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जैन जगत् के उज्ज्वल तारे
और अर्थ-लोलुप नौकरों की सोलह आना बन पटनी है । ऐसे ही अवसरों का सदुपयोग कर, वे अपनी मन-मानी पद-वृद्धि करवा लिया करते हैं । यही कारण है, कि अपने मालिक के. किसी के प्रति किये हुए एक गुना विरोध को, दस गुना कर के दिखाते हैं । वे इस बात को तो, फिर देखने ही क्यों और कव लगे, कि उन के स्वामी की श्राज्ञा अन्याय - संगत है या न्याय संगत | वे, रोटी के कुत्ते होते हैं । परमात्मा का भी कोई भय, उस क्षण, उन्हें नहीं होता । श्राज्ञा पाते ही, नौकर लोग, उन्हीं मुनि को, जो एक दिन इसी राज्य के सर्वेसर्वा श्रधिकारी थे, मारते-पीटते शहर के बाहर ले जाने लगे । महाराज सुकौशल ने एक दासी के द्वारा, इस घटना को गुप्त रीति से सुन पाया। वे दौड़े और मुनि के पास आकर उन के चरणों में गिर पड़े। अपने अपराध की क्षमा चाही । वे बोले, "मुनिनाथ ! इस घटना से मैं बिलकुल अपरिचित हूँ। मेरी माता ही का हाथ इस में है । यह राज्य, धन, धरती, शादि सव . के हैं । आप पुनः गोचरी के लिए वस्ती में पधारें ।" सन्तहृदय, शत्रु और मित्र सभी के लिए समान होता है। मुनि बोले " वत्स ! संसार के स्वार्थ और विषमता की गलियाँ बड़ी श्री तंग हैं। आगे चल कर मुनिनाथ ने सुकौशल महाराज को श्रात्म बोध का उपदेश दिया । सुनि का उपदेश कार कर गया। बात की वात में दुनियाँ से उनका दिल फिर गया । बस, फिर देर ही कौन सी थी । चट, मुनि का वेश उन्होंने धारण कर लिया । और, मुनि के साथ हो लिये ।
महाराज सुकौशल की माता ने इस संदेश को सुना । पुत्र-प्रेम के आवेश में आकर, महल के ऊपर से वह नीचे
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