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________________ सेन 'जगत् के उज्ज्वल तारे पड़ेंगे। उस घर में, एक बार, जो भी आया, कभी विसुख हो कर नहीं लौटा । " दांसियों में से एक ने आगे बढ़ कर कहा । व्यापारी और चाहते ही क्या थे ! वे तो, ऐसे ही एक पारखी की खोज में, स्वयं ही थे । तुरन्त ही वे उठ खड़े हुए, और, दासियों के साथ हो लिये । सेठ के घर में घुसते ही, वे बड़े चकित हो गये । राज-प्रासाद से भी वह उन की आँखों में, अनोखा जँच पड़ा। परन्तु दासियों के द्वारा, यह जान कर कि भवन का यह भाग तो, सेठजी के दास-दासियों के रहने का है, व्यापारियों के अचरज का ठिकाना न रहा । वे आगे बढ़े । आगे चल कर, मुनीम- गुमाश्तों के श्रावासों के पास से वे गुज़रे । यहाँ का वैभव, उन्हें बड़े-बड़े महाराजाओं के वैभव से भी बीसियों गुना जँचा। तीसरी वार, वे सेठ की माता, भद्रा के भवन के पास पहुँचे । महल क्या था, मानो देव ही ने, विश्व के विशाल वैभव को एकत्रित कर, उस की अपने हाथों रचना की थी । वासियों ने माता को व्यापारियों का परिचय दिया । तब तो भद्रा और व्यापारियों के बीच नीचे की बात-चीत हुई: क्या चीज़ है ? " रत्नजटित कम्बल । कितने है ? 2:3 "यदि एक भी कम से कम थापने ले लिया, तो इस नगर में थाना हमारा सार्थक हुआ। क्योंकि प्रत्येक की क़ीमत, सचा बारा स्वर्ण मुद्राएँ हैं । 35 "श्रजी ! नील-तीस की बात तो मैं पूछती ही कहां हूँ। मैं [ ७६ ] 66 .. 33
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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