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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
मनुष्य के जन्म-जन्मान्तरों के भाग्यों का उदय होता है, तभी सत्संगति उसे मिलती है । और, सत्संगति के प्राप्त हो जाने पर, जव अज्ञानजन्य मोह तथा मद के अन्धकार का अन्त हो जाता है, तभी विवेक की श्राँखें उस के हृदय में खुलती हैं। बस, इतना कर लेने ही में मानव जीवन की सफलता है। अर्जुन को, भगवान् के एक ही वार के उपदेश से, संसार से उपराम हो गया । उसने अपने कुत्सित कर्मों के लिए हार्दिक पश्चाताप किया । भगवान् के द्वारा वह दीक्षित हो गया । श्रव वही अर्जुन, जो कल तक एक माली था, आज एक पञ्चमहाव्रत धारो, कञ्चन-कामिनी के त्यागी मुनि के रूप में 'जगत् के सामने आया ।
प्रभु की श्राज्ञापा, वेले-वेले की तपश्चर्या उन्हों ने की । पार के दिन, जब कभी वे वस्ती में श्राहार- पानी के लिए जाते, लोग उन्हें अपना अपने सम्बन्धियों के जानी दुश्मन मान कर, मन माने क्रूर कर्म उन के साथ करते । श्राहार- पानी भी कभी उन्हें मिलता और कभी नहीं । परन्तु उन्हें अपने घनघाती कर्मों का जड़मूल से उच्छेदन करना था । वे सन्तोपपूर्वक, सम-भावों से, जो भी कुछ परिषह सिर पर आ कर पड़ता, हँसते-हँसते उसे सहते रहे। यूँ पूरे-पूरे छः मास तक का साधु - जीवन उन्हों ने विताया। और तब अपने सम्पूर्ण कुत्सित कर्मों का क्षय सदा के लिए कर वे मोक्ष धाम को पधार गये । सच है, 'पारस परसि कुधातु सुहाई ।' सत्संगति से क्रूरकर्मा अर्जुन का भी उद्धार हो गया।
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