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अर्जुन - माली
बन्धुमति ' भी उसी के अनुकूल उसे या मिली थी। उसका निज का एक वगीचा था, जो नगर के बाहर था । वह इतना सुन्दर और मनोहर था, कि अपने मालिक के समान ही, दर्शकों के मन को मोहे लेता था । वह सचमुच में ' श्राराम' ही था । उसके निकट ही महान् प्राचीन और चमत्कारिक, सुदूर-पाणि एक यज्ञ का स्थान था । उस की मूर्ति लोह-निर्मित थी । श्रर्जुन- माली बालक पन ही से उस का परम भक्त था । चह उस पर सदा फूल चढ़ाता और भाँति-भाँति के भजन गाता था। उन्हीं दिनों, राजगृह में, समान शील, व्यसनवाले छः उदंड मित्रों का एक मित्र मंडल था, जो ' ललित-मंडल के नाम से प्रसिद्ध था । इस के करतूतों की धाक सारे नगर में थी। भला या बुरा, चाहे जैसा कृत्य वह करता, जनता उसको भला ही मानती थी ।
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श्राज
एक दिन किसी महोत्सव की धूम नगर में थी । फूलों की विक्री विशेष होगी, यह जान अर्जुन अपनी स्त्री को साथ लेकर, बड़े सुबह ही अपने उद्यान में पहुँचा और फूल चुनने मैं निमग्न हो गया । फूल चुन चुकने पर, अर्जुन - सपत्नीक उस यक्ष के स्थान की ओर चला । मार्ग में उस उद्दंड मंडली ने उन्हें देखा | वे परस्पर मनसूबा करने लगे, "अपन भी चल कर कहीं इधर-उधर पड़ींस ही में छिप रहे । ज्योंही अर्जुन यक्ष पर फूल चढ़ाने को आवेगा, अपन उस पर टूट पड़ेंगे । उसे बाँध देंगे || फर वन्धुमति अपनी है । अपन जिस प्रकार चाहेंगे, उस के साथ दिल खोल कर व्यापार करेंगे । " तदनुसार, उन्होंने वैसा ही किया । .
अर्जुन ने सपत्नीक यक्षालय में प्रवेश किया । यक्ष पर [ x ]