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• सुःश्रावक कामदेवजी
उन्ह निश्चिन्त श्रीर निश्चल जान, वह उन पर टूट पड़ा। टुकड़े-टुकड़े, उन के उस ने बात की बात में, कर दिये। कामदेवजी ने हंसत-हसत उस प्राणान्तक परिपह को सह लिया । यह सब कुछ उन्हें सहन था। परन्तु धर्म को छोड़ना, उन के गृहस्थ-धर्म को तीहिन थी। अपन सत्य-धर्म के प्रबल प्रताप से, उस कर-कमां देव ने कामदेवजी को पुनः अपने पहले ही रुप में, वहाँ देखा । अब तो उस के क्रोध का पारा और भी बढ़ गया था।
इस बार मत्त मातंग का रूप उस ने धारण किया। और, कामदेव जी का काम तमाम करने के लिए,उन की ओर लपक पड़ा । सँड से उन्हें घर-पकड़ा; और श्राकाश की ओर, बहुत, ऊंचे पर, उन्हें फेंक मारा। गिरते-गिरते उन्हें अपने बड़े ही पैने दन्त शलों पर उन्हें भेला । यो, उन क शरीर को छिन्न-भिन्न कर, पैरों तले उन्हें सेंध मारा। इस से उन्हें जो भी असहा वेदना हुई । परन्तु कट-सहिप्णुता ने उन की काया का साथ न छोड़ा। उन का निश्चय सागर के समान गम्भीर था। हिमालय के समान वह अटल था। श्रीर, मन्दराचल के समान वह गुरु था। कुछ ही देर के याद, ये अपने स्थान पर ज्यों के त्यों बैठे थे। यह देख, काल के समान विकराल, वह देव अव बन गया।
उग्र-विपधारी सर्प का रूप उस ने धारण किया। कामदेवजी के सीने पर वह चढ गया । एक विषैला डंक उस ने उन्हें मारा। वेदना भी इस से उन्हें असीम हुई । फिर भी,धर्म को छोड़ने के लिए तो वे स्वप्न में भी तैयार न थे। उस मित्था
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