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ललितांग-कुमार
एक दिन, वह, कुमार के श्वसुर के पास फ़र्यादी न कर पहुँचा । वह बोला, "आप के दामाद, कुमार ललितांग, मेरे साथ इतना स्नेह केवल इसी लिए करते हैं, कि कहीं उनके पाप का भण्डा फ्रूट न जाय । असली राजकुमार तो मैं हूँ । चे तो मेरे चरवादार हैं । राजा, यह बात सुन कर, याग वगोला हो गया । उसी क्षण जल्लादों को उस ने बुलाया । उन्हें श्राश दी, कि "आज टीक ग्यारह बजे रात को, जय कुमार ललितांग को मैं अपने पास बुलाऊँ, उस समय, अमुक स्थान पर, श्राते हुए कुमार के सिर को धड़ से अलग तुम कर दो। और, यह भी ध्यान में रक्खो, कि इस गुप्त अभिसन्धि का रहस्य किसी पर प्रकट न होने पावे 1 "
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राजाज्ञा के अनुसार, कुमार के क़त्ल का सारा सरंजाम हो गया । ठीक ग्यारह, घड़ी बजा रही थी, कि इतने ही में एक राजकीय पुरुष कुमार के निकट श्राकर चोला, 'कुमार की जय हो । महाराज ने श्राप को इसी घड़ी याद फर्माया है। मेरे ही साथ श्राप हो लें। " कुमार कुछ सेकण्ड तक दुविधा में पड़ गये । श्राखिरकार, सज्जन को उन्होंने कहा " भाई ! ज़रा, नरेश से मिल तो आओ। इस श्राघी रात के समय, मुझे उन्होंने याद क्यों किया है !" सज्जन राजकीय पुरुष के साथ हो लिया । वेचारा चीच ही में, जल्लादों के द्वारा, कुमार के भरोसे, कत्ल कर दिया गया । सज्जन के पापों की पराकाष्ठा हो चुकी थी । संसार में, उस के लिये, मृत्युदण्ड से बढ़ कर और कोई दंड ही नहीं था । इस जगह,
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खाड़ खनैगो श्रोर को, ता को कूप तयार " चाली पहली, सज्जन के लिए सोलाह आना घटी। सुबह हुआ । राजा की
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