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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
इति तक, इस दुर्घटना का सारा इतिहास, मुनि के आगे कह सुनाया। साथ ही, वह कुकृत्य उन के द्वारा क्यों हो पाया, उस का कारण भी उन्हों ने उनसे पूछा << 1 राजन | तुम पूर्व भव में, काचरे के एक जीव थे। और, खन्धक एक राज कुमार ही । इन्हों ने बड़ी ही प्रसन्नता पूर्वक, उस काचरे का छिलका उतार फेंका था । उसी का, इस जन्म में, तुम ने यह वैर-बदला लिया है । और कुछ नहीं । ऋण और वैर का चदला, लाख प्रयत्न कर के कहीं भी कोई जावे, अवश्य उसे चुकाना ही पड़ता है । और, वह भी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ | श्रतः मन में वैर और बदले की भावना तो, कभी भूल कर भी न रखनी चाहिएं। प्राणी, इन्हीं के चक्कर में श्राकर, श्रावागमन के पंजे में फँसता है । श्रात्म-कल्याण और श्रात्मोन्नति के राज-मार्ग में, ये बड़े भारी वाधक हैं । क्या, धर्म-शास्त्र और सन्तों के इस अनुभव का उचित लाभ हमें न उठा लेना चाहिए ? यदि हाँ, तो आज ही से हमें प्रतिज्ञा कर लेनी चांहिए, कि वैर और बदले की भावनाओं को हम कभी पास तक न फ़टकने देंगे। बस, इसी में हमारा, हमारे कुटुम्ब तथा जाति
और हमारे स्वर्गो म देश का उत्थान है ।" मुनि ने समझा कर कहा | मुनि के इन सत्य और हितप्रद वाक्यों से, उन पाँच ही सौ सुभटों और राजा तथा रानी का हृदय संसार से फिर गया । तब तो, आत्म-कल्याण और अक्षय सुख की प्राप्ति के हित, साधु वे वन गये ।
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