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जन जगत् क उज्ज्वल तार
न की । तपोधनी मुनि की सेवा करने और उन्हें श्राहारपानी वहरा कर तृप्त करने ही में उसने अपने मानवजीवन की सफलता मानी । उस के द्वारा प्रार्थना करने पर मुनि ने उस के घर जा, श्राहार-पानी ग्रहण किया। गुप्तचरों के द्वारा, उसी समय, यह वात राजा के कानों पड़ी। राजधानी के एक प्रसिद्ध वैद्य को उसी क्षण बुलाया गया ।
और, उसे राजाज्ञा मिली, कि वह विना विलम्ब किय उस कुम्हार के घर पर जा कर, उदाई मुनि को, किसी श्रीपधि के मिस, हलाहल विष का पान करा यावे । उसी के साथ, यह भी शर्त ठहरी, कि यदि यो मुनि का प्राणान्त करने में वह असफल रहा, तो वह अपने कुटुम्ब-समेत किसी कोल्ड में, ईख की भाँति, पिलवा दिया जायगा । वैद्य ने जाकर पहले तो मुनि की कृपा सम्पादन करने का प्रयत्न किया। तब उसने बताया, कि मुनि किसी भयंकर रोग से पीड़ित हैं, जिस का उपचार तत्काल होना चाहिए । मुनि सम-दर्शी थे । वैद्य की पाँचों अँगुलियाँ अब घी में हुई। उस ने बावन तोला और पाव रत्ती अपनी शक्तियों की श्राज़माइश की । मुनि ने पधि के मिस, हलाहल विप का, निःशंक हो कर, हँसते-हँसते पान कर लिया । विप की गर्मी ने ज़ोर मारा। दाह-ज्वर, मुनि का चौगुना भड़क उठा । परन्तु मुनि ज्ञानी थे । उन्हों ने अपने शुद्ध भावों में अणु-मात्र भी अन्तर न होने दिया। इसी भावशुद्धि के कारण, उन के हृदय में 'अवधि-ज्ञान' का उज्ज्वल प्रकाश होआया।अपने इस ज्ञान के द्वारा, उन्हों ने उसी समय जान लिया, कि राजाज्ञा से वैद्य ने उन्हें विप-पान करवाया है। राजा के इस कार्य की उन्हों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की । तथा, यह कहते हुए वार-बार अपन को उन्हों ने धिक्कारा, कि मैं ने
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