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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
भावों की दिशा बदली। राजा ने, श्रावक-धर्म को सहर्ष स्वीकार कर लिया । श्राज से राज्य की श्रामदनी का एक चौथाई भाग, अनाथ और अपाहिजों के अर्थ खर्च होने लगा । धर्म में अभिरुचि उन की दिनों-दिन बढ़ती ही गई । अब, धर्म उनके प्रत्येक व्यवहार और व्यापार की वस्तु थी । राज-पाट और राज-परिवार से भी व धीरे-धीरे उन का मोह कम होता जाता था । विषयान्द के कीड़ों को पारमार्थिक बातें हलाहल विष के समान लगती हैं । रानी का राजा की ये हरकतें चड़ी ही खरी । उस ने सोचा, "अव राजा न तो राज-कार्य मैं ही मन लगाते हैं; न शासन-सूत्र ही मेरे पुत्र के हाथों देते हैं; और, न मेरी ही सुधि व वे लेते हैं । इस से तो यही श्रेयस्कर है, कि राजा को भोजन में ज़हर देकर, रोज़ की इस खट-खट का खातमा सदा के लिए कर दूँ । " रानी ने अपने मनसूबे को कार्य का रूप देना निश्चित कर लिया ।
उधर, राजा अपने श्रावक-धर्म का यथा विधि पालन कर रहे थे । अव तक वारह चेलों की तपश्चर्या वे कर चुके थे । तेला की तपश्चर्या उन्हों ने शुरू की थी । पारणे के दिन, हलाहल विष - युक्त भोजन रानी ने उन्हें दे दिया। इस बात का भेद भी उन पर प्रकट हो गया । रानी की कुत्सित करणी के लिए, फिर भी, रंच - मात्र तक द्वेष उन के दिल में न आया । इस के विपरीत, क्षमा-भाव को धारण. करते संथारा- उन्हों ने ले लिया। एक ही जन्म के बाद मनुष्य योनि हुए, समाधिमें पुनः आने, और उस के द्वारा श्रात्म-कल्याण कर, मोक्षधाम को सिधारने के हेतु, यहाँ के लोक की लीला-संवरण कर, सूर्याभदेव के रूप में जा कर के वे पैदा हुए ।
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