________________
हरिकेशी मुनि
-
ग्रहण का समय आते ही, मुनि शरीर से वह देव निकल भागा । उन्हें होश श्राते ही, वे एकाएक उस कन्या से दूर उठ खड़े हुए। और, वाले, " अरे ! यह क्या ? कहाँ तो मैं निर्ग्रन्थ और त्यागी साधु; और कहाँ इस कञ्चन और कामिनी का साथ ! मैं तो बुरी दृष्टि से नारियों को देखना तक अपने तप और संयम के मार्ग का घार विरोधक मानता हूँ ! फिर विवाह का यह पचड़ा मेरे साथ क्यों और कैसा ?" यों, कहते-सुनते मुनि तो वहाँ से नौ-दो हो गये ! और, सब लोग उन्हें देखते ही रह गये। किसी की भी हिम्मत न हुई, कि वे ऋषि को ठहरा सकें। सामुदायिक रूप से तव प्रस्ताव पास हुआ, कि ऋषि द्वारा त्यागी हुई यह राज कुमारी, जो श्रद्ध-विवाहित अवस्था में है, केवल ब्राह्मणों के लिए ग्राह्य है । वाद-विवाद के पश्चात् प्रस्ताव पास हो गया । एक तरुण ब्राह्मण- कुमार के साथ उसका विवाह कर दिया गया ।
विवाहोपलक्ष में ब्राह्मण समाज ने प्रीतिभोज दिया । एक तरफ भोजन की तैयारियाँ बड़ी धूम-धाम से हो रही थीं । दूसरी ओर, ब्राह्मण लोग यज्ञ करने में लीन थे। इतने ही में गोचरी के लिए, मुनि हरिकेशी भी उधर श्रा निकले। इन के कुरूप और मैले वस्त्रों को देख कर, ब्राह्मणों ने इन पर पेटभर कर ताना-क़शी की। इस पर मुनि के शरीर में उनके सहगामी देव ने प्रवेश कर कहा, "हम श्रमण हैं; संयति हैं ब्रह्मचारी हैं; संसारी विषयों से विरक्त वन, हम साधु हुए हैं; भिक्षार्थ यहाँ आये हैं। अपनी शक्ति के अनुसार, जितना भी श्राहार- पानी तुम लोग हमें चहरा सकते हो, उतना ही हमें दो ।" परन्तु ब्राह्मणों ने इस का उत्तर, मुनि को झिड़कते हुए,
[१]