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अमर-कुमार
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शक्ति की स्मृति श्राई । हवन कुंड के किनारे पर खदाखदा ही फुमार ध्यान-मग्न हो कर. उस का जप यह करने लगा। उधर होता (होम-कर्ता) लोगों ने पूर्णाहुति दी: और, कुमार को हवन कुंड में धकेल दिया गया । धधकती हुई अग्नि ने दिव्य सिंहासन का कप बना कर, कुमार का स्वागत किया भिय, उस से घर कोसों दूर था। कुमार की इस गति को देख कर, सभी होताओं के होश-हवाश ढीले पड़ गये। वे अचेत हो कर, घड़ाम से धरती पर गिर पड़े। इस प्रत्यन चमत्कार को देख, राजा क अचम्भ का भी कुछ टिकाना न रहा। राजा का सिर, लज्जा, भय और अत्याचार के कारण अव नीना था। कुमार के चरणों में गिर कर, उस ने अपनी दीर्घ-दर्शिता दिग्याई; अपने अपराध की क्षमा इस ने चाही। दव-यागी ने, कुमार के धवल यश का गगन-भदी गान, अलग ही किया। देव-वाणी ही के अनुसार, कुमार का चरणादक ल कर, अंचत व्यक्तियों पर दिया गया। और वे सब के सब स्वस्थ हो कर उठ बंटे। उन में सं भी प्रत्यक ने, बारी-बारी से, कुमार के चरण छूकर, अपने अपराध की क्षमा चाही । राजा न ता कुमार को श्रव राज तक दे दन को कहा। परन्तु कुमार की शाखा म नवकार महामन्त्र की अमोघ शक्ति के श्रांग, यह सब धूल था; मायामरीचिका का दिखाया था; सांझ अम्बर-डम्बर का दृष्य था। संसार की बड़ी से बड़ी शनि और वैभव, उसके मन को माहित करने में असमर्थ और जदथे । राजा को सम्बोधन करता हुया, कुमार बोला " सांसारिक बड़े से बड़ा चंभव भी, राजन् ! याग्विर कार क्षणभंगुर ही तो है । मुझे रात-भर भी इन की चाह नहीं। मैं तो अब यह कार्य करूंगा, जिस से अक्ष
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