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सुश्रावक कामदेवजी भगवान् ने विगत रात में जो-जो घटनाएँ कामदेवजी पर घटीं, सब की सब कामदेवजी को कह सुनाई। फिर प्रभु ने समस्त साधु-साध्वियों को, जो वहाँ मौजूद थे, चुलाया । " गृहस्थ-धर्म में रहते हुए भी, श्रसह्य और असीम कट को कामदेवजी ने सहन किया हैं । यह सब कुछ हुआ । परन्तु धर्म को रंच मात्र भी इन्होंने नहीं छोड़ा। सभी गृहस्थों को ऐसे ही श्रादर्श मार्ग का अनुसरण करना चाहिए | साधु-साध्वियों का तो यह प्रधान कर्तव्य है ही । " श्रादि बातों को, सब के सम्मुख, प्रभु ने कही। सर्वय भगवान् की थाना को लोकोपकारक और भव-भय-विदारक मान कर, सभी ने एक स्वर से उसे श्रृंगीकृत किया ।
यूँ कामदेवजी काल-यापन करते हुए, अन्त के समय, एक महीने का सन्धाय ले, इस संसार से, प्रथम देव-लोक में जा विराजने और यहाँ से महा-विदेह क्षेत्र में जा कर जन्म धारण करने, तथा अपने देवोपम सुकृत्यों के द्वारा, सदैव के लिए मुक्ति में जा मिलने के हेतु, प्रस्थान वे कर गये ।
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अपने श्रात्मीय धर्म का सम्पूर्ण रूप से पालन करने ही में सच्चा कल्याण हैं । मनस्तोय का भी यही राज-मार्ग है । श्रात्मीय धर्म का पालन, स्वर्ग का सोपान है । यही निर्वाण-पथ का पाथेय है | इस महीपधि का सेवन करते ही, भव भय का रोग, बात की बात में भाग जाता है । श्रीर, श्रात्म-कल्याण की प्राप्ति का तो यह एक अचूक साधन ही है !
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