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जैन जगत् के उजाल नारे
रास्ते में, दोनों चालकों की मुनियों स भेट हो ही गई। मुनियों को देखते ही बालक अपना प्राण बचाकर भागे । और, अन्त में, वे किसी बीहड़ बन में, एक बड़े भारी वट वन के कोटर में जा छिपे । मुनियों का मार्ग भी वही था। चलते-चलते वे भी वहीं आ पहुँचे। और, उस वृक्ष की सघन छाया में भोजन ग्रहण करने लगे। उधर, बालयों के प्राय अलग ही सूखे जा रहे थे। अपने पिताजी के कथानुसार, उन्होंने उन साधुनों
को सचमुच में यमराज के दूत ही समझ रक्खा था। ___इतने ही में गुरु ने शिष्य को कहा, " देखो, पैर तले दब कर बेचारीवह चींटी कहीं मर न जाय।" मुनि की इस बात ने वालकों के हृदय को कुछ हरा-भरा-सा कर दिया। वे सोचने लगे, अरे! जब ये चीटी जैसे प्राणी तक की प्राण रक्षा का इतना ध्यान रखते हैं, तब मनुष्य-जैसे प्राणी को तो ये मार ही कर सकते हैं ! जान पड़ता है, पिता ने हमें उलटी पट्टी पढ़ाई है। हो न हो, इस में कोई गढ़ बात है।जोभी कुछ हो, नीने उतर कर, इन का कुछ परिचय अवश्य प्राप्त करें। चालकों ने अपने निश्चय के अनुसार वैसा ही किया। उनके पूर्व कृत कर्मों ने करवट बदली। कुछेक देर की वात-चीत से ही उन्होंने जान लिया, अर्थात् उन्हें ज्ञान हो पाया । पिता की शिक्षा और चमक-धमक का सारा रहस्य उन्हें ज्ञात हो गया । सन्तों का अमोघ, अचानक आर अकारण कृपा से उनके सम्पूर्ण पापों का भण्डा फूट गया । संसार अब उनकी आँखों में असार था। एक-मात्र दीक्षा धारण करने का सत्य संकल्प उनके सामने था। मुनि ले उन्होंने विदा माँगी। चले-चले चे घर को आये । पुरोहितजी भी उन्हें हूँढते-ढुंढाते रास्ते ही
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