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भृगु पुरोहित इन की नहीं ! परन्तु चलते-चलत, मैं इतना फिर श्राप से कहूँगी, फि यह अनीति से कमाया हुश्रा धन और धरती, सर यहां के यहीं रह जायेंगे। एक न एक दिन अपने को, ये सब छोड़-छाड़ कर, यहाँ से चलना पड़ेगा। तब क्यों नहीं, सुकत्या डाग, पाए अपने जीवन और जन्म को -सुधार लेते हैं ? सोचिए; और, बार-बार सोचिए !" रानी की ये बातें, राजा के हृदय के हृदयं को लग गई। उन के हिये की आँखें बुल गई। श्रर संसार और उस का बड़े से बड़ा वैभव तथा मुग्न, उन की गाँवों में घोरतम घृणा की वस्तु थी; और थी नारकीय यातना । पुरोहित के परिवार के साथ ही साथ, राजदम्पत्ति भी दीक्षा धारण करने के लिए दौड़ पड़े। सब के सब मिल कर, मुनियों के निकट चे पाये । और, दीनाधारण कर, अमर श्रात्म-कल्याण के अधिकारी वे सदा के लिए. बन गये। सत्र है(१) समय पाकर, मन्तों की चागी, अवश्य फलती है।
और (२) कर्म की रेख में मेघ मारना, चिरले कर्मचारी ही का काम।