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भृगु-पुरोहित
में श्रा मिले । पिता ने कहा, बेटा! तुम चले कहाँ गये थे! जिन डाकुओं की बात मैं तुम्हें आज तक कहता रहा, वेही, श्राज, यहाँ पहुँचे थे। तुम्हारी उनकी चार आँखे तो नहीं हुई ? उन्होंन कोई जादू-टोना तो तुम पर नहीं किया ? तुम्हें न देख कर, मेरे हाथ-पैर फूल गये थे । धरती मेरे पैर-तले से भाग रही थी। चेटा! तुम भले या मिले !" पुत्रों ने कहा, "पिताजी ! न तो व चोर है: न डाक ही वे हैं। वे तो साधु हैं। पराय के हित अपना प्राण देने वाले हैं। श्राप की शिक्षा
और संसार के व्यवहार की नाड़ी को हमने परख लिया । हम इससे अधिक और कुछ कहना नहीं। केवल हमें तो श्राप दीक्षित हो जान की श्राशा दे दीजिए । हम दोनों आये भी श्रापके प.स इसीलिए हैं।"
पुत्रों के इस कथन से पिता का प्राण सूख गया। उन्होंने सैकड़ों प्रकार से अपने पुत्रों को समझाया । तरह-तरह की दम-दिलासा उन्हें दी। पर ऐसा कौंन अभागा जौहरी होगा, जो जान-बूझ कर, अपने अमूल्य हीरे को काँच के टुकड़े से बदले ! पिता जब अपने प्रयत्न में असफल हो गया, तब नो वह स्वयं ही उनके साथ दीक्षित होने के लिए चल पड़ा। यह देख, यशा ने सैकड़ों प्रलोभन अपने पति को दिखाये । परन्तु पुत्रों का त्याग इतना जबर्दस्त था. कि अन्त में माता ने भी, अपने पुत्र और पति ही का साथ दिया। चारों लोग मुनि के निवाट चल पड़े। मार्ग में चलते हुए वे यूँ जान पड़े, मानो, परमार्थ के चार प्रधान साधन-धर्म, अर्थ, काम और मोन-चे हो। वहाँ के राजा को यह घटना मालूम हुई। उसने अपने
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