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जैन जगत् के उज्वल तार
यह अवला ही है। जब यह वाणी स्वयं ही अवला है, तो इस के अधीन में जाकर, कोई अनाथ, सनाथ तो वन ही कैसे सकता है ! अतः जरा विचार कर वालो। वोलन में इतनी जल्दी कभी न करो। फिर, आध्यात्मिक दृष्टि से, तो अकेले तुम ही क्या, सारा जगत् हो मुझे अनाथ जान पड़ता है। तव तुम मेरे नाथ हो कैसे सकते हो !"
मुनि की मर्म भरी वाणी को सुन कर, राजा सहसा चौक उठे । और तमक कर बोले, " मुनि जरा ठहरो! में कौन हूँ, इस बात का श्राप को पता नहीं है, इसी कारण, श्राप को मेरे सनाथ-पने में सन्देह हो पाया है। श्राप ने श्रेणिक सम्राट् का नाम तो अवश्य ही सुना होगा। वहीं मैं हूँ। मैं एक विशाल राज्य का अधिपति हूँ। हज़ारों सिपाही मेरे अधीन हैं । मेरा कोप, कुवेर के कोप को भी मात कर देने वाला है। इतने पर भी आप की निगाहों में मैं अनाथ ही बना रहा ! प्रांगे से, कभी भूल कर भी ऐसा न कहें।" उत्तर में, मुनि ने कहा, "राजन् ! अभी तक तुम यही समझ नहीं पाये, कि वास्तविक अनाथ और सनाथ कहते किसे हैं.? मैं पहले कौन था, ज़रा इसे भी जान लो । कौशाम्बी नगरी का मैं निवासी था । मेरे पिता, धन की अटूट प्रचुरता के कारण ही; 'प्रभूत-धनसंचक' के नाम से प्रसिद्ध थे । कुटुम्ब के सभी पुरुषों का 'मुझ पर अटूट प्रेम था। इतना ही नहीं, मेरे पसीने कीजगह, वे अपना खून बहाने को भी सदा तैयार रहते थे। एक दिन की वात है, जव कि मैं यौवन के बीहड़ वन में प्रवेश कर रहा था। मुझे नेत्रों की हृदय-वेधक पीड़ा हुई। उस से मुझे एक पल-भर भी विश्रान्ति न मिलती। मेरे पिताजी ने इस पीड़ा
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