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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
ही है, तो यूँ गीदड़ों और कायरों की मौन से क्यों मरते हो ! मानव-जीवन बड़ा ही मँहगा है । यहाँ ग्राकर, जाना तो सभी को पड़ता है । परन्तु कुछ काम करते हुए वीरों की भाँति, यहाँ से जाओ। मरो; और ज़रूर मरो । परन्तु यूँ मरो, कि संसार तुम्हारे मरने को अपना ही मरना समझे । " मुनि की ये बातें उन्हें चुभ गई। उन्हीं के द्वारा, वे वहीं दीक्षित हो गये । और, मास-मास खमण की तपश्चर्या करते हुए इधर-उधर विचरने लगे ।
एक बार हस्तिनापुर में गोचरी के लिए वे पहुँचे। वह दिन उन के पारणे का था । नमूची को, उन के द्यागमन का, कहीं से, सन्देश मिल गया । उसे भय लगा कि कहीं ये लोग उस का
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भण्डा न फोड़ दें। अपने नौकरों के द्वारा, मार-पीट कर उन्हें नगर के बाहर निकाल देने का मनसुबा उसने किया । तदनुसार, नौकरों ने श्रा उन्हें पीटना शुरु कर दिया । 'चित्त 'ता इस मार-पीट से चंचल न हुए। परन्तु पारणे के दिन 'संभूत' को यह बात सहन न हुई । उन्होंने तेजोलेश्या के द्वारा, नगर में - धुकड़ मचा दिया । चित्त को जब इस बात का पता लगा, तो वे अपने भाई के निकट था, उन्हें अपनी साधुता के मार्ग की याद दिलाने लगे । सम्भूति, बदले में, चोले, "भाई ! एक तो पार का दिन। तिस पर, निरपराध मार-पीट | मैं इसे सहने को तैयार नहीं । इस से सन्धारा कर लेना ही अच्छा है । चित्त ने इस वात का समर्थन किया । तदनुसार, वे दोनों सन्धारा लेकर सो रहे ।
इस घटना का हाल हस्तिनापुर के सम्राट् ने सुना । वे बड़े ही घबरा उठे । और सहकुटुम्ब चले चले, मुनियों की
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