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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
महाराज के माता-पित का, वहीं का वहीं, शरीरान्त हो गया। चल चले अब दोनों भाई कौशाम्बी में पहुँचे। उस समय, कृष्ण महाराज अत्यन्त प्यासे थे । वहाँ एक विशाल वट को देख, उन की छाया में, वे पैर पर पैर चढ़ाकर, बैट गये । बलदाऊ जी जल की तलाश में गये।
इधर, महाराज कृष्ण के पैर के पन के चमकते हुए चिन्ह को, दूर से, जरद कुमार (काल भील ) ने मृग की आँख समझा । और, तत्काल ही, एक तीखो तीर उसने उस ओर छोड़ दी। पास वह पाया। महाराज को सामने दग्य कर और तीर को उन्हीं के पैरों में लगा हुश्मा जान कर, उस के होश-हवास खट्टे हो गय। परन्तु पश्चात्ताप के सिवाय. उस के पास अब कोई नहीं था। इतने है। में, " अर व्याध! यवरा मत । अपने पूर्व भव, रामावतार मेंने तुझे तीर मारा था। यह उसी की भरपाई है। अब तू यहाँ से, जितना भी जल्दी हो सक्ष, भाग निकल । अन्यथा, बलदाऊ के श्रान पर, तेरा वचना असम्भव हो जायगा।" महाराज श्रीकृष्ण ने कहा । व्याध, यह सुन कर, नौ-दो बना । तीर विपैली थी। वलदाऊ जा के आने के पहले ही पहले, शरीर को त्याग कर, महाराज श्रीकृष्ण निज-धाम को पहुँच गये।
चलदाऊजी आय । “भाई, पानी पीले । “वे बोले । एक वार, दो वार, चार बार, बलदाऊजी ने उन्हें पानी पी लेने के लिय कहा। परन्तु महाराज श्री कृष्ण का शरीर तो इह लौकिक लीला का संवरण कर चुका था। वे तर बोलत
भी कैंले ? वलदाऊजी ने समझा, "भाई गेप में हैं। तब .. तो उन्हें अपने कन्धे पर उन्होंने उठा लिया । ओर , चलने
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