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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
मुनि कुण्डरीक भी रसना के रस में लिप्त हो चुके थे। इसी रस ने, पुनः कुछ ही काल में, स्थविर मुनि से कुण्डरीक मुनि का साथ छुड़वा दिया। वे फिर अपने भाई की राजधानी में श्रा धमके । राजा ने उन का उचित स्वागत किया। उन के संयम की पेट-भरकर प्रशंसा की। परन्तु कुण्डरीक सुनि का मन तो संयमवृत्ति से अव विलकुल ही विचलित हो चुका था।
यह देख, राजा ने उन्हें पूछा, "क्यां, समय पालने की अब आप की इच्छा नहीं है ? " वदले में मुनि मौन रहे । 'मौनम् सम्मति लक्षणम् ' । इधर, संसार का उपभोग करते-करते, राजा स्वयं उससे ऊब चुके थे। उन्होंने अपने राजसी वैभव
और राज-पाट को तत्काल ही अपने भाई, कुण्डरीक के मुनि वेष से बदल दिया । श्राज से कुण्डरीक पुनः भोगी वन;
और, पुण्डरीक पंच महाव्रत-धारी मुनि । कुण्डरीक ने अपने हीरे-से जीवन को काँच से बदल दिया ' इस के विपरीत, पुण्डरीक ने अपने कुधातु-मय जीवन का पारस में परिणत कर लिया। सौदा विनिमय का जो भी प्रत्येक के मन के अनुसार हुआ। तब भी एक का मार्ग अधःपतन की ओर था; और, दूसरे का स्वर्ग को ओर। . ..
पुण्डरीक मुनि ने, स्थविर मुनि के दर्शन न होने तक, अन्न-जल ग्रहण न करने का, अभिग्रह धारण किया । यो प्रण कर के, वे वहाँ से चल दिये। उधर, कुण्डरीक, भूखे गिद्ध की भाँति भव भोगों के पीछे पड़े। जिसके कारण, उन के शरीर में अनेकों प्रकार के रोगों ने अपना अविचल अड्डा जमा लिया । यों, पूरे तीन दिन के भोग-विलास ने, उन्हें मोहमाया और श्रा-ध्यान के अधीन बना, पूरे-पूरे तैतीस सागर
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अन्नवे वहाँ संगों के पीछे पड़ने अपना