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जैन जगत् के उज्ज्वल तार
ही खिन्न हुए । कुमार को खूब ही समझाया-बुझाया । अन्त में, जय कुमार को किसी भी प्रकार के समझा न सके, तब केवल एक दिन के लिए राज्यासन पर बैठ कर, उस का सुखोपभोग करलेने का आग्रह, उन्हों ने कुमार से किया। कुमार ने अपने पूज्य पिता-माता की आज्ञा को सिर पर धारण की। अव उन्हें दीक्षा लेने में और भी सुविधा हो गई । माता पिता ने बड़े समारोह से उनकी दीक्षा करवाई। उसी दिन प्रभु की
आज्ञा प्राप्त कर, वे 'महाकाल' नामक एक बड़े ही विकट स्मशान में चले गये । वहाँ उन्हों ने भितु की बारहवीं घडिमा अंगीकार की। अर्थात् रात-भर ध्यानारूढ़ हो, खड़े रहने की प्रतिज्ञा उन्हों ने की । दिन चीता। सन्ध्या और स्मशान की भयंकरता ने मिल कर ज़ोर पकड़ा। निकट कामार्गभीमानवहनि बन गया। आस-पास की इस गम्भीर और नीरव शान्ति ने मुनि की शान्ति को और भी द्विगुणित कर दिया। घायघाँय करती हुई चितायों की प्रचण्ड धधक ने मुनि के तेज को और भी चमका दिया। इतने ही में, उन का भावी श्वसुर सोमिल, अपने यज्ञादि के लिए समिधा की खोज करता हुआ, उधर श्रा निकला। उस ने कुमार को पहचान लिया। तव तो वह आपे से बाहर हो गया। अनेको प्रकार के हृदय-विदारक चोल, वह कुमार से बोल पड़ा। "अरे निष्ठुर ! एक ओर तो तेरा यह जघन्य आडम्बर ! और दूसरी ओर, मेरी सुशीला कन्या के साथ, तेरे विवाह की सज-धज के साथ तैयारियाँ ! मेरी निर्दोष कन्या को तू छोड़ कर चला कैसे पाया ! इस प्रचण्ड पाप का फल तुझे देर या सवेर में भोगना अवश्य पड़े-- गा। देर-सवेर की कौन-सी वात ! अपनी करणी का फल, मैं तुझे इसी समय चखाये देता हूँ।" यों कह, पास ही के
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