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जिनरिख - जिन पाल
सैकड़ों आदमियों के साथ, सदा के लिए, समुद्र की तली में वह जा बैठा 1 जिनपाल और जिन-रक्ष का दिन मान कुछ ऊँचा था। या यूँ कहो, माता-पिता की लंघन की सजा और भी कड़ी उन्हें मिलनी थी । समुद्र पर उतराता हुआ, एक पटिया दोनों भाइयों के हाथ लग गया । दोनों सवार उस पर हो लिये । ध्रुव उनके जीवन का रुख, भाग्य और हवा के रुख की थोर था | उतराते-उतराते तस्ता रत्न- द्वीप के तट पर जा कर लग गया । वहाँ पटिये पर से दोनों भाई उतर पड़े। वहां नारियल के वृक्षों का सघन वन था । भूमि पर पड़े हुए कुछ नारियल उन्हों ने उठाये । गिरी का तेल निकाल चदन पर उन्हों ने मला | उन्हीं की गिरी और पानी से अपनी भूख और प्यास उन्हों ने वुझाई। इतने ही में उसी द्वीप की रत्ना देवी, विकराल वेप किये, तलवार अपने हाथ में पकड़े, उनके सम्मुख ना खड़ी हुई । वेष-भूपा से वह देवी थी, पर हृदय उस का विकराल राक्षसा का था । पहले अनकां प्रकारक प्रलोभन और श्राश्वासन उसने उन्ह दिये । सब प्रकार से स्वागत भी उसने उनका यूरा-पूरा किया | इशारा करते हुए, अपने बढ़े - चढ़े वैभव की सम्पूर्ण सामग्री भी दूर ही से उन्हें उसने दिखाई। यह उसके कथन का एक पहलू था । दूसरे में, उस की पापवासना की पूर्ति न का जान पर, तलवार का ऊपर उठा कर, उन के सिरों को धड़ से अलग कर देने की धमकी उन्हें दी । उस विकराल वेष का देख कर, दोनों भाइयों का विवेक, वल और विक्रम, सव के सत्र विकल हो उठे थे । अस्तुः देवी का प्रस्ताव श्रनोति पूर्ण होने पर भी, स्वीकृत हो गया । तदनुसार, दोनों भाइयों को, उसके वैभव-सम्पन्न विशालकाय भवन में, उसने ला ठहराया।
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