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खन्धक-मुनि
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बस्ती में विजय सेन मुनि का शुभागमन हुआ उत्थान कैसे हो, " इस विषय पर उन्हों ने यथेष्ट प्रकाश डाला । मुनि के प्रभावोत्पादक और ग्रात्म-कल्याण-कारक उपदेश से, कुमार का मन वैराग्य में रंग गया। वे मुनि से बोले, भगवन ! मैं भी इसी मार्ग का अनुयायी हूँ। मुझे भी, मेरी शक्ति के अनुसार, कोई मार्ग दिखाइये, जिस के चल, भव-सागर से मैं भी सहज ही में पार लग सकूं। माता-पिता की श्राज्ञा प्राप्त कर, मैं भी दीक्षित होना चाहता हूँ । तुम्हें जिस प्रकार भी सुन हो, करो, " मुनि ने बदले में कहा । माता-पिता के पास श्राकर, कुमार ने दीक्षार्थ श्राशा मांगी। और, पुनः मुनिराज के पास जाकर, दीक्षित वे हो गये । थोड़े ही समय में, यथेष्ट ज्ञान प्राप्त उन्हों ने कर लियां । यहाँ तक कि अकेले ही विचरण कर, शास्त्र सम्मत उपदेश देने के अधिकारी भी वे बन गये । एक दिन अकेले में बिहार उन्हों ने कर भी दिया । माता-पिता को यह बात मालूम होने पर पांच सौ सुभटों की एक टोली, शरीर-रक्षक के रूप में, उन्हों ने तैनात कर दी। साथ ही उन्हें यह भी समझा दिया, कि कुमार-मुनि को कहीं भी कोई कष्ट न हो । वे पूरी-पूरी देख-भाल करते हुए, गुप्त रूप से, उन के श्रास-पास ही सदा-सर्वदा रहे ।
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I आत्मा का
विचरते विचरते, मुनि, कुन्ती नगर के बाग़ में पधारे । मास - मरण की तपस्या का पारणा उन को उस दिन था । गोचरी के लिए फिरते-फिरते राज-महलों के नीचे से वे निकले । पुरूष सिंह यहाँ के राजा थे । और खन्धक मुनि की चाहिन सुनन्दां का विवाह इन के साथ हुआ था । उस समय, राजा और रानी दोनों महल के गवाक्ष में बैठे हुए चौपड़ पासा खेल
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