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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
दोनों भाइयों ने, उसके कथनानुसार, उसकी पाप पूर्ण वृतियों की पूर्ति भी की । पश्चात्, जब अधिकारी देव के प्रादेश से, सागर की सफाई के लिए वह जाने लगी, उसके पूर्व, वह उन से चोली, " मैं भी आती हूँ । इतने पर भी, तुम्हारा मन यहां 'न लगे, तो अनेकों प्रकार के सुन्दर सुन्दर वृक्ष और लतामंडपों से, पूर्व के चाग़ में जा कर अपना मनोरंजन तुम कर सकते हो । यदि, वहां भी भला न लगे, तो शरद की सुन्दर और मनमोहक छटा को छीननेवाले, उत्तर के उद्यान में तुम चले जाना । श्रनज्ञान होने के कारण, यदि वहाँ भी अधिक काल तक तुम्हारा मन विलम न सके, तो फिर पश्चिम के, उस उद्यान में तुम दोनों भाइयों ने चले थाना, जहाँ " वसन्त ऋतु रहे लुभाई ' है । और, ग्रीष्म अपनी गरिमा गवाँ बैठी है। यदि, वह भी तुम्हें अखरे, तो पुनः यहीं लौट थाना इतने में तो, मैं तुम्हें यहीं मिल जाऊँगी । परन्तु भूल कर भी दक्षिण के बाग़ में कभी पैर न रखना । वहाँ एक चढ़ाही विषधर भुजंगम रहता है । जिस ने भी एक वार, कभी उधर पैर धरा, कि चस, वह वहीं का वहीं सदा के लिए सो गया । " यूँ कह कर, देवी तो अपने काम के लिए चल पड़ी । पीछे से, खड़ेखड़े दोनों भाई, अपने भाग्य का स्वयं ही निपटारा करने लगे। अपने गुरु-जनों के श्रशोल्लंघन की बात रह-रह कर उनके विचारों में आती थी। उस निर्जन स्थान में, असहाय होने का अन्धकार उन की आँखों में था । कल, जिस लोभ का हाथ, जवानी के जोश में आ कर उन्हों ने पकड़ा था, उस के प्रति, एक रत्ती भर भी सहानुभूति, उनके हृदयों में अव न रह पाई थी । सच है, जब तक स्वयं को चपेट नहीं लग पाती, लाख
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