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________________ जैन जगत के उज्ज्वल तारे वार फिर भी समुद्र यात्रा करनी इन्होंने चाही सिमय पाकर माता-पिता के सम्मुख अपने विचार इन्हों ने प्रकट किये। ये वाले, " प्राणप्यार ! पहले तो हम व वृद्ध हो चुके हैं। तुम्हारे सिवाय, हमारी देख-भाल करने वाला तक यहाँ कोई नहीं है । हाँ. नौकर-चाकर जो भी बीसियों है; परन्तु अन्त में वे नौकर ही तो होते हैं । उनके हृदय में, तुम्हारी सी पीर होने ही क्यों लगी ? दूसरे श्रभी भी घपने पास इतनी घट सम्पत्ति है, कि संभाल कर चलने पर तुम्हारी सन्तानें तो क्या, चरन् कई पीढ़ियों के लाने पर भी खर्च नहीं हो सकेगी। श्रतः हाय काम को छोड़ो। और, कठिन परिश्रम से कमाये हुए, अपने वैभव की विलसते हुए अब तो विश्व का सुख भोगो । तीसरे, इस बार की जलन्यात्रा हमें कुछ उपसर्गकारी भी जान पड़ती है । " पुत्रों ने उन की बातों को कानाफूसी में टाल दी क्योंकि, जवानी का जोश उनमें था । और, सब से ऊपर, लक्ष्मी का लोभ रूपी भूत उनके सिर पर सली से सवार था। सच है, " लोभचंद्रगुणना के ?" अर्थात् हृदय में लोभ यदि है, तो और अवगुणों की श्रावश्यकता ही क्या ? समुद्रयात्रा के लिए थाखिरकार, हटकते - हटकते भी, चल ही पड़ । जहाज़, किनारे से किनारा काट के, समुद्र की छाती को विकरालता से चीरता हुआ, उसके मध्य में अभी जाकर लगा ही था, कि एक विपस घटना इतने में वटी । भीपण तूफान उठ श्राया । श्राँधी चली । सागर की उसाल तरंगें, श्रासमान को चूमने की होड़ा-होड़ी करने लगीं। विशाल जलयान समुद्र की चपेटों को और श्रायेक समय तक व न सह सका । उथल-पुथल वह करने लगा । और, वात की बात में, [ १३८ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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