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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे गये। श्राचार्य ने उस से पहले अपने को पिलवा देना चाहा। परन्तु नर-संहारक पालक ने उन की जरा भी नहीं सुनी। उसने श्राचार्य के देखते ही देखते उसे भी उस कोल्ह में पिलवा दिया। यह देख, श्राचार्य का हृदय, क्रोध के कारण उवल पड़ा। उनके हृदय में क्रोध और बदला चुकाने की भावनाओं का एक चारगी ज्वार-भाटा सा आ गया। अन्य मुनियां ने तो हँसते-हँसते इस रोमाञ्चकारी वेदना को सह लिया था। यही कारण था, कि वे प्रत्येक अपने पाठों घन-घाती कमों का एकान्त अन्त करने में पूर्ण सफल हो सके । और, वे मोक्ष में भी पहुँच गये । परन्तु आचार्य की अन्तिम भावनाओं में, क्रोध का उग्र उवाल था । वस, इसी कारण से, श्राचार्य को पुनजन्म धारण करना पड़ा। दूसरे जन्म में, वे भुवनपति में जाकर, अग्नि-कुमार क रूप में उत्पन्न हुए । समय पाकर, तय वहीं से, उन्होंने अपने प्रतिपक्षी के प्रदेश पर, अग्नि की भयंकर वर्षा की। परन्तु अपनी बहिन के खास प्रासाद को विलकुल छोड़ दिया । वस, उसी दिन से उस प्रदेश को लोग 'दण्डकारण्य ' कहने लगे। __ अतः अन्तिम समय में, जैसे भी हमारे भाव होते हैं, वैसी ही हमारी गति होती है। तव हमें अपने भावों को सदा सर्वदा शुद्ध तथा सम बनाये रखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। साथ ही, हमें यह भी कभी न भूलना चाहिए, कि द्वेप की प्रचण्ड प्राग, केवल प्रेम ही से वुझाई जा सकती है। द्वप से तो वह उलटी और भी धधक उठती है।