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जिनरिव - जिन पाल
भली बातें कोई कहे, मनुष्य-स्वभाव, उसे मानने के लिए कभी भूल कर भी उतारू नहीं होता ।
मनुष्य का मन सरलता का श्रनुगामी हैं। लोग, लम्ब और श्राधार के संयुक्त तथा लम्बे, किन्तु पक्के मार्गों को छोड़ कर, कर्ण रूप सीधे, किन्तु कलि मार्गों का अनुगमन करना सदा से पसन्द करते श्राये हैं । यह सब कुछ होता है । इतने पर भी लोग अपने प्राणों तक को संकट में डाल कर, श्रात्मो नति के अर्थ, अनुभव भी अनेकों, सदा करते ही रहते हैं। देवी ने दक्षिण के बाग में पैर रखने की सख्त मुमानियत की थी । उस बात ने तो उसे देखने की उत्कंठा को और भी उग्र कर दिया । इस एकान्त जीवन से मृत्यु का श्रालिंगन भी यंत्र उन्हें सुखद एवं शीतल जान पड़ने लगा था । निःशंक हो कर, दोनों उस और चल ही पंड़ । निकट श्रांत ही, वहां की सड़ान से, उन का नाक और सिर सड़ने लगा । आँखे ज़रा और भी दूर फेंकी, तो सामने की थोर, वृक्षों के झुरमुट में, अस्थि-पंजरों का एक बड़ा भारी ढेर नज़र श्राया । वे उस के निकट गये । पढ़ीस ही में, एक ज़िन्द मनुष्य को, जो शूली पर लटकाया ही जानेवाला था, बड़ा देखा। वे उस से पूछने लंग, " भाई ! तुम्हारी यह दशा क्या ? और, हर्दियों का हृदय विदारक यह ढेर यहाँ कैसा ? " " भाई ! इस द्वीप में तुम्हारे पैर रखने के कारण ही मेरी यह दशा हुई हैं। जब कभी भी, कोई नया व्यक्ति उस चंडिका के हाथ यहाँ चढ़ पाता है, पुराने की, दीर्घकाल से, यही गति, उस के द्वारा होती थाई है । श्राज या कल, तुम्हें भी यहाँ इसी घाट उतरना पड़ेगा। दुर्दिन के मारे, ऐसे ही प्रभागे व्यक्तियों के अस्थि-पंजरों का ढेर यह है । " बात सुनते ही
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