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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
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स्वी देव ने कुछ ही क्षणों के बाद, कामदेवजी को फिर वैसे ही स्वस्थ देखा, जैसे कि वे पहले थे । यों, एक के बाद दूसरा, और दूसरे के बाद तीसरा, कई सहा वेदनाएँ, उस वन उन्हें दी । परन्तु कामदेवजी अपने प्रण के पथ से एक तिलेभर भी विचलित न हुए। क्योंकि, वे खरा सोना थे । ज्यों-ज्यों तपाये वे गये दूनां दूनी दमक उन के चेहरे पर श्राती गई । अन्त' में, कुन्दन हो कर, वे जगत् के सामने श्राये । देव की दुष्कृतियों का दीवाला खसक गया । उसने अपनी हार मान ली। उसे स्वीकार करना पड़ा, कि " कामदेव दृढ़-धर्मी और प्रतिज्ञा- वीर हैं। मैं तो हूँ ही किस वाग की मूली ! स्वयं इन्द्र, देवराज इन्द्र भी कामदेव को अपन धर्म-पथ से भ्रष्ट करना चाहें, तो वे कर नहीं सकते । " तब तो अपना दिव्य देव-रूप उस ने प्रकट किया। और बोला, "कामदव ! तुम मनुष्यजाति के गौरव हो । तुम्हारा नर-देह सफल है। धर्म-धारी कोई हो, तो तुम्हीं जैसा। संकटों का पहाड़ तुम पर टूटा केन्तु एक इंच भी अपने पथ से तुम न डिगे । राकेन्द्र ने एक दिन भूरि-भूरि प्रशंसा तुम्हारी की थी। उसी समय, तुम्हारी दृढ़ता मैं मुझे सन्देह हुआ। उसी मन मलीनता स अग्नि परीक्षा आज मैंने तुम्हारी ली। परन्तु वह तुम्ही थे, जो उस में सफल हो पाये। नहीं-नहीं, सर्व प्रथम जो ठहरे। " अन्त में, देव ने अपने कृत अपराध के लिए बार-बार क्षमा-याचना, कामदेवजी से की। और, अपने स्थान को वह लौट पड़ा ।
कामदेवर्जी निरुपसर्ग हुए। भगवान् महावीर भी उन दिनों वहीं पधारे हुए थे। अपने पौषध-व्रत से निवृत्त हो, कामदेव जी, भगवान् की शरण में पहुँचे । धर्म-कथा के उपरान्त, सर्वश
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