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________________ चित्त और सम्भूत का यहो जादू, चित्त और सम्भूत के कंठ और करों में था। नगर की जिस गली से भी हो कर ये निकलते, जनता अपना सारा काम-काज छोड़ कर, इन के राग-रागनियों को सुनने के लिए, पागलों की भाँति दौड़ पड़ती। नगर की नारियों और बालिकाओं का भाग, इस में, पुरुषों की अपेक्षा अधिक रहता। संगीत कला का, एक ओर तो, श्वपच-बालकों के कंठ और करों के इशारों पर मनमाने रूप से नाचना ; और, दूसरी ओर, नगर की कुलीन कामिनियों की उन के पीछे वह सुध-बुध-हीन भगदौड़ ! नगर के भले लोग इस बात . को और अधिक समय तक न देख सके। वे राजा के पास फर्यादी बन कर दौड़ पड़े। प्रस्ताव पेश हुआ, कि या तो श्वपत्र-वालक ही नगर में रहें; या हम ही। राजा ने उन के दर्द का समर्थन किया। दोनों श्वपच चालको को, तब तो, देश से उसी समय, निर्वासित कर दिया गया। राजा, प्रजा का पिता कहलाता है। उसे चित्त और सम्भूत की भी दो-दो बातें, कम से कम सुन लेनी चाहिए थीं। परन्तु प्रकृति स्वयं चलवान को चुनती है । वेचारे कमज़ोरों की दुनिग में कहीं दाद-तक नहीं। अनुचित और अविचारपूर्ण राजयोपणा से, चित्त और सम्भूत के दिल को बड़ी भारी चोट लगी। इस अपमान के कारण, वे अात्म-बध तक करने पर उतारू हो गये। इसी उद्देश्य कापूर्ति के हेतु, कालिंजर पर्वत की चोटी पर चढ़ गये। वहाँ से वे गिरना ही चाहते थे, कि इतने ही में, एक संयम-व्रतधारी मुनि वहाँ श्रा निकले । उन्होंने मामले की असलियत को खोज-खोज कर छाना । तद्दपरान्त वे वोले,- "प्यारे वालको, जब तुम्हें मरना [६]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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