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सेठ-शालिभद्रजी अभी उन्होंने अधूरी समझी। अभी भी उनका कोई राजा चना हुआ है, यह बात तो, उन्हें शूलों की सेज से भी अधिक श्रखरी । नीचे पाते ही, राजा ने उनका सिर चूमा । और, अपनी गोदी में उन्हें बिठा लिया । राजा से एक-दो बात कर, चे पुनः ऊपर चले गये । ऊपर जाकर, उन्होंने मन में निश्चय किया कि अब के.ई ऐसी करणी की जाय, जिससे अपने सिर पर 'नाय बनने का कोई दावा ही कभी न कर सके।
मनुष्य अपनी भावनाओं का पुतला है । जैसी भीभावनाओं को वह रोज बनाता है, स्वयं वह वैसा ही बन जाता है। विचरत-विचरते, भगवान् चीर प्रभु, उन्हीं दिनों, उधर श्रा निकले । शालिभदजी को भी भगवान के अमृतोपम उपदेश के श्रवण का अवसर मिल गया। उनके भावों की भूमि, पहले सं शुद्ध और उर्वरा बन ही चुकी थी। सिर्फ प्रभु के पावन उपदेश-रूपी बीज कन-भर की देर थी। अपनी अटूट सम्पत्ति
और प्यारे परिवार से, सेठजी ने, उसी क्षण नेह नाता छिटका दिया। और, प्रभु के पास जाकर, दीक्षित हो गये। दोर्घ काल तक सयम व्रत का अनुष्टान वे करते रहे । अन्त में, संथारा उन्होंने लिया। तब 'सवार्थ-सिद्ध' नामक विमान में, वहां से पक भव और विता कर, मोक्षधाम के अधिकारी चे बनेंगे। __यौवन, सम्पत्ति, अविवेक और अधिकार के चतुर्विध संघ में से एक भी जहां होता है, नाश की आशंका निकट रहती है। जब ये चारों साथ होते हैं, तब तो सत्यनाश की बात दूर रह ही कैसे सकती है ! परन्तु कर्म की रेख में मेख मारने वाले विरले जन ऐसे भी होते हैं, जो अपने शुभ कर्मों के संयोग से, इनका सदुपयोग कर, सदा के लिए श्रमरात्म-कल्याण के अधिकारी
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