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पुण्डरीक कुण्डरीक
प्रासाद के मुन्दर और स्वादिष्ट भोजनों की श्रासक्ति ने, उन के बिहार के मनरसूबों को बिलकुल रोक दिया । गजा पुण्डरीक ने भी अपने भाई. मुनि की इस मनोवस्था का संदेश एक दिन सुना। ये मुनि के निकट श्राकर, उन के साधु-जीवन की सैकड़ा नरह से सराहना, और अपने विषय-वासना-लिप्त जीवन की हर तरह से निन्दा करने लगे। राजा की उन बातों को सुन कर कुगडरीक मुनि अपनी करण के लिए बड़ही लजित हुए। और, ज्यो त्यों, वहाँ से विहार कर, वे स्थविर मुनि की शरण में जा पहुँचे।
जवान के इसी स्वाद ने, बड़ी-बड़ों को श्राय दिनों, मिट्टी में मिला दिया । जो भी कोई इस के वश में हुया, श्रीधे मुंह की खाये बिना वह कभी न रहा 'रसना' शब्द स्वयं बतला रहा ह, कि यह स्त्री-लिंग वाचक है, अवलता-सूचक है। जगत् में, अवलों और दवुओं का साथ कर, कौन सबल बना है ? जनखों श्रार जनानी के सहवास में रह कर, वीर से वीर पुरुष भी एक न एक दिन, अवश्यमेव जनता और जनाना बन बैठता है। संसार के इतिहास के पृष्ट, ऐसे अनेकों उदाहरणों से रंगे पड़े है। चीर-सिरताज, भारत के प्राचीन बल-पौरुप के प्रत्यक्ष देवता, महाराज पृथ्वीराज चौहान ने, रणांगण में उतरने के कुछ ही पहले, संयोगिता से अपनी कमर कसवाई थी । यही कारण था, कि मुहम्मद गौरी के सामने, अतुलित बल, एश्वर्य और पौरुप के, महाराज के साथ रहते हुए भी, उन्हों ने मुँह की वाई । इसी प्रकार, सुभद्रा के नित्य के सहवास ही के कारण युवकों के मुकुट-मणि, भारतीय युवकों की अनूठी शान और मान के धनी, वीरवर अभिमन्यु चक्रव्यूह का छेदन न कर सके।
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