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अनाथी मुनि का पिंड हुलाने के लिए, पानी की तरह. अपने परिश्रम से कमाये हुए धन को बढ़ाया। सारे कुटुम्बी मेरी पीड़ासे पीड़ित धे। बड़े-बड़े प्रसिद्ध वद्या ने उपाय किया। मेरे दुग्न से मेरी अागिनी तो इतनी पीड़ित हुई, कि खाना-पीना और नींद निकालना तक उस ने छोड़ दिया। सूख कर वह काँटा रन गई । फिर भी सांग प्रयन्न अकारथ हुए। कोई भी भौतिक उपाय उस पीटा से मुझे मुक्त न कर सका । अन्त में, कोई उपाय न देग्य कर, मैं ने अपनी यान्मा के सम्मुख प्रतिमा की, कि यदि में इस पीड़ा से मुक्त हो पाया, तो दीक्षा धारण कर नँगा । इस प्रतिमा के मेरे हृदय में प्रवेश करते ही, मेरी वह पीला, शशक अंग के समान उड़ गई । मैं ने भी अपन वचन का उसी समय पालन किया । मैं दीक्षित हो गया । तब से मैं प्राणी-मात्र की रक्षा और सवा में जुट पढ़ा। और तभी से मैं श्रनाथ से सनाथ भी बन पाया है। राजन् ! सनाथ, सच्चा सनाथ, तो वही है, जिसने प्राणी-मात्र की रक्षा तथा सेवा में अपने जीवन को निसार कर दिया हो । इस पर से तुम स्वयं ही बताया, कि तुम अनाथ हो, या सनाथ ? मैं जानता हूँ, कि अपने अनाथपन में श्राप को अब रंच-मात्र भी सन्देह न रहा होगा । जब बात ऐसी है, तब राजन् ! बताओ, श्राप मेरे नाथ बन कैंस सकते हो ?" ___राजा ने अपनी भूल को स्वीकार की। मुनि के दार्शनिक गृढ़ मान पर वे मुग्ध हो गये। मुनि के प्रति उन्हों ने अपनी हार्दिक कृताता प्रकट की। और, अपनी कृतज्ञता-प्रदर्शन के फल-स्वम्प, व जैन-धर्म के अनुयायी भी हो गये । सम्राट श्रेणिक को अनाथ और सनाथ के भेदाभेद की गृढ़ पहली
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