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- जैन जगत् के उज्ज्वल नारे
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न फटकने दूँगा | सभी साधु-सन्तों की सेवा-शुश्रूषा करना, हर समय, मैं अपना कर्तव्य और धर्म समझँगा । गँदले विचारों ' के उत्पन्न हो थाने के कारण, प्रभुवर ! मुझे, प्रायश्चित्त-स्वरूप, दुवारा दीक्षित कर अपनी चरण-शरण दीजिए |" तदनुसार, भगवान् ने हर प्रकार से उन के भावों की शुद्धि की । आज से मेघ-मुनि, अपने नाम को सार्थक करने वाले मेघमुनि वने । जिस प्रकार श्राकाश-स्थित मेघ, जगत के कल्याण के हेतु अपने अस्तित्व को धूल में मिला देता है, ठीक उसी भाँति, मुनि ने भी लोक कल्याण की साधना में, अपने कर्तव्यपथ को निश्चित किया। तब से त्यागी भी हुए । त्याग ही उन के जीवन का एक मात्र ध्येय हुआ । थोड़े ही दिनों में उनके ज्ञान-ध्यान और तपस्या की तरंगिणी प्रचण्ड - रूप से तरंगित . हो कर उमड़ चली । जिस से जगत् श्राप्लावित हुआ । श्रन्त में, विपुल - गिरि पर सन्धारा ले कर, सोधे मोक्ष में वे सिधार 'गये।
सच है, ज्यों मेघ के बिना बिजली की दमक श्रसम्भव है, ठीक वैसे ही चिना विपत्ति के मनुष्य के वास्तविक गुणों का विकास भी कभी नहीं हो पाता ।
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