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________________ बलदाऊजी वह होश में आई। उस के पहले तक, उस ने बच्चे का रोनाधोना सुना तक नहीं, क्योंकि, उस का मन और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ तो, बलदाऊजी के रूप-सौन्दर्य के हाथ बिक चुकी थीं। मुनि ने अपने रूप-सौन्दर्य की, मन ही मन में बढ़ी निन्दा की। इतना ही नहीं, ऐसे-ऐसे कई श्रनर्थों का मूल कारण अपने को समझ, उस दिन से, भिक्षार्थ शहर में थाना तक उन्हों ने सदा के लिए रोक दिया । वहीं से वे फिर वन में लौट पड़े । " उसी वन में, एक सुतार किसी एक विशाल वृक्ष की शाखा को छाँग रहा था। भोजन का समय होने पर उस की स्त्री मट्ठा और रोटियाँ, उस के लिए यहाँ लाई । काम को अधूरा ही छोट कर वह वृक्ष से नीचे उतरा। इतने ही में, एक मृग बलदाऊजी के निकट श्राकर, अपने सिर से उसी श्रीर, उन्हें ले चलने के लिए, इशारा करने लगा। मुनि ने मृग का अनुसरण किया | चल चल वे दोनों भी उसी वृक्ष के समीप श्राये । सुतार भी भोजन करने के लिए तैयार बैठा ही था । मुनि नं, "भाई ! यदि तु चाहे, तो हमें भी कुछ दे दे, कहा। सुतार प्रसन्न हो कर मुनि को भोजन बहने लगा । मृग, उस समय, मन ही मन अनेकों प्रकार के मनसूबे करने लगा। उसके मन में, "श्राज, यदि मैं भी मनुष्य होता, तो तपस्वी मुनि की यथा-शक्ति कुछ न कुछ सेवा श्रवश्य करता । इस सुतार का भाग्य सचमुच में सराहनीय हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई का कुछ भाग, मुनि की सेवा में अर्पित कर रहा है । " श्रादि यदि इस प्रकार की ऊंची भावनाओं का कुरण हो रहा था । तीनों के जीवन की अन्तिम घड़ियाँ बिलकुल ही निकट था "" t [ १३.५ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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