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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
य सुख की प्रखंड प्राप्ति हो । न-व-का-र महामन्त्र के, क्षण-भर के जाप मात्र से, मेरी यह घोरातिघोर विपदा, जब बात ही यात में ढल गई, तव जीवन-भर इस का जाप करने से तो मुक्ति अवश्य ही मुँह माँगी मिल सकेगी। इस में अचरज ही क्या ! वस, श्रवता दिन-रात में इसी का स्मरण करता गंगा | इस के बल सुझे पूर्ण विश्वास है, अक्षय सुख मेरा और मेरा, हो कर के रहेगा । " यों कह, दीक्षा लें, कुमारं चन की ओर चल दिया |
अमर कुमार व मुनि अमर कुमार बन गये । और, एक विशाल वृक्ष के तले ध्यानस्थ हो कर वे ठहर गये । उधर, कुमार की माता को प्राप्त सुवर्ण के छिन जाने की शंका हुई। वह मनही मन तरह-तरह के मनसूबे बाँधने लगी । वह सोचती थी, " यदि राजा दिया हुआ सुवर्ण, पीछा माँगेगा, तो उस के पहले ही, मैं छुरे से अपने पुत्र का काम तमाम कर दूँगी । फिर तो जब लड़का ही जिन्दा न रहेगा, तो सुवर्ण वह माँग ही किस प्रकार सकेगा ! इतने पर भी उसने अपनी हट यदि न छोड़ी तो मैं बदले में पुत्र को माँग बैदूंगी। पर कुमार को न पाकर, सोना हमारे ही पास रहेगा। " यँ सोचती समझती एक पैने छुरे को हाथ में ले, वह कुमार के पास, वनस्थली की ओर गई । कुमार ध्यानमग्न वहाँ बैठे ही थे । जाते ही उस ने कुरा उनके पेट में भोंक दिया। मुनि क्षमाशोल थे । सचमुच में अमर भी उन्हें चनना ही था । माता की करणी पर, जरा भी रोस उन के मन में न आया । वे सागर के समान गम्भीर और मेरू-गिरि के समान, अपने ध्यान में चल रहे ।
माता घर की ओर लौट चली। पुत्र-हत्या के घोर पाप से
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