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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
झते थे। रात दिन शिकार में रत चे रहते । क्षत्रिय हो कर भी, अभय-दान वे किसी को न देते थे । साथी भी इन के परले दर्जे क खुशामदी और स्वार्थी थे। प्रीति तो उन की राजा और राज्य दोनों में भी ; पर थी वह भय के कारण । थोड़े में,
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66 सचिः, वैद, गुरु, तीनि जो; प्रिय बोलहिं भयन्यास | राज, धर्म, तन तीनि कर; होड़ वेगही नाश ॥ वाले सारे साधन वहाँ था जुटे थे । वे सदैव ठकुर सुहाती बातें राज को कहते । श्रतः सत्य से, राजा, कोसों दृर थे ।
एक दिन संयति सैर-सपाटे को निकल पड़े। जंगल में प्रवेश करते ही, एक हिरन का पीछा वे करने लगे। बेचारा हिरन प्राण छोड़ कर भागा। श्राखिरकार, केशरी नामक वन में घुसते घुसते, राजा ने उसे तोर मार ही दिया | काल के मुँह में जाकर भी, प्राणी, प्राणों की रक्षा ही का उपाय सोचता है । हिरण वाण-विद्ध था । तव भी दौड़ता गया । और भागते-भागते, तपोधनी गृद्धभाली मुनि के स्थान पर, जहाँ वे ध्यानस्थ खड़े थे, धड़ाम से धरती पर गिर कर उस ने अपने प्राण छोड़ दिये । संयति के भी संस्कार श्राज वदलने वाले थे | वैसे ही समय, साधन और साथी उसे श्रा मिले । राजा तो हिरन के पीछे पहले ही से लपक रहे थे। मुनि के निकट मरा पड़ा उसे देख मुनि का पालतू मृग उसे माना । अब तो ऋपिवर के श्राप की श्री शंका कर, एड़ी से पैर तक
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अनेकों प्रकार के
पसीना उन के श्रा गया । इस के लिए,
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आत्म- धिक्कार के शिकार भी वे कृत अपराध की क्षमा के लिए पड़े। मुनि के निकट जा
मन ही अश्व की क्षमा-याचना भी
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मन वने । अपने
पीठ से वे उतर उनने की । परन्तु