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जैन 'जगत् के उज्ज्वल तारे
मुझे नहीं मिला और श्राज ये मोदक मुझे प्राप्त हुए हैं । कहिये, ये मेरी स्वयं की लब्धि के हैं, या नहीं ?" " वत्स ! यह तो महाराज श्री कृष्ण की बन्दना का कारण है । तेरी लब्धि का यह फल नहीं ।" यह सुन कर भी, मुनि का मन ज़रा भी मैला न हुआ। आज पूरे छः मास, कड़ाके करते-करते, उन्हें वीत चुके थे। अभी तक उनके भाव भी कुन्दन के समान शुद्ध और चमकीले निकल चुके थे । उन्हीं लड्डुओं को ले, पास की निर्दोष भूमि पर, उनको चूर कर वे पटकने लगे। मुनि के द्वारा, उन लड्डयों का चूरना, सचमुच में श्रपने ही घनघाती कर्मों को चूरना था | आज भगवान् ही की कृपा से, अपनी प्रतिज्ञा के कठोर मार्ग से पतित वे न हो पाये। यही विचारविचार कर, अपने भाग्य की सराहना वे करते जाते थे । प्रति पल, प्रभु के प्रति, वे अपना आभार प्रदर्शन करते हुए, बीचबीच में अपने आप को अनेकों बार वे धिक्कारते भी जाते थे, कि जन्म-जन्मान्तरों में, इस जीव ने अनेकों प्रकार के खाद्य और पय पदार्थों का सेवन किया है; परन्तु अघाया यह श्राज तक भी नहीं है । यूँ, लड्डुओं को चूरते चूरते, अपने सम्पूर्ण घन घाती अन्तराय कर्मों का अन्त भी मुनि ने कर दिया उसी क्षण, कैवल्य ज्ञान ने उन का हाथ श्रा पकड़ा। वस, मुनि को अपनी कठोर तपस्या का फल मिल गया। अन्त में कैवल्यधाम को वे सिधारे ।
कैसे ही कठोर -तम घनघाती कर्म क्यों न हो । तप के वल, सच का एकान्त अन्त किया जा सकता है। यही कारण है, कि तप की महिमा, सभी धर्मों और शास्त्रों ने मुक्त कंठ से गाई है । परन्तु यह तप हमारा सात्त्विक होना चाहिए ।
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