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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
श्रीमुख से, " यह, विषय-व्याल के लिए महा-मणि है: यह, कर्म की रेख में मेख मारने वाला है; यह, वह अमोघ-शक्ति है, जिल के वल भाग्य के कठिन कुअंक भी सहज ही में पलट जाते हैं, यह सर्वोत्कृष्ट मंगलकारी एवं प्रानन्द का श्राधार है, भव.. सिन्धु की वैतरणी के पार जाने के लिए, यह, दृढ़ जल-पोत है, उसके इस महात्म्य को सुन कर तो, उस में उसकी श्रगाव श्रद्धा हो गई। वह विधान के साथ, नित्य उसका जप-जाप निष्काम भाव से करने लगा। ____एक दिन महाराज श्रेणिक न, एक विशाल भवन के रचवाने का विचार किया। दूर-दूर के सैकड़ों शिल्पयों को बुलाया गया। राज-प्रसाद का काम प्रारम्भ हुा । परन्तु." नों दिन चले अढ़ाई कोस" की कहावत के अनुसार, महल का जितना भी भाग दिन में वन पाता, रात में पुनः ढह जाता। अनेकों उपाय किये गये । लब्ध प्रतिष्ठा और कार्य-कुशल श्रनेको इंजीनीयरों ने, दिन-रात एक कर, अक्ल दौड़ाई; परन्तु सव उपाय जड़मूल से बेकार सिद्ध हुए। किसी की भी करामात वहाँ कारगर न हुई । जव विज्ञान और उस के धुरन्धर भक्तों की कुछ अल न चली, अन्ध श्रद्धालु लोगों के साथ सलाहमशविरा तव किया गया। और, उनकी राय-शरीफ से यह तय किया गया, कि एक सुलक्षण-सम्पन्न पुरुप का बलिदान वहाँ किया जाय । तदनुसार, उपर्युक्त पुरुप की माँग और वदल में उसी के तौल का सुवर्ण देने की राज-घोपणा, राज्य भर में हुई । ऋपभदत्त के कानों पर भी यह बात पड़ी। दरिद्रता का मारा तो वह जन्म ही से था । अभी-अभी तो उस के भाग्य यहाँ तक फूट चुके थे, कि जहाँ भी आशा लगा कर यह जाता।
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