए इलायची कुमार शान्त स्वभावी मुनि श्री को कर वैराग्य को प्राप्त हुए। Page #188 --------------------------------------------------------------------------  Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - AP इलायची कुमार चौइससौ वर्ष के पहले काज़िक्र है,जब हमारे देश में इलापुर नाम का पक श्रेष्ठ नगर था। धनदत्त वहाँ नगर-सेट थे। मपवती उन की पत्नी थी। उस की कोख स इलायची कुमार का जन्म हुया । सेठ अर्व-खर्च पति था। और, संसार के सारे सुख उस के घर में टहलुए-स चन कर रहते थे । उचित समय पर, कुमार की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। थोड़े ही Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तार P समय में पढ़-लिख कर वह प्रयोग बन गया । योवन की सन्धि में, एक सुन्दर और शील-सम्पन्न कन्या के साथ कुमार का विवाह कर दिया गया। यूँ, कुछ काल आमोद-प्रमोद में बीत गया । कुमार के जीवन रूपी नाटक का एक क यह समान हो गया । · “ fiate's lines are ineff-ernbe. " अर्थात् कर्म की रेख में मेख मारना प्रायः असम्भव है । "What is futed, cannot be awaited. ' अर्थात् भाग्य में जो लिखा होता है, वह हो कर के ही रहता है । इस को किसी ने श्रीर भी ये खुलासा किया है-" भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्यान न पौरुप | " अर्थात् भाग्य-चल के श्रागे विद्या और पौरुप, बलहीन है। नगर में एक दिन एक नट श्राया। जगह-जगह लोग उस की करामातों को देख कर, दाँतों तले श्रृंगुली लगा रहते । श्रपनी प्रसिद्ध नट विद्यां तो उस के साथ थी ही । पर इस से भी बढ़ कर एक करामात उस के पास और थी। वह श्री, उस की यौवन सम्पन्न पुत्री । कोमलता, सौन्दर्य और याचन की त्रिवेणी, उस के शरीर प्रदेश के कोने-कोने को स्वर्ग-धाम चनाये बैठी थी । यही कारण था, कि जहाँ भी कहीं एक बार वह चला जाता, जनता की अपार भीड़, उस की उस त्रिवेणी के दर्शन के लिए, उमड़ पड़ती। एक दिन कुमार ने भी कहीं उसे देख लिया। तभी से उस का मन उस पर लट्टू हो गया। परिणाम भी वही हुआ, जो होना चाहिए था । तभी तो किसी ने क्या ही सुन्दर कह दिया है, कि SC इक भीजै चहले परैः चूड़े-बड़े हज़ार । कतै न श्रौगुन जग करतं; नय-वय चढ़ती वार ॥ 29 T9 7 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलायची- कुमार कुमार के धर्म और मर्यादा के बाँध टूट गये। " एक नारी, सदा ब्रह्मचारी, " का व्रत खंडित हो गया । श्रव तो - 'कामातुराणां न भयं न लज्जा । ' --के अनुसार, कुमार कामातुर हो उठे । चे घर को श्राये । अव उन का प्रत्येक पल इसी चिन्ता में बीतने लगा, वह परम सुन्दर नट- पुत्री प्राप्त हो, तो कैसे हो ! इस चिन्ता ही चिन्ता में, कुमार का सारा खाना-पीना खराव हो गयाः और नींद हराम | चेहरे का सारा नूर उतर गया । यह देख, पिता ने एक दिन उन्हें पूछा, "बेटा, तुम्हें कमी कौनसी है, जो श्राज-कल दिनों-दिन तुम सूख कर काँटा बने जा रहे हो ! कोई रोग हो, तो धन्वन्तरि के समान धुरन्धर वैद्यों को मैं बुलाऊँ ! कोई चाह हो, तो इसी क्षण में उसे पूरी करूँ ! कोई कसक हो, तो उस काँटे को बाहर निकाल में फेंकूँ। किसी ने तुम्हारे मान को भंग यदि कियी हो, तो उस के मान को मैला, मैं मिनिटों में मैला श्राज कर दिखाऊँ ! बेटा ! निःशंक हो कर, अपने दिल को खोल कर, तुम मेरे सामने रक्खो । यदि श्राप मुझे जीवित रखना चाहते हैं; श्रापके हृदय में कुछ प्रेम यदि मरे प्रति है, तो "" << 46 एक हुक मोर मन-माँही मोहिं नटवी को देउ परणाँहीं ॥ इहि ते बढ़ कर काज न कोई । अत्र मम जीवन तब ही होई ॥ तब लगि खान-पान नहिं करिह हुँ । जब लग चाके सँग नहिं चरिह हुँ । 33 कुमार की इस बात को सुन कर, पिता एकदम चौंक पड़ा। वह बोला, " घंटा ! आज तुम यह कह क्या रहे हो ? क्या, किसी नशीले पदार्थ का सेवन तो श्राज तुम ने नहीं किया है ? क्या, नटवी और तुम जैसे कुलीनों का परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध ? औौर, उस पर भी, अन्न-पानी के त्याग का यह [ १७१ ] Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे कठोर प्रण ? वेटा ! ये बातें, तुम्हारे वंश को, तुम्हारी मानमर्यादा को, तुम्हारी जाति को और तुम्हारे बाप के उज्जवल नाम को वट्टा लगाने वाली हैं ! तुम्हारे धर्म और धन के भी प्रतिकूल यह बात है ! फिर, एक विवाह तो तेरा बहुत पहले हो भी चुका है ! तब यह कुमति तुझे सूझी ही तो क्यों ? हाथ का छूटा हुआ, एक बार फिर कभी मिल भी सकता है: पर मुँह का निकाला हुआ वोल तो, फिर कभी मिल भी नहीं सकतः । अतः बोल सँभाल कर और ताल कर वोलना चाहिए ।" परन्तु कुमार के दिल और दिमाग पर कुमति का कट्टर जादू, अपना अटल अधिकार जमाय वैठा था । वेचारे बाप की तब वह सुनने ही क्यों लगता !" श्रभी, मैं और कुछ भी सुनतासमझता नहीं । श्राप तो उस का विवाह भर अभी मेरे साथ कर दें । यस, इतना ही मैं चाहता हूँ ।" कुमार ने उत्तर दिया । इतने में, माता भी वहाँ श्रा पहुँची । श्रव पिता-माता दोनों मिल कर, कुमार को समझाने-बुझाने लगे । परन्तु कुमार अपनी ज़िद पर अटल थे । वे टस से मस भी न हुए। पिता-माता की सारी गिड़गिड़ उन के लिए श्ररण्य रोदन हो गई । श्रथ कुमार की धर्म-परायण पत्नी वहाँ श्रई । वह चोली - "भगवन्, श्राज आखिरकार यह मामला क्या है ? जय एक पति-परायणा पत्नी, अपने पति को, यदि श्राज छोड़ बैठती है, तो व्यभिचारिणी तथा कुलटा, आदि नामों से वह पुकारी जाने लगती है । जगत का यह आँखा देखा लेखा है। तब क्यों नहीं ऐसा ही कोई कलंक पुरुष वर्ग के सिर भी कभी मढ़ा जाता है ? क्या कानून बनाने का सारा अधिकार, उन्हीं के हाथों सदा से चला आया है, इसी कारण, एक पत्नी व्रत धर्म को जय चाहे तव, जहाँ चाहे [eing 7 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलायधी-कुमार तहाँ, और जैसे चाहे वैसे, छोड़ कर भी, वे सदाचार और शील का सुन्दर सेहरा, अपने सिर पर, सदा बाँधे रह सकत हैं ? कदापि नहीं ! व्यभिचारी, कुलांगार, लम्पट श्रादि कहलाने का कलंक उन के सिर पर लगेगा: और अवश्य लगेगा। यह तो यह, एक नटवी को अपनी श्रद्धांगिनी बना कर, जिस घर और वंश की शीतल छाया में श्राप पले-पुषे हैं, उन तक को कलंकित श्राप करना चाहते है ! यह विवाह नहीं ! वरन् मुझ अनाथिनी के सर्वस्व को,दिन-दहाड़े लूटने का,यह मनसूबा श्राप बाँध रहे हैं ! क्या, उस दिन की प्रतिमा को, पुरुष हो कर भी, श्राप य भूल गये, जब कि श्राप ने अपना हाथ मुझे सौंपा था ? मेरे साथ, भाँवर में सात पैर चल कर, क्या,यापने नहीं कहा था, कि "श्राज से मैं तुम्हारा और तुम मेरी हो"? स्वामिन ! हम अब अबलात्रों का यँ तिरस्कार न कीजिए हम श्रयलाएँ, हो कर के भी सबसे अधिक सबलाएँ हैं। हमारे द्वारा अपने हकों की हिमायत-भर करने की देर होती है। बस, तब तो हमी अवलाग, काली, रण-चण्डी, रूद्राणी, शक्ति, दुर्गा, महा-माया का रूप धारण कर लेती है। जगत् का प्रोज, तब हमारा अपना होता है । इतिहास इस बात की पुष्टि करती हैं, कि हम में से एक-एक के लिए तक, इस धरा धाम पर, समय-समय, रक्त की नदियाँ वही हैं। संसार-भर के जितने भी वीर हुए हैं,और आगे भी होंगे,सबकी माताएँ. हम ही है । त्याग का अन्यतम उदाहरण, हम से बढ़कर, श्राज तक कोई भी जगत् में रख न सका। पुरुप-वंश की शान उसके मान और नाम श्रादि को रखने भर के लिए,हम ने अपने पिता के वंश तक को,सदा के लिए,अपने पति के वंश में [ १७३] Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे मिला दिया। उसी जाति की,मुझ अवला का श्राप य अपमान करने को उतारू न हजिए!" इस लम्बी, चौड़ी, और हृदयवान् के हृदय को हिला मारनेवाली वाणी का भी कुमार के ऊपर कोई असर न हुआ। उन के कान पर जूं तक न रंगी । कुमार, मोह-मदिरा में इतने वे होश थे। उस के कारण उन्ह पूरे १०८ डिग्री का चुनार चढ़ा हुआ था। उस समय ये हित. कर चाते रुचतीं भी तो कैसे ? फिर भी कुटुम्ब के बड़े-बूढ़े सभी ने, कुमार को वारी-बारी से समझाने का अपना फ़र्ज अदा किया। जव किसी के कहने का कोई भी असर होता न देखा, तव तो लाचार हो कर, सेट ने अाखिरी उपाय ही अब लम्वन किया। वे नट के पास आये । सेठ नटराज से बोले, "भाई, जितना भी चाहे धन मुझ से ले लो । अपना जीवन एक जगह बैठ कर सुख-पूर्वक चिताओ । वदले में तुम्हारी पुत्री मेरे पुत्र को दे दो।" सेठ की वात को सुनी-अनसुनी कर के. नट तमक उठा। वह बोला, "महाराज! आप बड़े है,सेठ है.तो अपने घर के है । में छोटा हूँ फिर भी अपने घर का शाहनशाह हूँ। वोल, ज़रा सम्हाल कर मुँह से वोलिए ! लड़की का पैसा लेना, मैं विष्टा खाना समझता हूँ। बेटियों के बदले पैसा! यह तो मैं ने श्राप ही के मुँह से अाज सुना! हाँ, विपरीत उदाहरण तो इस के कई मिलते हैं । सेठजी! आप बड़े हैं, इसीलिए चाहे जिसको जैसा चाहे, कदापि नहीं कह सकत । और, हम छोटे हैं, इसीलिए ऐसी-वैसी बातें हर एक की सुनते रहें, कदापि हो नहीं सकता!"नट की बातें सुन कर सेठ का सिर सहम गया। उन की आँखें नीची हो गई । नट राज के सामने अपनी भूल [ १७४ ] Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलायची-कुमार उन्हों ने स्वीकार की । श्रोर, साथ ही बिना पैसा लिये दिये ही उस की कन्या को अपने पुत्र के हाथ दे देने की प्रार्थना भी । नट ने स्वीकार तो उसे कर लिया। पर एक शर्त साथ में लगा दी । शर्त थी- "कुमार अपने प्यारे परिवार श्रीर कुंवर के वैभव को चाट के बटोही की भाँति छोड़ दें। वे हमारे ही साथ, हमारे वेप में पूरे बारह वर्ष रह कर, नट-विद्या में निपुरा बने। यदि कुमार इतना स्वार्थ त्याग करने को तैयार हैं, ता अन्त में मेरी पुत्री को, खुशी-खुशी में उन्हें दे दूँगा । ?? सेठ का सिर उनक पढ़ा। उलटे पैरों लौट कर कुमार के पास श्राये । नट की मनशा की पहली को कुमार के सामने उन्हीं ने रक्खा | कुमार तो पैरों पर खड़े ही थे । नट- कुमारी की प्राप्ति में, वे सर्वस्व तक को होम देने के लिए तैयार हो गये । नट की प्रत्येक बात को पूरा कर देने का, प्राण रहते, प्रण उन्हों ने किया । सब तरह से अपनी स्वीकृति उन्हों ने दे दी । फिर भी उनके हितेच्छुकों ने उन्हें समझाया । पर अन्त में जो भी कुछ होनी थी, वही हो कर रही । बात की बात में, अपने सारे प्यारे परिवार और अतुलनीय सम्पत्ति से नेह-नाता तोड़, कुमार नट के साथ हो लिये । नट-वेश, धारण उन्हों ने कर लिया । श्रत्र तो दिन पर दिन महीनों पर महीने और वर्ष पर वर्ष बीतने लंग। एक दिन श्राया, जब चारह वर्ष भी, नटकन्या की प्राप्ति को धुन में, कुमार ने पूरे-पूरे काट दिये । काम लगन से हुआ था । श्रतः कुमार नट-विद्या में भी पूरे-पूरे निपुण बन गये । व तो कुमार के लिए बात केवल इतनी सी रह गई थी, कि किसी भी राजधानी में चल कर, राजा के सामने तमाशा दिखाना; और उस की [ १७५ ] Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल नारे रीझ पाना । रीझ पाते ही कुमारी, कुमार को सौंप दी जावेगी । वह भी दिन श्राया । एक दिन एक राजधानी में पहुँच कर खेल रचा गया । इस निपुण नट के नामी खेल को देखने के लिए, जनता की भीड़ बरसाती कीड़ों-मकोड़ों की भाँति उमड़ पड़ी । खेल प्रारम्भ हुआ । कुमार ने क़माल कर दिया । उनकी चतुराई को दुबारा देखने की इच्छा से, बीच-बीच में कई बार 6 वंस मोर, ; वंम मोर ' ( एक बार फिर एक बार फिर ) के नारे बुलन्द हुए। फिर भी राजा, रोझ देने में हिचक रहा था । उस का इरादा था, की नट-कुमार, नीचे गिर पढ़े और वह स्वयं उस के बदले, उस नट कुमारी को हथियाल । दोनों श्रोर अपने-अपने वल की, पूरी खींचातानी थी। एक थोर, कुमार अपनी कला की बारीकियां दिखाने में लगे थे; दूसरी ओर, राजा री देने में उतना ही अधिक खींचातानी कर रहा था । भावों की शुद्धता और अशुद्धता का यह इन्द्र युद्ध था, जो देखते ही बन पड़ता था । इतने ही में एक अनोखी घटना घटी । कुमार की अग्नि परीक्षा के अन्तिम क्षण का अन्त हुआ । दूर ही से, ऊपर चढ़े हुए, कुमार ने किसी निर्ग्रन्थ-मुनि को. श्राहार पानी के हेतु, एक सेठ के घर में जाते देखा। उन्होंने यह भी देखा, कि सेठ की रूप-यौवन-सम्पन्न स्त्री मुनि को भोजन वहरा रही है। मुनि की नज़र नीचे को है । वे कह रहे हैं, " वहिन, बस करो । श्रव नहीं; श्रव नहीं । यह देखते ही कुमार ने अपनी दशा की तुलना, सुनि महाराज के श्राचरण के साथ की। मुनि के श्रात्म-संयम और मनोनिग्रह की हृदय ही हृदय में हज़ारों चार प्रशंसा कुमार ने की। दूसरी ओर, अपने काम-विकार की निन्दा भी भरपेट उन्होंने की। 33 [ १७६ ] Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे ***** ***** * * * * * * * रणजी के " जैन धर्म झूठा है " ऐसा न कहने पर वह भयंकर देव जहाज़ को सिर पर उठा श्राकाश में ले उड़ा और उसे समुद्र में डुबाने की चेष्टा कर रहा है । ********************** **** Page #198 --------------------------------------------------------------------------  Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलायची कुमार एक नट-पुत्री के पीछे, अपने, उत्तम कुल, अतुलनीय वैभव और उत्तम मानुप जन्म को जैसे भी वरवाद उन्होंने कर दिया था , रह-रह कर सब बातें उन के सामने आने लगी । आत्म-धिकार के द्वारा सब का पूरा-पूरा प्रायश्चित उन्होंने उस समय किया। इस भाव-शुद्धि के हृदय-देश में प्रवेश करते ही, कैवल्य-ज्ञान का प्रदीप्त प्रकाश वहाँ फैल गया। यूँ, नट का खेल ही समाप्त नहीं हुआ, वरन् संसार के आवागमन के नाना-विध रूप धारण करने का खेल भी, कुमार के लिए सदा को समाप्त हो गया । उसी पल, भव-वन्धन की पाँश उन्होंने अपने गले से काट फेंकी । और मुक्ति के मार्ग में प्रवेश कर, अनादि एवं अनन्त सुखों के आवास , परमधाम को वे जा पहुंचे। [ १७७] Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० सुधावक धरकणी भगवान् श्रर्हनाथ, अठारहवें तीर्थकर के शासन समय चम्पा नगरी में, ' चन्दच्छाया' महाराज राज करते थे । वहीं श्रमणोपासक, ' अरणक' नाम के एक वैभवशाली वैश्य भी रहते थे। धर्म और अधर्म का विवेक, इन का बड़ा ही बढ़ा-चढ़ा था। धर्म "ही इन के प्रत्येक काम का प्राण था । यही कारण था, कि लोग इन्हें ' इढ़-धर्मी,'' प्रिय धर्मी ' आदि नामों से पुकारने Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधावक अरणकजी लगे थे। एक दिन अन्य वाणको ने इन के सामने प्रस्ताव रक्खा, कि जहाज़ों पर चार प्रकार का माल लाद कर, अपन सब के सब विदेशों को चलें । गर्मागर्म बहस हुई । अन्त में, प्रस्ताव सर्वानुमते स्वीकृत हो गया। शुभ मुहूर्त देखा गया। वणिक् लोग चम्पा से चलकर बन्दरगाह पर आ डटे। माल, जहाजों पर लाद दिया गया । पुष्प नक्षत्र के शुभ संयोग में जहाज़ विदेशों के लिए चल पड़े। ___ प्रस्थान के स्थान से पचासों कोस चल चुकने पर, समुद्र में एक घटना घटी। एक देव ने उस समय अरणक के धर्म की परीक्षा लेना चाही। अपनी माया का विस्तार उसने किया। यात की बात में प्रकृतिदेवी ने भी अपना रंग बदल दिया। असमय है. में बनघोर वृष्टि के चिन्ह आकाश में दिख पड़ने लगे । सूर्य छिपा; अन्धकार छाया, कड़क-कड़क कर विजलियाँ काँधने लगी।एक ही देव, अनेकों भयानक रूप धारण कर के आकाश में दिख पड़ने लगा। उसी देव के एक रूप ने, जो कापालिक के वेश में था, अरणकजी के सामने श्राकर, चीखते हुए कहा, " अरणक! सम्बल ! मैंने तेरा काम तमाम किया।" लपलपाती हुई तलवार को अरणकजी के सिर की और उसने फेंकी। अरणकजी हिमालय के समान अचल है।टस से मस भी वे न हुए मृत्यु के इस पाकस्मिक श्रालिंगन को फूलों की गुद-गुदी सेज उन्होंने समझा। सागारी-संन्यारा उन्हा ने तब धारण कर लिया। देव को श्ररणकजी का यह व्यापार रुखा लगा। वह और भी पास या धमका । कड़क कर वह उन से बोला, "अरे अरणक ! तु अपने धर्म से पतित होना,चाहे ठीक समझ, या न समझ, मैं [१७६] Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे तो सारी जहाज़ ही को उलटा कर, तेरा और तेरे सारे साथियों का भी काम ही तमाम किये देता हूँ ! अरक ! क्यों, ज़रासी बात के लिए, अपने सारे साथियों के प्राण-नाश के खर पाप को अपने पहले बाँधता है ! समय है; अभी भी सम्हल जा ! 35 " देव ! तू तो है ही क्या ! स्वयं इन्द्र भी प्राकर प्राणों का प्रलोभन मुझे इस समय दें, तो भी धर्म के पथ को मैं छोड़ नहीं सकता । " अरणकजी ने देव से कहा । श्ररणकजी पर अभी दुहरी मार थी। देव का प्रकोप तो एक ओर अपनी भीषणता दिखला ही रहा था। दूसरी ओर, उन के साथी भी, धर्म छोड़ देने के लिए उन्हें विचलित कर रहे थे । वे उन्हें डाट-डपट रहे थे; भाँति-भाँति से कोस रहे थे; उन के प्राणों के नाश से, उन के कुटुंबियों के प्राण-नाश की शंका उनके सामने वे उपस्थित कर रहे थे। अरणकजी को वे समझा रहे थे, " मैं धर्म छोड़ता हूँ, " इतना ही तुम्हारे कहने भर से सारा झगड़ा जब तय हो जाता है, तो कह क्यों नहीं देते ! समझलो, कोई पाप भी इस से कभी लगा, तो आलोचना कर ली जावेगी । फिर, तुम्हारा धर्म ही पहले इतना अधिक है, कि यह पाप तो उस की पासँग मैं भी नहीं आ सकता ! इस के उपरान्त भी कोई पाप यदिकोई हुआ, तो वह हमारे सिर-पल्ले पड़ेगा ।" यह सुनकर के श्री. अरणकजी प्रशान्त महासागर के समान गम्भीर थे । अपने विचारों पर ध्रुव के समान वे अटल थे। ताप पर ताप देते रहने पर जैसे, कुन्दन की कान्ति और भी फूट निकलती है, देव और साथियों के भीपण वाक् प्रहार ने वही काम उन के लिए किया। साथियों ने तब तो जीवन की आशा ही छोड़ दी। [ १८० ] Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभावक श्ररणकजी वे वारवार रणजी को और भी अधीर करने की चेष्टा कर ने लगे । देव ने भी एक बार उन्हें और समझाया । परन्तु -" 'धर्म का रंग रकजी के हृदय में जड़ पकड़े बैठा था। सारी बातों को एक कान से उन्हों ने सुना । और दूसरे से 'फुर्र ' कर के निकाल दिया। क्यों कि, वे भली भाँति जानते थे, कि "विपत्ति जो भी भयंकर सर्प के समान होती है, परन्तु उसके गुण सर्प की मणि से अधिक कीमती नहीं, तो कम भी वे किसी प्रकार नहीं होते । 5 देव ने जहाज़ को उठाया । श्राकाश में वह उसे ले उड़ा । साथियों ने व तो बिलकुल ही श्राशा, जीवन की, छोड़ दी । तरह-तरह से अरणकजी को कोसते हुए फूट-फूट कर वे रोने लगे | हज़ारों तूफ़ान आये ! और धर्म-प्राण श्ररणकजी के अटल विश्वास रूपी अचल से टकरा कर चूर-चूर हो गये । देव को श्ररणकजी के दृढ़-धर्मी होने का परिचय मिला । तत्काल ही सारे उपसगों का एकाकी अन्त हो गया । दिव्य रूप को धारण कर देव, श्ररणकजी के सामने आया। उस ने अपने अपराधों की बार-बार क्षमा चाही । दो कुण्डल की जोड़ियां भी भेंट में उन्हें उसने दी। तब वह अलोप हो गया । साथियों ने भी समझ पाया, कि वे अरणकजी ही थे, एक मात्र जिन्हों ने ही उन्हें आये हुए सम्पूर्ण उपसगों से बचाया । दृढ़ धर्म का ममं भी आज ही उन्हें जान पड़ा । जीवन में उन्नति, सुधार और अपार श्रानन्द कारण एक मात्र धर्म ही है, "सभी साथियों के मुँह से सहसा निकल पड़ा । श्रच तो शरणकजी से अपने अपराधों की क्षमा वे चाहने लगे । जहाज़ भी सानन्द दक्षिणी समुद्री तट पर था लगा । जहाज़ से उतर उतर " [ ११ ] Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे कर, माल गाड़ियों में लदवा दिया गया। और, निर्विघ्न, चस्पा को वे सव आ पहुँचे । यतोधर्मः ततो जयःअर्थात् जहाँ धर्म रहता है, जय वहाँ अवश्य रहती है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर का श्रादर्श जीवन लेखक-जैन दिवाकर प्रसिद्ध वक्ता पं० मुनि श्री चाधमलजी महाराज इस पुस्तक में भगवान महावीर का आद्योपान्त जीवन चरित्र है। यह पुस्तक सच्ची ऐतिहासिक घटनाओं का भण्डार है। वैराग्य रस का जीता जागता आदर्श है । राष्ट्र नीति और धर्म नीति का अपूर्व संमिश्रण इस पुस्तक में है । एक चार मँगा कर अवश्य पढिये। बड़ी साइज के लगभग ६०० पृष्टों के सुनहरी जिल्दवाले दलदार ग्रन्थ की कीमत केवल २॥ रु० मात्र । विध प्रवचन संग्राहक और अनुवादक जैन दिवाकर प्रसिद्धवक्ता पं० मुनि श्री चौथमलजीम० बत्तीस सूत्रों में से खोज-खोज कर ग्रहस्थ धर्म, मुनि धर्म, आत्मशुद्धि,ब्रह्मचर्य, लेश्या,पट् द्रव्य, धर्म,अधर्म,नर्क, स्वर्ग आदि अठारह विपयों पर गाथाएँ संग्रह की गई हैं। प्रत्येक विषय के लिये एक-एक अध्याय है। प्रत्येक अध्याय में मूल गाथा उसका अन्वयार्थ और भावार्थ दिया गया है। इस पुस्तक के अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। १-संस्कृत छाया सहित सजिल्द ॥) २-पद्यानुवाद (हरिगीत छंदों में)14) ३.-मूल-भावार्थ 1) अंग्रेजी अनुवाद) पता-श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक पुस्तकें मँगाइये JEE ज्ञान वृद्धि के लिए पुस्तकें मंगवा कर वितीर्ण कीजिये भगवान महावीर का श्रादर्श जीवन श्रादर्श रामायण १) सजिल्द १) (धार्मिक स्वाध्याय का ग्रंथ) ॥ सुपार्श्वनाथ-) नंदी सूत्र ) नेमीरायजी ) समकितसार In)जैन सुबोध गु० ॥) महा उदयपुर और धर्मोपदेशः) उदघोपणा ॥) मेरी भावना । स्वर्ग सोपानम्-काव्य विलास-I) निग्रंथ दायानुवाद सजिल्द ॥) जैन मत दिग्दर्शन निशिका -1) , पद्यानुवाद लघु गौतम पृच्छा __भावार्थ सहित जैन स्तवन वाटिका ॥) , मूल ) अंग्रेजी ॥) जन सुख चैन बहार दू० भा० २) महावीर स्तोत्र थर्थ सहित ) जैन गजल वहार महावल मलिया चरित्र सत्योपदेश भज. ) भा०३-11). इतुकाराध्ययन मुख वस्त्रिका की प्रा० सिद्धि ३) मुखवस्त्रिका निर्णय सचिन जैन स्तवन मनोहरमाला भा०१) उदयपुर में अपूर्व उपकार " " २०) जैनागम थोक संग्रह प्र० भा० :) समस्या पूर्ति सुमन माला ) द्वितीय भा०। ततीय भा. 11) मेघ कुमार ।-) परिचय ) च०भा०) पां०भा०।-छ०भा००) सुख साधन ) जैनागम थोक संग्रह सजिल्द ) भग० महा० का दिव्य सं० हिं०-11) मोहनमाला।-) सद्वोध प्रदीप-) , , , मराठी) स्था० की प्राचीनता सिद्धि ।) आदर्श तपस्वी ) दीपावली)। व्याख्यान मौक्तिक माला गुज० ।) पार्श्वनाथ चरित्र ) श्रादर्श मुनि हिंदी भ) गुजराती १) सीता वनवास दिग्दर्शिका ) लावणी विलास -) उदयपुर का आदर्श चातुर्मास ) ज्ञानगीत संग्रह-1) पुच्छिसुणं ॥ गजल भय धन्न चरित्र -1) भ्रम निकन्दन। सामायिकसूत्र-) तम्बाखू निषेध .) धर्मोपदेश सन्धि पत्र ) जैन स्तवन मनोरंजन गुच्छा ) जैन साधु मराठी व अंग्रेजी सुश्रावक अरणकजी सचिन ) सविधि प्रतिक्रमण अष्टादश पापनिपेध सार्थ)मूलs भक्तामरादि स्तोत्र मन मोहन पुष्पलता ) जैन मन मोहन माला श्री जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति aar Page #207 -------------------------------------------------------------------------- _