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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
सेवकों को, पुरोहित की सारी अटूट सम्पत्ति को, अपने राज कोप में ला डालने का हुक्म दिया। तदनुसार, धन की गा ड़ियाँ भर-भर कर राज- कोप में आने लगीं । राज-महिपी कमलावती ने इस करतूत को देखा । दासियों से उस की सारी छान वान उसने की। "पुरोहित भृगु का त्यागा हुआ यह धनं है, " दासियों के मुँह से यह बात सुन कर वह चकित हो गई। उसी समय उठ कर वह राजा के पास गई । वह बोली:
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'भगवन् ! अपने ही द्वारा दान दिये हुए धन पर पीछा अपना ही अधिकार ! यह तो अनीति हैं ! वमन किये हुए पदार्थ को फिर से चाटना है ! कौथों और कुत्तों के भाग को अपनाने की अधिकार वेश करना है ! " रानी के हित-प्रद, किन्तु अप्रिय वचनों से, राजा एकदम तमतमा उठे । और, बोले, [: रानी ! तुम किसे कह रही हो ? क्या कह रही हो ? और, किस तरह से कह रही हो ! ज़रा, इन बातों का भी कोई भान तुम्हें है या नहीं ? तनिक अपने शरीर की ओर तो देखो ! क्या तुम भूल गई, कि इसी, और एक मात्र इसी प्रकार के तामसं धन से, तुम्हारे इस तन का पालन-पोषण हुआ हैं ? आज जितनी भी तुम्हारी शान और शौकत हैं, सब ऐसे ही प्राप्त धन पर पनप रहे हैं ? अगर ऐसा ही है, तो क्यों इन वहु-मूल्य वस्त्राभूषणों को तुम अपने तन पर धारण किये हुए हो ? क्यों नहीं तुम इन्हें उतार फेंकतीं ? " रानी ने बदले में कहा, " नाथ ! इस तन धन ही की क्या बात ! मैं तो इस सम्पूर्ण राज-सुख-वैभव और राज्य तक को, ' विप रस-भरा कनक घट जैसा, ' समझती हूँ: विप में बुझाये अस्त्र-शस्त्रों के समान मानती हूँ । लीजिए ! आज से ये मेरे नहीं और मैं
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