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________________ संयति राजा मुनि टस से मस भी न हुग । क्योंकि, ये ध्यान-मग्न थे। नव तो राजा, मुनि के पूर्ण श्रावश की आशंका कर, और भी ययग उठे। जान-वृझ कर काल को श्रामंत्रित करने की बात, उन के सम्मुन्न बार-बार अपना ताण्डव नृत्य दिखाने लगी। इतने ही मुनि ने अपना ध्यान ग्योला । वे राजा से बोले" राजन ! इंग नहीं। मग पार से तुम्हें अभय रहना चाहिए। मुझे देगा, जिस प्रकार भय तुम्हारे मन में घुस बेटा है, तुम्हारे बन में प्रवेश करने ही. सम्पूर्ण वनले पशु भी, टीक उसी प्रकार भयभीत हो उटते हैं । मेरे द्वारा अभय-दान से जिन प्रकार तुम्हें मुम्ब पहुँचा है. वैसे ही. तुम भी सम्पूर्ण वनचरों को श्रमय-दान प्रदान कर, सदा के लिये, मुखी उन्हें बना सकते हो । गजन् ! ये सारे गट-पाट यहीं के यही घरे-पट्ट रह जायेंगे। क्योंकि, जीवन अनित्य है; क्षण-भंगुर है: चपला के नमान चंचल है। हिंसा और राज्य की यह श्रासहिता, तुम्हें और भी चौपट्ट किये दे रही है । कभी परलोक का विचार भी करते हो, या नहीं ? जगत् के सम्बन्ध, सम्पत्ति, और मुग्य का परलोक से ज़रा भी सम्बन्ध नहीं है। " परम नयन्वी मुनि के अश्रुत पूर्ण वचनों को सुन कर, राजा के विचारों में एकाएक ग्बल-बली मच गई। उन्हें अपने संसारी ऐश्वर्य, नुम्ब, और संघातियों का, अभी तक, बड़ा ही थभिमान था। परलोक के सम्बन्ध में व श्राज तक वे खबर थे। संसार से उसका मन फिर गया। अच्छे काम में देर करना उन्होंने अपराध समझा। अपने नाम को सार्थक करते हुए, तब तो उसी जग, व संयति राजा से, संयति मुनि बन गये। यत्र-तत्र विचरण वे श्रय करने लगे। [ ३]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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