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________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे का सौदा पट चुका था। तव कुमार की मुनने ही कोन लगा था ? आखिरकार उसे राजा के सन्मुख पेश कर ही दिया। उस समय, कुमार की काया काँप रही थी। उसकी पाखों से वहे हुए पानी के पनारे, उसे अलग ही डुबो रहे थे। मौत का विकराल खंजर उस के सिर पर लटक रहा था। फिर भी, रोता-विसूरता, राजा से वह बोला, "राजन् ! श्राप, प्रजा के पिता कहलाते हैं । जो अनाथ, असहाय, और अपाहिज़ होता है, उस के सच्चे रक्षक एक-मात्र श्राप ही होते हैं। फिर, मुझ असहाय और अनाथ ही को होम के हवाले क्यों किया जा रहा है । क्या, प्रजा के नाते, मैं आप का पुत्र नहीं हूँ ? अतः इस प्राण-नाशक संकट से आप ही मुझे उवारिये । श्राप शक्ति शाली हैं। शरणागत की रक्षा करना, आप का कर्तव्य और धर्म है।" "भाई ! तेरा कहना सब ठीक है। मैं सब का रक्षक हूँ। परन्तु अभी तो सौदा, दामों में हुया है। मेरा इस में दोप ही क्या ? हाँ, मुफ्त में जो मैं तुझे लेता, तव तो अवश्य ही अत्याचारी, आततायी और अन्यायी में कहलाता! अतः मैं अव कुछ भी नहीं कर सकता।" राजा ने बदले में कहा। अमर कुमार अव आधार हीन था। धधकते हुए अग्निकुंड के निकट वह लाया गया। उस समय, कुमार का रोमरोम खड़ा होकर, उस के माता-पिता के स्वार्थ और राजा के अत्याचार की शिकायत कर रहा था । भक्त-हृदय की परीक्षा भी पूरी-पूरी होती है । निर्वल का वल राम होते हैं । जहाँ अपबल, तपबल, वाहुवल और दाम-बल सिरपकट-पकट के, हार मान बैठते हैं, वहाँ प्रभु का नाम-स्मरण ही हारे हुए का हाथ श्रा कर पकड़ता है । कुमार को न-व-का-र महा मंत्र की अमोघ [ १४८ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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