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हरिकेशी मुनि
हरकतों से तंग आकर, उसके माता-पिता ने उसे घर के बाहर निकाल दिया | तब इधर-उधर भटक कर यह अपना जीवन बिताने लगा । एक दिन, मार्ग में चलते-चलते, बड़ी तेज़ी से रंगते हुए साँप को उसने देखा । जिस के लिए लोग चारों ओर से ' पकड़ो' ' पकड़ो' की पुकार मचाते हुए एकत्रित हो रहे थे। उसके थोड़ा ही आगे चलने पर, उसने दो मुँही नामक दूसरे रेंगने वाले जानवर को देखा । परन्तु उसके लिए न तो कोई भीड़-भाड़ ही थी । और, न, पकड़ो-पकड़ो की कोई पुकार ही । इन दोना बातों पर उसने कुछ देर तक सोचा-समा । श्रन्त में नर्ताज़ा निकाला कि एक, संसार को अकारण ही सतानेवाला हैं: दूसरा, सताने से सदा दूर रहता है । इन घटनाओं का उसके हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा । उसने जान पाया, कि सुख और दुख, निज की आत्मा ही के सद्गुण और दुर्गुणों का जीवित फल है । जब उस को इस बात का निश्चय हो गया, उस ने तत्काल ही जैन-धर्मानुसार दीक्षा ग्रहण कर ली । इससे यह निर्विवाद सिद्ध है, कि जैन धर्म केवल गुणों का उपासक है; न कि चमड़े का । चाहे जिस जाति या धर्म का अनुयायो कोई व्यक्ति क्यों न हो, यदि वह गुण-सम्पन्न हैं, तो जैन-धर्म विना किसी पशोपेश और क्रूयात के विचार के, उस का सादर सत्कार करता है। जो भी कोई चाहे, फिर अपनी वह चाहे उच्च हो, या नीच ! अथवा गव हो, या रंक: इच्छा के अनुसार, जैन-धर्म का अनुयायी वह चन सकता है । - हरिकेशी इस का प्रत्यक्ष प्रमाण है । समय पाकर वही हरिकेशी, एक आदर्श तपस्वी बने । दीक्षा लेने के बाद, घोर तपस्याएँ उन्होंने की। जिनके प्रभाव से, वाराणसी नगरी के
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