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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
है। अस्तु । “
भ्रातृ-प्रेम के वशीभूत हो, वलदाऊजी, श्रीकृष्ण को कन्धों पर उठाये हुए, वड़ी दूर निकल गये। तव भी मृतक शरीर का अग्नि संस्कार उन्होंने नहीं किया। तव उन्हें चितौनी देने के मिस, एक देव ने मनुष्य का शरीर धारण किया ।
और, कोल्हू में रेती वह पैरने लगा। चलदाऊजी ने उसे देखा। व बोले, " अरे! यह क्या करता हैं ? रेती से भी कहीं तेल निकला है ?"देव ने कहा, "जयरतोसे तेल नहीं निकल सकता, तोमृतक शरीर भी वोल कैसे सकता है? ज़रा,महाराज श्री कृष्ण के शरीर की ओर देखो तो!" बलदाऊजी की आँखें खुली। भाई की ओर देख कर, नाना प्रकार के विलाप वे करने लगे। अन्त में, विधि-विधान क साथ, मृत-देह का अग्नि-संस्कार उन्हों ने किया । अव जगत् में वे अकेले थे । जगत् की अनित्यता पर, उन का ध्यान गया । वैराग्य उन के हृदय में उमड़ पड़ा। तब तो दीक्षित हो, वन-वन में विहार वे करन लगे।
मुनि वलदाऊजी,अब एक-एक माह की कठोर तपस्या करने लगे। एकवार पारणे का दिन था। वन से,वे तुंगिया नामक नगर में गोचरी के लिये आये। रूप-सौन्दर्य पहले हीसे उनका विखरा पड़ताथा। तपस्या के कारण, अब तोवह और भीचमकने लगा
था। नगर की नारियाँ कुएँ पर पानी भर रही थी। उन की निगाह वलदाऊजी पर पड़ी। आँखों के द्वारा, वे उन के रूपसौन्दर्य को पीने-सा लगीं। एक ने तो, इस धुन ही धुन में,बड़े के बदले, पड़ोस में बैठे हुए अपने बच्चे ही के गले में रस्सी डाल दी । और, 1एँ में उस लटका तक दिया। बलदाऊ जी ने, उस की इस अमानुषिक करतूत के लिए, चिताया । तव
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