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________________ दंड-मुनि - कर के, कड़ाके करते-करते मुनि को छः मास चीत गये । एक दिन छः मास के अन्त का दिन था । मुनि, सूख कर काँटा बन गये थे । परन्तु तपोतेज से मुनिं का चेहरा और भी भव्य वन गया था । गोचरी के लिए द्वारिका में वे गये। 1 उसी दिन महाराज श्री कृष्ण वासुदेव ने भगवान् से उन के अठारह हजार मुनियों में से, कठोरतम तपोधनी, श्रर उसी दिन कैवल्य ज्ञान को प्राप्त करनेहारे मुनि का नाम-धाम पूछा। उन्हीं के संसारी पुत्र, इंद्रग-मुनि की बात भगवान ने बताये | इस पर महाराज कृष्ण वासुदेव, श्रानन्द के मारे चाँसों उछल पड़े। उनके दर्शनार्थ, भगवान के सम्मुख अपनी इच्छा उन्होंने प्रकट की । भगवान के बताये हुए पथ पर, तुरंत ही गजारूढ़ हो, वे चल भी दिये । मार्ग ही मैं, मुनि के दर्शन उन्हें हो गये । एकाएक हाथी से नीचे वे उतर पड़े । विधिविधान सहित मुनि का चन्दन उन्होंने किया । तत्र महाराज श्री कृष्णजी अपने महलों में पधारे, और, मुनि ने अपना मार्ग पकड़ा। इसी घटना को एक सेट ने अपनी श्रांखों से देखा । श्री कृष्ण वासुदेव जैसे प्रचण्ड प्रतापी महाराजाओं से चन्दनीय मुनि की निरख श्रात्मार्थी, मुनि के प्रति, सेठ के हृदय में श्रद्धा का सागर उमड़ पड़ा। तब तो बड़े ही प्रेम से वह अपने घर मुनि को ले गया। उन्हें मोदक उसने चहराये। श्राज तक कठोर अन्तराय कर्मों के द्वारा, मुनि की परीक्षा हो रही थी । श्रव समय ने पलटा खाया। मुनि स्वयं ही, श्राज श्रपने कठोर कमों की जाँच करने के लिए, मैदान में उतर पड़े। भगवान् के पास उन लड्डुओं को लेकर वे पहुँचे । वे बोले, "प्रभुवर ! श्राज छः मास से तो एक चना तक गोचरी में [३]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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