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________________ बलदाऊजी लगे । मार्ग में भी पानी के लिए, कई वार उन्होंने पहले ही के समान, अपने भाई से पूछा । भ्रातृ-स्नेह का आर्दश उदाहरण यह था । एक अाज के भी भाई होते हैं। एक ही कोख से वे पैदा होते हैं। एक ही गोदी और घर में पल-पुप कर, बड़े वे होते हैं । संसारी समझ का साथ होने के पहले वे दो शरीर और एक प्राण होते हैं। परन्तु ज्योंही आज के • संसार की हवा उन्हें लगी, वे एक दूसरे के पक्के प्राण-लेऊ बन जाते हैं । पहले, एक के साथ एक अर्थात् ग्यारह की शक्ति उन में श्री। अव एक ऋण एक, अर्थात् शून्य चल उनका रहता है। वे दीवाने बन जाते हैं । यही कारण है, कि संङ-मुसंड वैद्य, हकीम, वकील, आदि उन की सम्पत्ति के श्रव स्वामी होते हैं। कोर्ट-बाजी अब उन का जीवनव्यवसाय रहता है। राम और भरत का श्रादर्श-स्नेह भी, हमारे सम्मुख सदा रक्खा जाता है। वहाँ भी हमें यही पाट पढ़ाया जाता है, कि एक ने, दुसरे के लिए राज्य छोड़ा। परन्तु दूसरा, उसे ग्रहण करना, अपने अधिकार,न्याय, धर्म, कर्तव्य और सब से ऊपर, अपने अश्रुत-पूर्व आदर्श भ्रात-भाव की, हत्या करना समझता है । प्रजा के प्रतिनिधि, सचिव, गुरु और परिवार, सभी के सम्मुख भरतजी कहते हैं:" मोहिं राज हृष्टि देहहु जब ही। रसा रसातल जाइहि तब ही ॥ मो समान को पाप-निवासू ? जेहि लगि सीय-राम वनवासू ॥" एक अाज के भाई होते हैं, जो एक इंच धरती भी इधर की उधर नहीं छोड़ते । स्वार्थ, स्वोन्नति, स्वकीर्ति, स्वत्व, आदि अाज के श्रादर्श हैं। इन की आड़ में, जो-जो अत्याचार, जगत् में श्राज हो रहे हैं, छोटे-छोटे सब कोई उन्हें जानते [१३३]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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