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सेठ-शालिभद्रजी होते हुए भी, किसी योग्य ग्राहक की फिराक में, वेचारे वाट के बटोही वे बने हुए थे । खाना-पीना और विश्राम, अाज उन के लिए, सव हराम था।
जय तक संसारी-चल का मद, मनुष्य के मन पर शासन करता रहता है, कुदरत का कानून उस के पक्ष में नहीं होता। पर ज्योंही उस मद ने उस का साथ छोड़ा, कि उसे कोई न कोई अपने अवलम्बन का सुलभ मार्ग मिल ही जाता है। उसी समय, शांलिभद्र सेठ की दासियाँ, पानी भर लाने के कारण उधर से निकलीं। व्यापारियों को नत-मस्तक और शोक-ग्रसित देख, उन्हों ने उन की उदासी का कारण, उन से पूछा । " इस से तुम्हें कोई सरोकार ? अपना रास्ता नापो!" उत्तर में व्यापारियों ने कहा । इस पर, "श्राप लोग दूकानदारी करने निकले हैं ! इस में, मनुष्य जय तक, सब की दारी-दासी बन कर नहीं रहता, सफलता उस से कोसों दूर रहती है। ऐंठ और व्यापार का गठ-जोड़ा, किसने, कहाँ, और कव देखा सुना और किया है ?" दासियों ने कहा । व्यापारियों में से एक वृद्ध के हृदय को ये वाक्य तीर-से लग गये। वह चोला, " मानी तुम्हारी वात ! लो, सुनो! रलजटित कम्बलों के व्यापारी हम हैं । बड़ी-बड़ी श्राशाएँ वाँध कर, राजा श्रेणिक के पास, दूर से चल कर आये थे। परन्तु 'सुहावन ढोल लगती दूर की है, 'के नाते विक्री हमारी कुछ हुई नहीं । बस, इसीलिए हम उदास हैं। और कुछ नहीं।" ____ "बस, यही बात, और इतनी उदासी ! हमारे सेठ जी से भी तुम मिले हो ? उन से मिलने पर तुम्हें जान पड़ेगा, कि जितने भी कम्बल तुम्हारे पास अभी हैं, उतने ही तुम्हें और लाने
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