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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
. निकट के, तिन्दुक उद्यान के, तिन्दुक नामक एक देवता, प्रभावित होकर, उन के अधीन हो गया । एक चार की बात है, कितने ही महीनों के बाद, हरिकेशी मुनि विचरण करतेकराते, फिर उसी चाग़ में या निकले । वाराणसी की राजकन्या भी, अपनी सखी-सहेलियों को साथ ले, उसी समय, उस तिन्दुक देव की उपासना के लिए थाई । उसकी सहेलियों में से किसी एक ग्राथ ने, मज़ाक-मजाक में ध्यानस्थ मुनि हरिकेशी की ओर इंगित करते हुए. राज कुमारी से कहा, “चाईजी ! यह तो सब प्रकार से आप ही के अनुरूप वर है ।" इस पर राजकुमारी ने उधर देख कर, मुनि के कुरूप पर घृणा दर्शाते हुए, व्यंग- पूर्वक दूसरी ओर मुँह फिरा लिया । परन्तु जिस देव की आराधना करने के लिए कुमारी वहाँ श्राई हुई थी, वह देव स्वयं उन मुनि के वश में था । राज कन्या के द्वारा होनेवाले, मुनि के अपमान को वह देख न सका । उसने उसके मुँह को वैसा ही टेढ़ा-मेढ़ा कर दिया । इस के बाद, वह देव, मुनि के शरीर में प्रवेश कर गया। मुँह के न फिरने से कुमारी घवरा उठी । उसकी सखियों में भग-दौड़ मच गई। राजा ने इस संवाद को सुना । वेभी दौड़े-दौड़े वहाँ
पहुँचे। मुनि से अनेकों भांति की अनुनय-विनय उन्हों ने की । अन्त में, शरीर में प्रवेश किये हुए उस देव ने, ध्यानस्थ मुनि के मुँह से कहलाया, कि " अब तो, जब यह कुमारी मेरे साथ विवाह करले, तभी इस का मुँह सीधा हो सकता है। अन्यथा, कभी नहीं ।" और कोई चारा न देख, राजा ने उस चात को मानली । विवाह रचा गया । विवाह सम्बन्धी सम्पूर्ण रस्मों की भी, कानूनन, अदाई हो गई । परन्तु पाणि
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